वक़्त वक़्त की बहुत सी बातें है
शाम के एक ख़ास वक़्त पर
माँ कहती है
धुप बत्ती करो
संध्या समय है
उस वक़्त वो बाल नहीं सवारने देती
दर्पण में नहीं निहारने देती
ये उनका एक अंध विशवास लगता है
पर जब माँ कहती है
दो वक़्त मिल रहे हैं इस वक़्त
दरिया भी रुक जाता है ...
तो ये मुझे
अपना एक
अनछुआ अहसास लगता है
जैसे वक़्त के रुक जाने की कल्पना से
मन सिहर जाता है
वक़्त आगे बढ़ने लगता है
तो जी घबराता है
.
.
ये माँ कैसी बातें करती है
कि इस वक़्त
एक वक़्त
दूसरे वक़्त
से मिल जाता है
जैसे सुबह को शाम
अपने आगोश में ले लेती हो
या सूरज की देह
चाँद बनकर निकलती हो
दरिया कितना खुशनसीब है
जो वो रुक पाता है
ये देखने के लिए
मेरा तो सारा वक़्त ही
उस वक़्त की कल्पना करने में निकल जाता है
शाम के एक ख़ास वक़्त पर
माँ कहती है
धुप बत्ती करो
संध्या समय है
उस वक़्त वो बाल नहीं सवारने देती
दर्पण में नहीं निहारने देती
ये उनका एक अंध विशवास लगता है
पर जब माँ कहती है
दो वक़्त मिल रहे हैं इस वक़्त
दरिया भी रुक जाता है ...
तो ये मुझे
अपना एक
अनछुआ अहसास लगता है
जैसे वक़्त के रुक जाने की कल्पना से
मन सिहर जाता है
वक़्त आगे बढ़ने लगता है
तो जी घबराता है
.
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ये माँ कैसी बातें करती है
कि इस वक़्त
एक वक़्त
दूसरे वक़्त
से मिल जाता है
जैसे सुबह को शाम
अपने आगोश में ले लेती हो
या सूरज की देह
चाँद बनकर निकलती हो
दरिया कितना खुशनसीब है
जो वो रुक पाता है
ये देखने के लिए
मेरा तो सारा वक़्त ही
उस वक़्त की कल्पना करने में निकल जाता है