मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

जिनका है अंदाजे बयाँ और

गुलजार की बनवाई हुई ग़ालिब की तस्वीर
ग़ालिब की हवेली में ८० साल से रह रहे फखरुद्दीन बाबा
दोपहर की  अंगड़ाई। दुकानों पर मसरुफ लोग। सभी गलियों सी तंग  गली। तारीखी इमारतें, पुराने खंडहरात। कुछ  दीवारों पर इश्तहार तो कुछ पर पान की पीक की छींटे। इसी सिलसिलें में शामिल एक  दीवार पर, कुछ तस्वीर, एक नाम ‘मिर्जा असदुल्लाह खान गालिब’।  बल्लीमारान की ये गली कासिम  जान ऐसे लगती है मानो ‘पुरानी दिल्ली कितनी  बदली’ विषय पर छिड़ी बहस में शामिल एक पेचीदा दलील हो। जो चीख-चीख कर  नहीं, बेहद खामोशी से ये कह  रही है की  ये दिल्ली गालिब की  वही दिल्ली है जिसका  अंदाजे-बयां आज भी कुछ  और है। गालिब ने बल्लीमारान की इस हवेली में 1860 से 1869 तक का  वक्त बिताया। जो उनकी  जिंदगी का आखिरी वक्त था। इस हवेली ने गालिब की शेरो-शायरी की  महफिल भी देखी है और ये हवेली उनकी तन्हाई के आलम की  भी गवाह है। फर्क  सिर्फ इतना है की अब ये हैरिटेज बिल्डिंग बन गई है। कुछ  लोग विदेशों से इसके  दरो-दीवार पर सिर्फ गालिब की  रूह को  महसूस ·रने चले आते हैं। तो कुछ  अक्सर आते-जाते भी इसे अनजान सा बना जाते हैं। लेकिन  पिछले 80 सालों से यहां रह रहे फखरुद्दीन बाबा कहते हैं आप अभी क्यों आई हैं 27 दिसंबर को  आना। 27 दिसंबर यानि मिर्जा गालिब का जन्मदिन। तब आप जान पाएंगी की यहां कुछ  नहीं बदला। वही महफिलें हैं, वही नफासत। वही अदब और वही शायरी जिसे गालिब गुनगुनाते थे। दिल्ली के सौ साल से भी बहुत पुरानी है पुरानी दिल्ली की  ये हवेली। दिलचस्प ये है की  गालिब के  इतने ·रीब रहने वाले बाबा को  शायरी से कोई  लगाव नहीं है। लेकिन  गालिब से दिल की  ऐसी लगन है की
जब वालिद मियां ने हवेली छोड़ साउथ दिल्ली में कोठी  बनाने के  लिए कहा तो नाराज हो गए। बताते हैं, शायरी में मेरी यूं भी कोई दिलचस्पी नहीं रही मगर उस शायर के किस्से  दिल खुश कर  देते हैं जिसने बर्फी और जलेबी दोनों को  मिठाई बताकर  हिंदू और मुस्लमान दोनों को  भाई बना दिया था। ये भाईचारा आज भी यहां सांसें लेता है।



रविवार, 18 दिसंबर 2011

एक जरुरी कवि


सुबह सुबह दफ्तर से फ़ोन आया अदम गोंडवी नही रहे. उनके लिए कुछ खास सामग्री इकठा करनी थी. ख़ास पेज के लिए. साहित्य मेरे लिए सांसों की तरह है और ये नाम बिलकुल अनजान. ये बात मेरे बॉस को भी शायद ठीक नही लगी जब उन्होंने मुझसे पूछा-जानती हो न अदम जी को, आज उन्ही पर काम करना है.. और मैंने अन्म्नाते हुए कहा, जान लुंगी सर जल्दी पहुँचती हू दफ्तर. लेकिन अनमनी से न मेरे भीतर कुल्बुका रही थी. कलाकार हैं या कवि. कौन है ये. मैं कैसे नही जानती इन्हें. कहाँ सूना है इनका नाम. एक दोस्त को फोन किया उन्होंने तुरंत एक ही बार में अदम जी का पूरा परिचय उनके अल्फाज मेरे सामने रख दिए और मेरी सोई हुई स्मृति अचानक जगी, बहुत साल पहले एक वाद विवाद प्रतियोगिता में मैंने शुरुआत ही इन पंक्तियों से की थी ...

 मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत

वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की ,संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी

ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया

सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार

होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की. 



तब नही जानती थी कि किनके अल्फाजों को अपने पक्ष का हथियार बना रही हूँ...आज जानें क्यों उनके जाने पर ऐसे लग रहा है कि कोई अपना बिना मिले ही चला गया. अफ़सोस भी है और अपनी अन्जानियत का गहरा अहसास और आघात भी. एक मित्र या कहूँ कि वरिष्ठ मित्र और  आलोचक हैं मेरे जो अक्सर मेरी कवितायेँ पढ़कर  कहते है -ये क्या लिखती रहती हो चाँद, सूरज, आसमान और धरती. प्यार इश्क और फूल पत्ते, एक ऐसे कविता लिखो जो जरुरी हो तुम्हारे लिए नही सबके लिए आम इंसान और देश दुनिया के लिए. लेकिन आज उनकी ये बात मुझे फी याद आई और लगा एक जरुरी कवि चला गया जिसकी हर कविता जरुरी थी और हमारे लोगों कि जरुरत भी..
ये साल तमाम बड़े नाम हमें अलविदा कह चुके हैं सिलसिलेवार
मैं तो किसी के नीजी जीवन में शामिल नही थी
न ही किसी कि बहुत बड़ी प्रशंसक
मकबूल फ़िदा हुसैन के जाने पर लगा इन्हें क़तर जाने की बजाय इनकी कदर होनी चाहिए थी देश में ही
भूपेन हजारिका गए तो लगा कि एक समाज कि जलती हुई लौ से घी ख़त्म हो गया
देव साहब की जिन्दादिली और उनकी दिनचर्या से हमेशा अपनी सोच के अंधेरों में घिरा होने पर प्रेरणा ली है मैंने तो उनका जाना मेरे लिए मेरी एक उम्मीद का टूटना था
लेकिन अदम जी तो एक अनजान बनकर मेरे आस पास अपने शब्दों के रूप में  रहे और जाते जाते इतना परिचित कर गए कि मैं बेहद शर्मिंदगी महसूस कर रही हूँ कि इतने जरुरी कवि को नही जानती थी मैं और कविता लिखती हूँ
क्या मैं लिख पाऊँगी कभी कोई जरुरी कविता ?
 

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

तेरे बारे में



दुनिया की इस भीड़ में
जब मैं कहीं खो सी जाती हूँ
सिर्फ तुम्हारे ख्याल भर से
खुद ही खुद को
ख़ास जताती हूँ
...
देर शाम
दफ्तर से घर लौटते वक़्त
जब कुछ मनचले
मैली सी  नजरों से
झांकते है मेरे भीतर
तुम्हारे अहसास भर से
मैं खुद को ताकत दे पाती हूँ
...
जब कभी शून्य में
समा जाती हैं मेरी सारी सोच
और मैं तनहा हो जाती हूँ
तब खुद को जगाने के लिए
तुम्हारे कुछ ख्वाब सजाती हूँ
...
दिमाग, दिल और देह तक
जब बिक रही है हर चीज
और खरीददार खड़े हैं बाजार में
मैं खुद को
तुम्हारी अमानत समझकर बचाती हूँ
...
घर के बड़े कहते हैं बड़ी सयानी हूँ मैं
...
दोस्त कहते है दीवानी हूँ मैं
...
मुझे लगता है कुछ नहीं हूँ
तुम्हारी हिमानी हूँ मैं

सोमवार, 28 नवंबर 2011

मजबूर कवि

दिन उगे से नौकरी और शाम ढले तक चाकरी
के बाद
रात की खामोशी में चीखें मारते हैं कुछ शब्द
जो नहीं बन पाए कविता
एक कवि इतना मजबूर कभी था क्या

...



