शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

अब हम बड़े हो गए है

........बात उन दिनों की है जब....कब पढ़ते पढ़ते आँख लग जाती थी पता ही नही चलता था.......और ये किस्सा आज का है की नींद नही आती तो आधी रात तक किताब पढ़ते पढ़ते ही  गुजर जाती है ....उन दिनों ठंडी हवाओ से इतना डर लगता था की जुराब और टोपी पहन कर ही बाहर निकलते थे ...और आज ये सर्द हवाए न जाने क्यों मदहोश सा कर जाती है ..तमाम गर्म कपड़ो की गर्मी को चीरती भीतर कही अंतर्मन में एक सीलन सी दे आती है..उस वक़्त सारे खेल तमाशों के उस्ताद हम ही थे ..चाहे गुडिया का ब्याह रचाना हो या पड़ोस के लडको के साथ गुल्ली डंडा खेलना..घर की देहरी से मन की दीवारों तक ये खेल खिलोने कुछ इस कदर बसे थे कि रात में ख्वाब में भी ये खिलोने ही आते थे...मगर वक़्त ने अब जो सुबह दी है उसमे सीन ये है कि हमारी आँखों के सामने खेल हो जाता है और हमें पता भी नही चलता कि ये खेल क्या था और कौन इसमें खिलौना बना..फिर मोहल्ले में होने वाली शादिया जिनमे दूल्हा दुल्हन को देखने कि ऐसी होड़ मचती थी कि बंद बाजे कि आवाज आते ही सब छतों पर चढ़ जाया करते थे...जिन आँखों से उन बरातों को देखते थे उन्ही अंखियों के किसी किनारे पर अपनी बारात कि चाहत तैरती महसूस होती थी ..अब जब उस किनारे के बारे में सोचते है तो मन कि इस कश्ती के सामने शादी से जुडी तमाम संक्रिन्ताओ के तूफ़ान आ जाते है..जो एक सुखद सपने को भयावह हकीक़त बना देते है..माँ बाप के झुके हुए सर ..पाई पाई कर जुटे पैसों को शान शौकत के नाम पर पानी कि तरह बहाना..तमाम तिमारदारियों के बावजूद आलोचनाओ को अमृत समझ कर पीना ..उस वक़्त कहाँ पता थी अफ़साने कि ये हकीक़त हमें..और इस्कूल के दिनों में कॉपी पर मिलने वाले गुड और excellent को गिनकर खुद को बेहतर साबित करना,क्लास में फर्स्ट आने के लिए एक एक नंबर को लेकर सतर्क रहना..१० वी का बोर्ड .फिर १२ वी का बोर्ड फिर कॉलेज एक एक कदम कितने अरमानो और मेहनत से आगे बढाया था ...लेकिन आज भी मंजिल दूर है ..आज भी बीच सफ़र में है ..और उस पर आलम ये कि वो कदम जो बढ़ाये थे ..मंजिल कि तरफ जा ही नही रहे थे ...वो तो घर के अन्दर ही कहीं टहल आने कि तरह थे ..अब बाहर कि ये दुनिया क़दमों के  कुछ और ही निशां मांगती दिखती है...तभी एकाएक अहसास हुआ कि वो बचपन था और अब हम बड़े हो गए है .....रसूख और रुतबे में नही ...रस्मों रिवाजों में..माँ बाप कि आवाजों में और घर के खिड़की दरवाजों में ..........

5 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

आजकल शादी-विवाह को लेकर अलग ही नजरिया अख्तियार कर लिया गया है . एक तरफ जहाँ लड़के के परिवारीजन दहेज़ लेते हैं सो अलग और लड़की पक्ष से इस तरह से व्यवहार करते हैं जैसे उन्होंने लड़का पैदा करके पुण्य किया है और लड़की वालों ने पाप.

अनिल कान्त ने कहा…

लेकिन फिर भी अगर इस समाज को बदल सकते हैं तो केवल हम युवा.

डॉ .अनुराग ने कहा…

ईमानदारी......एक ईमानदारी है इस पोस्ट में ...थोड़ी बहुत हिचक .थोडा गुस्सा भी....
एक गाना है न ...ए ज़माने आ . आजमाने आ .....पेशेवर हवा मुश्किलें सजा....

Udan Tashtari ने कहा…

सटीक आलेख.

अनिल की बात से सहमत..युवाओं को कमान सम्भालनी होगी.

संजय भास्‍कर ने कहा…

AB HUM BADE HO GAYE HAI...
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