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बुधवार, 4 जनवरी 2012

जब दो वक़्त मिलते हैं

वक़्त वक़्त की बहुत सी बातें है
शाम के एक ख़ास वक़्त पर
माँ कहती है
धुप बत्ती करो
संध्या समय है
उस वक़्त वो बाल नहीं सवारने देती
दर्पण में नहीं निहारने देती
ये  उनका एक अंध विशवास लगता है
पर जब माँ कहती है
दो वक़्त मिल रहे हैं इस वक़्त
दरिया भी रुक जाता है ...
तो ये मुझे
अपना एक
अनछुआ अहसास लगता है
जैसे वक़्त के रुक जाने की कल्पना से
मन सिहर जाता है
वक़्त आगे बढ़ने लगता है
तो जी घबराता है
.
.
ये माँ कैसी बातें करती है
कि इस वक़्त
एक वक़्त
दूसरे वक़्त
से मिल जाता है
जैसे सुबह को शाम
अपने आगोश में ले लेती हो
या सूरज की  देह
चाँद बनकर निकलती हो
दरिया कितना खुशनसीब है
जो वो रुक पाता है
ये देखने के लिए
मेरा तो सारा वक़्त ही
उस वक़्त की कल्पना करने में निकल जाता है


शनिवार, 7 मई 2011

माँ

माँ
सोच में हूँ कि कैसे अलंकृत करूँ
इस व्यंजन को जिसका स्वर
मेरे पूरे जीवन का आधार है
घनी धूप  में पेड़ की छाया कहूँ
या अंधेरों में रौशनी का एहसास
अतुल्निये हो तुम माँ .....................
फ़िर किस से तुलना करूँ तुम्हारी
कौन है इस जग में तुम जितना ख़ास
असमंजस में पड़ जाती हूँ जब देखती हूँ
हर माँ में वही  जज्बा
वही  जज्बात
संघर्ष , समर्पण और सहनशक्ति की वो अद्भुत मिसाल
जीवन के हर मुश्किल दौर में उसकी दुआओं का साथ
देने को उसे क्या दूँ
उसकी ममता जितना अनमोल
कुछ नही है मेरे पास
हे इश्वर !!!!!!!!!!!!!हे अल्लाह
कबूल करना इतनी दरख्वास्त
जिस आँचल  के सायें में
पली बड़ी हूँ, उस झोली में खुशियाँ भर सकूँ
कर सकूँ कुछ तो रहमत तेरी
न कर सकूँ तो माँ को कभी कोई दुःख भी न
दूँ
न कर सकूँ तो कभी उसे मैं कोई दुःख न दूँ

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

घर, शहर, दिल, दिल्ली और हम यानि मैं


अँधेरी रातों में चमचमाते चेहरे, भीड़ के बीच का एक शांत सा शोर, ठहर जाने की चाहत संजोये भागते दोड़ते लोग....पिछले तीन दिन मैं दिल्ली में थी. मैं दिल्ली की हूँ या दिल्ली मेरा शहर इस बात का फैसला अभी नही हो पाया है क्योंकि अक्सर आखिर में आकर चीजे रोजी रोटी से जुड़ जाती हैं ..जो मेरे लिए  दिल्ली में मुकम्मल नही हो  पाई...खैर एक महीने बारह दिन बाद वापस आकर अपने किराये की घर को दीवारों को महसूस कर, करीने से सजे बिस्तर को सलवटों से सराबोर कर न चाहते हुए भी अच्छा ही लगा...घर की बात, माँ के प्यार भरे हाथ और पापा के अचानक उमड़ पड़े दुलार की बात ही कुछ अलग होती है शायद..दूरिया प्यार बढा देती है ये बात भी प्रमाणिक होती नजर आने लगी है ..लेकिन कितनी अजीब बात है प्यार पाने और जताने के लिए उन्ही से दूर होना पड़ता है जिनसे दूर होने का सोचना भी कभी गवारा नही हुआ करता था...निरे बचपने से निकलकर नीरी समझदारी की बातें करना आसान नही होता....बताना कितना मुश्किल होता है ये अहसास कभी नही हुआ क्योंकि  माँ बाप दोस्त की तरह हमेशा कंधे और सर दोनों पर हाथ धरे रहे है ..छिपाना कितना मुश्किल होता है ये अब पता चला क्योंकि हर बात बताई नही जा सकती कुछ बात बताने लायक नही है और कुछ बता कर भी कुछ फायदा नही है...जिंदगी अपने से ही रंगों में रंगती जा रही है जहाँ मुझे हर रंग में मिलावट नजर आती है और सामने वाले को हर दृश्य सुनहरा प्रतीत हो रहा है...तीन सौ पैसठ दिन उस शहर में रहकर शब्दों का ऐसा आलोडन कभी नही रहा जैसा तीन दिनों के एक भाग दोड़ भरे सफ़र में हो रहा है .....जैसे तीन घंटे की एक पूरी फिल्म बन सकती है ..दिल्ली से लुधियाना की बस पर बैठने के वक़्त से न्यूज़ रूम में आकर ख़बरों से उलझने के दरम्यान कितनी ही बातें दिमाग में आती जाती रही ... जब छिपाया जाता है या यूँ कहूँ की बताया नही जाता है तो बहुत कुछ होता है कहने के लिए जिसे एक ख़ामोशी के साथ लिख देना ही बेहतर होता है .......पर क्या कीजे जब वक़्त कम हो और बात बड़ी औरत उलझी उलझी ...सब घर जाने की तयारी कर रहे है एक बजने वाला है मुझे  भी जाना है तबियत अब भी नासाज है ...बस घर पर ही ठीक रही थी घर की बात ही कुछ अलग है .......................हालाँकि घर अपना नही है किराये का है ...पर घर है 

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...