मंगलवार, 22 नवंबर 2011

प्रेम - कुछ सवाल(२)

बुरा होना बहुत जरुरी है
क्योंकि अच्छा बनकर
आप वो नहीं रह जाते
जो आप हो या होना चाहते हो
लेकिन जब आप बुरे होते हो
तो कितने लोग  ये समझ पाते हैं
कि अब वास्तव में आप अच्छे हो
कम से कम
सच्चे तो हो
....................................................................
मैं कहूँ कि बहुत बुरा महसूस हुआ मुझे
जब तुमने मेरे हाथों को
लोगों की उस महफ़िल में
अपने हाथों में लिया
जबकि
प्यार का
खामोश सा इजहार भी
हो चुका  है हमारे बीच
मुझे नहीं लगता प्यार में छूना
एक नैतिक जिम्मेदारी या परम्परा है
मुझे नहीं लगता कि
छुए बिना आगे नहीं बढ़ सकता प्यार
मुझे लगता है
इतना प्यार है हमारे दरम्यान
कि दरो दीवार की ये दूरियां
उसे कभी नहीं मिटा पाएंगी
वो एहसास
जब तुमने छू लिया था
मेरे दिल को गहरे तक
वो कभी धुंधला नहीं पड़ सकता
मेरी आँखों में
कभी मैला नहीं हो सकता
उससे मेरा आंचल
पर मैं बुरी हूँ तुम्हारी नजरों में
क्योंकि मैंने अपनी भावनाओ का भी ख्याल रखा
तुम्हारे प्यार को सहेजने और समझने के साथ
कह बैठी मैं तुमसे अपने दिल की बात
भूल गई उस शिक्षा को
जो अक्सर माँ को कहते सुना था
मर्दों से हर बात नहीं बाटनी चाहिए
मैं बुरी हूँ
क्योंकि मैं तुम्हे कोसना नहीं चाहती थी बाद में
मैं बुरी हूँ क्योंकि
मैं कुछ पलों के लिए नहीं
ताउम्र के लिए चाहती थी तुम्हारा साथ
..................................
एक लड़की है
जो मुझे लगता है कि
तुमसे थोड़ा  ज्यादा समझती है मुझे
मैं उसे पढ़वा  सकता हूँ अपनी प्रेम कवितायेँ
जिन्हें पढ़ना  तुम्हे नहीं है पसंद
या कि
तुम नहीं समझ पाओगी
कि तुम्हारे ख्यालों में खोकर ही
लिख बैठा था मैं
तुम ढूंदोगी  उनमे
किसी और का अक्स
मैं कहूँ कि
एक लड़की है
जो मुझे अपने जैसी लगती है
जिससे घंटों बातें करते वक़्त
मैं भूल जाता हूँ
वक़्त के बारे में सोचना
तब क्या करोगी तुम
मेरी प्रेयसी 
तुम खुद को कटघरे में खड़ा कर दोगी
या उठा दोगी मेरे चरित्र पर सवाल
..............................................


( ये दो अलग अलग बातें हैं .
एक में प्रेमिका अपने प्रेमी से संवाद कर रही है
और दूसरे में एक पति अपनी पत्नी से जिससे वो बेहद प्यार करता है.
अब सवाल ये है की प्रेम भरे इन रिश्तों के बीच  ये सवाल दीवार बनकर क्योंकर उठ खड़े हुए है क्या इनका कोई जवाब है या फिर ... एक वक़्त पर हर अहसास हर जज्बात इसी तरह खोखला हो जाता है ??? )



रविवार, 20 नवंबर 2011

तलाक

आँखें आसमान पर 
पाँव जमीं पर 
एक शरीर 
दो हिस्से 
दो रास्ते एक मंजिल
तलाक भी होता होगा 
कुछ यूँ ही 
शौहर मुशायरे में 
बेगम दूर महफ़िल से
 दो जिस्म 
एक जान
एक जिंदगी 
दो आरजू

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

प्रेम पत्र


प्रेत  आएगा
किताब से निकाल ले जाएगा प्रेम पत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खाएगा

चोर आएगा तो प्रेम पत्र चुराएगा
जुआरी प्रेम पत्र पर ही दांव लगाएगा
ऋषि आएंगे तो दान में मागेंगे प्रेम पत्र

बारिश आएगी तो
प्रेम पत्र ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेम पत्र
बन्दिशें प्रेम पत्र पर ही लगाई जाएंगी

साँप आएगा तो डँसेगा प्रेम पत्र
झींगुर आएंगे तो चाटेंगे प्रेम पत्र
कीड़े प्रेम पत्र ही काटेंगे

प्रलय के दिनों में
सप्तर्षि, मछली और मनु
सब वेद बचाएंगे
कोई नहीं बचाएगा प्रेम पत्र

कोई रोम बचाएगा
कोई मदीना
कोई चाँदी बचाएगा, कोई सोना
मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेम पत्र ।              
                                                ................. बद्रीनारायण 

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

बस इतना सा जो ख्वाब था



कभी कभी भावनाओ के स्टोक बोक्स में इतना कुछ इकठा हो जाता है कि उसे बताने के लिए हर शब्द नाकाफी लगता है जैसे बस कुछ रेखाएं खिंच कर एक तस्वीर बना दूँ और सारी कहानी बयाँ हो जाये लेकिन मैं चित्रकार नहीं हूँ ...लिखती हूँ.. लेकिन आज लिख भी नहीं पा रही
कुछ बेवकूफी भरी बातें हैं मेरे मन कि जो कहना चाहती हूँ
जब से लड़कियों वाली बातों, प्यार व्यार, क्रश वरश के बारे में सुना, जबसे कुछ बनने और आगे बढ़ने का सपना देखा, तबसे सितारों कि दुनिया के एक इंसान को बड़ी शिद्दत से चाहा...मुझे जानने वाला हर शख्स जानता है कि मैं शाहरुख़ की दीवानी हूँ ...बचपन से...अब तक ..इस प्यार का कोई प्रूफ नहीं है मेरे पास
हाँ कल एक दबी पड़ी सी इच्छा पूरी हुई उसे पास से देखने की उससे सवाल पूछने की..उसे जानने की निहारने की समझने की  हा हा हा हा जानती हूँ की बहुत बचपने में बहकी बहकी बातें लिख रही हूँ लेकिन आज बहुत दिन बाद शायद मैं खुल कर खुश हुई ... पाने सारे दर्द और उलझाने भूल गई ...फिर से जी उठी ..
एक साधारण सा इंसान इतना असाधारण कसी बन जाता है...इस सवाल का जवाब है शायद इन सितारों की सफलता का राज है और मेरे ख्वाबों का राज आर्यन भी .......................

सोमवार, 19 सितंबर 2011

मन शैतान हो गया है


मन करता है नास्तिक हो जाऊं
मन करता है किसी को नाराज कर दूँ
और कभी न मनाऊँ
किसी को दूँ बेइंतहा मोहब्बत
और फिर मैं भी बेवफाई कर पाऊं
मन करता है अहसासों का
अंश अंश निकालकर
किसी कूड़ेदान में फेंक आऊं
मन  करता है किसी पहाड़ी जगह नही
पकिस्तान में जाकर छुट्टियाँ बिताऊं
मन करता है तोड़ दूँ
सारे परहेज और रजकर खाऊं
मांगूं नही
छीन लूँ
अपना हर हक़ - अधिकार
मोड़ दूँ तोड़ दूँ मरोड़ दूँ
उन सारे गृह नक्षत्रों को जो मेरे
खिलाफ
हो गए हैं
काट दूँ सारी किस्मत की रेखाएं
हाथ से
और खुद सपनों की एक तस्वीर हथेली पर सजाऊं
अब मन करता है खुद  पर करूँ एक अहसान
भूल जाऊं
सबको
और याद रखूं बस अपना नाम
ये मन अब शायद चंचल नही रहा
शैतान हो गया है

सोमवार, 5 सितंबर 2011

ये कैसा शिक्षक दिवस है आज

ऐसा सबका ही अनुभव होता होगा या फिर कुछ लोगों का तो होता ही है कि हमारा पहला क्रश हमारे कोई अध्यापक हो
इस अध्यापक दिवस पर इस बात को मैं भी स्वीकार करना चाहती हूँ कि मेरे साथ भी ऐसा हुआ.. एक नही दो बार जब मुझे अपने टीचर पर ही प्यार आ गया ...बेशक उस वक़्त भी नही पता था और आज भी नही कि प्यार के असल मायने क्या हैं ..उस प्यार में भी एक चाहत थी, इज्जत थी, जज्बा था ...और आज अगर किसी से होता है तो वो भी एक जज्बा है, चाहत है और थोड़ी  सी जरुरत है
खैर आज मुद्दा प्यार नही हमारे अध्यापक है ..जिनका हम माने या न माने हमारे जीवन में अहम् योगदान है ..कभी वो हमें अछे लगे तो हमने मन लगाकर सिखा, कभी उन्होंने हमें अच्छी शिक्षा दी तो हम अच्छे से आगे बढ़ पाए, उनकी सख्ती, उनकी नरमी, उनका अंदाज, उनकी बात
कब कहाँ कैसे जिंदगी की दिशासूचक रही है , ये अब धीरे धीरे पता चल रहा है...
लेकिन हैरानी होती है ये देखकर कि हमें स्कूल छोड़े अभी जमाना नही बीता है और स्कूलों के हालातों में एक ज़माने का बदलाव आने लगा है
अब यहाँ बैर बदलाव से नही उस बात से है  जिसमे भवरे को फूल से दूर रखने का, चकोर को चाँद के पास भी न फटकने जैसे बदलाव किये जा रहे है
यक़ीनन परिवर्तन प्रकर्ति का नियम है और ये मानने से भी कोई गुरेज नही कि हमें ज़माने के साथ चलना है ...लेकिन इतनी रौशनी भी ठीक नही कि सब अंधे हो जाएँ ...
ऐसे समय में शिक्षा और शिक्षकों के स्तर और शैली में कुछ अजीबोगरीब बदलाव होने लगे हैं ....
स्कूलों में टीचरों का बन ठन कर आना, ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी बोलना उनकी योग्यता का मापदंड हो गया है
जबकि हमने सीखा था और देखा था कि अध्यापक जितने सादगी में रहे उतना ही अच्छा है ताकि बच्चों का ध्यान उनके कपड़ों और शकल पर नही उनके पढ़ाने पर जाये ...और हां क्रश कि जो बात मैं कह रही थी उसमे उन टीचरों का अच्छा देखने से ज्यादा ये प्रभावित करता था कि वो कैसे हमारे दोस्त जैसे बनकर बेहतरीन तरीके से पढ़ा रहे है
अच्छा नही लगता ये देखकर कि वो अध्यापक जो हमारे आदर्श रहे आज अपना अस्तित्व बनाने के लिए जूझ रहे है.सिर्फ इसलिए कि वो कुछ दिखावा पसंद नही करते ...कि वो हिंदी को मरना नही चाहते अंग्रेजी को जिलाने कि कीमत पर
इधर लुधियाना या कहूँ के पंजाब के कई जिलों में शिक्षक दिवस को काला
दिवस के रूप में मनाया गया. कारण था सालों से लटकी पड़ी उनकी मांगे
तय वेतन न दिया जाना , रेगुलर होने कि योग्यता और रेगुलर कर दिए जाने के वायदे के बावजूद कोई कवायद न होना
...
कैसे ख़ुशी और शुभकामनाओं के साथ इस शिक्षक दिवस को मनाया जा सकता है जब एक तरफ शिक्षा अपने आयाम खोज रही है और शिक्षक अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहे है ??
;;;
फिर भी किसी अध्यापक कि असली दौलत उसके छात्र होते हैं
शिक्षक बनकर काम करना रोजी रोटी का मुद्ददा है और
इस ज़माने में रोजी रोटी इतनी आसान नही
 

मेरे उन अध्यापकों के लिए जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया
कहते है गुरु ज्ञान देते है
ज्ञान का वरदान देते है
पर मैंने तो देखा परखा और जाना
साक्षात् गुरु आपको मन
आदर्श स्वरुप हैं मेरे जीवन का आप
करती हूँ मैं आपको सादर प्रणाम

बुधवार, 24 अगस्त 2011

मन लोकपाल

( रामलीला मैदान में हर दिन भीड़  बढ़ रही है अब सरकार की गर्दन भी कुछ झुकने लगी है
लेकिन हम अन्ना के नाम की नेलपॉलिश लगाने, टोपी और टी शर्त पहनाने के अलावा क्या कर पाए है
एक दिन का अनशन क्यों न अपने भीतर के बदलाव के लिए करे ...आखिर व्यवस्था हम से ही है हम ही हैं कहीं क्लर्क कही वकील कहीं बाबु कहीं पोलिसे क्लार्मी और कहीं ..वो शख्स जो एक लालच को पूरा करने के लिए दूसरे लालच की भेंट चढ़ता आया है
ये मन लोकपाल की बात है जरा इसे भी समझने की कोशिश करें अपने मन को भी मनाये ...भ्रष्टता से बचने के लिए एक बिल से जो बात नही बनेगी वो आपके दिल से बन जाएगी )

वीर तुम बढे चलो धीर तुम बढे चलो
सामने पहाड़ हो क्रांति की मशाल हो
तुम रुको नही थको नही
.
.
.
दूसरी कक्षा में मैंने ऐसी ही एक कविता याद की थी प्रार्थना सभा में सुनाने के लिए..अब शायद कुछ एक लाइन गलत भी लिख दी हैं
लेकिन मैं बचपन से इतिहास के पाठ याद करते हुए सोचा करती थी काश ये क्रांतियाँ मैंने अपनी आँखों से देखी होती तब मुझे सब मालूम होता और कुछ भी याद या कहूँ की यूँ रटना न पड़ता ...बेशक बहुत से सपने अभी गर्त में है लेकिन अपनी आँखों से क्रांति देखने का ये मासूम सा ख्वाब यूँ सच होगा ....सोचा नहीं था
दिल्ली क्रांति के संक्रमण काल में है

  अन्ना और अरविन्द केजरीवाल की  सालों की  मेहनत का सिला जन सैलाब के रूप में सामने है मगर इस क्रांति का ये कैसा कडवा पहलू है क़ि लोगों ने रामलीला मैदान में जाने को एन्जॉय करने का नाम दे दिया है , वहां से अन्ना की  टोपी पहनकर वापस आने को वो अपनी शान समझ रहे है ..फिलहाल हर दिन भीड़ बढ़ रही है ..लेकिन इस भीड़ का हिस्सा कौन लोग हैं जरा अपनी छटनी करें ...इस आधार पर की वह  सिर्फ लोकपाल बिल पास करने की  मुहीम में नहीं खुद को बदलने की मुहीम में भी शामिल हो रहे हैं

बड़े बड़े स्कूलों का प्रबन्धन इस समर्थन में शामिल है
जरा वो अपने दामन  में झांके कितनी बार उन्होंने सस्ती कोपी किताबे महंगे दामों पर जबरदस्ती बच्चों को लेने को मजबूर किया है ...
जरा खोल के देखने उस रजिस्टर को जिसमे उनका स्टाफ हाथ में मिलने वाली तन्ख्वांह से कहीं ज्यादा पर दस्तखत करता है
बहुत से वकीलों ने भी रामलीला मैदान को ही अदालत बना डाला वो पूछे खुद से की क्या कभी बिना पैसे लिए  किसी गरीब को इन्साफ दिलाने में शामिल रहे हैं वो
बहुत से युवा इस आन्दोलन में जी जान से शामिल हुए झंडे लेकर सड़कों पर भागे नारे लगाये अन्ना की टोपी पहनी ..लेकिन फिर वापस लौट आये दरसल वास्तव में ये सब खुद को और अपने देखने जानने वालों को टोपी पहनाने जैसा है
बेहद चिड हो रही है मुझे ये लिखते हुए कि आजकल हर चीज हर बात हर जज्बात एक ट्रेंड या फैशन का रूप क्यों ले लेता है ?
क्यों चीजों का वास्तविक वजूद दिखावे की भेट चढ़ जाता है ?
हम किसी की पूंछ बनने की दौड़ में क्यों शामिल हो जाते है ?
.
.
.
ये सारी बाते छोड़ भी दे ..सिर्फ मुद्दे की बात करें ..भ्रष्टाचार की बात करें तो क्या सिर्फ एक लोकपाल इस पर लगाम लगा सकता है
कानून तो कई हैं पर क्या कानून बनने से समस्या ख़त्म हो गई
तीन बार चलान होने पर लाइसेंसे रद हो जाना चाहिए
लेकिन नही होता
दहेज़ लेने और देने पर सजा का प्रावधान है
लेकिन धडल्ले से दहेज़ लिया और दिया जा रहा है
ये फेहरिस्त लम्बी है
समझने की बात ये है कि अनशन  और जन सैलाब से समस्या कितनी हल हो सकती है
अन्ना का अध्याय अभी जारी है ...
लेकिन इससे कुछ सिखने की शुरुआत हमें रामलीला मैदान पहुंचकर नही अपने भीतर झाँक कर  करनी होगी

बुधवार, 17 अगस्त 2011

एक उदास मन की टूटी फूटी बतियाँ

बहुत बड़ा बनने और बहुत कुछ पाने के ख्वाबों के बीच कुछ छोटी छोटी चीजें कितनी अहम् हो जाती है ...इतनी अहम् की ये चीजे ही हमारा अहम हो जाती हैं..
शायद जिंदगी कभी हमारी तरह नही होती
हमें हमेशा जिंदगी के जैसे होना होता है

जिसे पाना चाहते हैं जब वो मिल जाता है तो

सब कुछ इतना सूना क्यों हो जाता है

उसे खो सकने का तो कभी ख्याल भी

नही किया था
आज वो ढूंढे से भी नही मिल रहा

इतनी बेसिर पैर हो रही है

मंजिल कि
कोई सिरा दिख ही नही रहा
नही तो आगे बढूँ और थाम लूँ , जकड लूँ

आसमान में छाए बादलों को देखा तो लगा
कि जैसे उड़ रहें हैं ये
इनका तय है न एक मौसम उड़ने का
एक बरसने का
एक तरसने का
एक तरसने का
हम तो
फिर वही बात
अपनी मर्जी से कहाँ
अपने सफ़र के हम हैं
रूख हवाओं का जिधर है
उधर के हम है
लेकिन क्यों हवाएं हमारे रुख के साथ नहीं हैं
क्यों इस कायनात कि सारी साजिशे हमारे खिलाफ रहीं हैं
क्यों '

रविवार, 14 अगस्त 2011

इस आजादी पर

घुमकड़ी का अपना अलग मजा है आप अकेले होकर भी एक नए शहर में एक नई जगह पर अकेले नही होते क्योंकि वहां बहुत कुछ होता है आपके जानने समझने, देखने और महसूस करने के लिए... दिल्ली की दुनिया में रहकर पंजाब मेरे लिए सिर्फ फिल्मों में दिखने वाली एक ऐसी जगह थी जहाँ बेहद खूबसूरत सरसों के खेत होते है ..इससे ज्यादा कभी मैंने सोचा ही नही शायद ....या जरुरत ही नही पड़ी सोचने की
लेकिन जरूरतों से जुस्तजू के दरम्यान एक रात में ही मेरे रहने का ठिकाना बदला और ६ सितम्बर २०१० को मैं लुधियाना आ गई ....फिर एक सिलसिला शुरू हुआ घुमकड़ी के उस शौक को पूरा करने का जो दिल्ली में रहते हुए सिर्फ कनाट प्लेस, लाजपत नगर, साकेत या मंडी हाउस तक सीमित था...हालाँकि मैं अपना ये शौक बहुत बेहतरी से तो पूरा नही कर पाई ..लेकिन एक छोटी से अनजानी सी अनसोची सी यात्रा हुई ..


फिरोजपुर
का गाँव हुसैनीवाला, पाकिस्तान की सरहद से सटा...मेरी हमेशा से पाकिस्तान जाने की इच्छा रही है .....वजह है ये जानना कि आखिर कौन सी ऐसी खाई है जिसने एक देश को दो बना दिया और दो पड़ोसियों को कभी एक होने नही दिया..लेकिन जिदगी की दूसरी  और जरूरतों और दबावों के आगे ये इच्छा जरा साइड पर ही रहती थी ...दरसल मैं फिरोजपुर अखबार के लिए एक स्टोरी करने गई थी ...कुछ पता नही था कि जहाँ जाना है वो जगह कितनी दूर है , वहां जाने का साधन क्या है और हा रात से पहले घर भी लौटना था...मुझे मुहार जमशेर नाम के एक गाँव में जाना था जो फिरोजपुर से भी १२० किलोमीटर दूर था और दोपहर के  3 :३० बजे फिरोजपुर से इस गाँव के लिए निकलने का मतलब था वापसी में देरी और असुरक्षा... इसलिए एक जानने वाले से पूछा  कि यहाँ सरहद पर बना कौन सा गाँव सबसे नजदीक है ..तब उसने हुस्सैनिवाला के बारे में बताया.. तब नही सोचा था कि आज मेरी वो साइड की हुई इच्छा यूँ पूरी होने वाली है.. गाँव पहुंचकर वहां बने बोर्डर के बारे में पता चला तो सोचा कि यहाँ देखते है क्या होता है ..बस फिर रास्ता ही सब कुछ जानता  था और हम निरे अजनबी एक मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे ...जब पहुंचे तो दिखी
दो सरहदे...एक तरफ पाकिस्तान ....एक तरफ हिन्दुस्तान
एक तरफ पाकिस्तान के लोग ..दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के
इधर हमारे सिपाही ..उधर उनके
एक दूसरे के आगे पैर ठोकते हुए ...
एक दूसरे को अकड़ दिखाते हुए ..
अपने अपने झंडे को ऊँचा उठाते हुए ..
वहां से पाकिस्तान जिंदाबाद  के नारे लगा रहे कुछ लोग
तो यहाँ से हिन्दुस्तान की जयकार करते  नौजवान
.
.
.
.
एक साथ बहुत से सवाल उमड़ घुमड़ आये ये सब देख कर कि
ये सब क्यों हो रहा है ?
किसने बनवाया होगा ये बोर्डर ?
जब दुश्मनी है तो ये ठोक बजाने का दिखावा क्यों ?
 क्या मिल जाता है एक दूसरे के झंडे को निचा दिखाकर ?
क्या कभी मन नही करता होगा आपस में आम लोगों की तरह हसने बोलने का ?
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जब वहां एक सिपाही से इन सवालों के जवाब लेना चाहा तो उसने कहा हमें मीडिया वालों से बिना इजाजत बात करने की परमिशन नही है
जब तक वहां सेरेमनी चलती रही सिर्फ दुश्मनी दिखाई दी
जब वो सेरेमनी ख़त्म हुई और हम लोग बाहर आने लगे तब किसी को बातें करते सूना .." ये लोग सिर्फ आधे घंटे की इस सरेमोनी में ही ये ठोक बजाते है रात को साथ बैठकर दारु पीते है ..
फिर देखा की सीढियों से उतरते हुए पाकिस्तान के कुछ बच्चे हमें हाथ हिलाकर बाय कर रहे है
कुछ मुस्कुरा रहे हैं
कुछ नजरों में निगाहे डालकर कुछ ढूँढना चाह रहे है
ये वो बातें है जिन्हें लिखकर बयाँ नही किया जा सकता
हां आप चाहे तो पढ़कर महसूस जरुर कर सकते हैं ...
ये चिंदी चिंदी से एक दो पल जब आँखों के आगे दुबारा तैरते है तो लगता है यहाँ मैं रीट्रीट सेरेमनी नही
रीथिंक टू रीबिल्ड सरेमोनी देखने आई थी
यानि दुबारा से ये सोचना की हमें क्या बनाना है
दो दुश्मन देश??
दो दोस्त??
एक टुटा हुआ एक रूठा हुआ देश??
या फिर अगर हम ये सारी सरहदे ही मिटा दें !!!!! सिर्फ बातों में नही सच में ...सच में जाये और वो लोहे की तारें काट आये किसी औजार से
अब मिट जाना चाहिए इन सरहदों का अस्तित्व...हम दोनों देशवासी तो facebook पर कब से एक दूसरे के दोस्त हैं
हमारा दिल कब से धड़क रहा है विभाजन में अपने पीछे छुट चुके परिवारों के लिए

हम कहाँ चाहते है अब लड़ना झगड़ना हम तो चाहते है पाकिस्तान के खूबसूरत शहरों में जाकर छुट्टियाँ बिताना ...(इस आजादी दिवस पर पहली बार बेहद गुलाम अनुभव कर रही हूँ मैं खुद को)



गुरुवार, 4 अगस्त 2011

उसका खेत और मेरा दिल

 (सावन का महीना है मगर इस बार जुलाई में मानसून मुंह बनाये बैठा है
न तन भीग पाया न मन , हम कवि दिल लोगों को बारिश कुछ ज्यादा ही पसंद होती है , मुझे बहुत पसंद है मेरे लिए शायद antiseptic की तरह  है. खैर दिल दे जरा हटकर देखा तो वो खेत दिखाई दिए जो बारिश के इन्तजार में है वो किसान जिसके लिए शायद ये बारिश antiseptic नही बल्कि अमृत की तरह थी जीवनदायी आखिर लुधिअना में आज काफी दिन बाद सुबह का स्वागत बरखा ने किया है)


मेरी नजरें भी थी आसमान तरफ
वो भी देख रहा था
बनते बिगड़ते बादलों को
मेरी रूह भी थी उदास और प्यासी
 वो भी बेचैन था सूखे से
हम दोनों रो रहे थे
और चाहते थे
कि
काश ये
आकाश भी रो दे
हमारे आंसुओं को धो दे
मैं  नही खा पा रही थी कुछ भी, कुछ दिनों से
और
उसके घर नही बना था कुछ, बहुत दिनों से
बहुत  दिनों से हमारे दिन थे सीले सीले
और रातें गीली गीली
पर हम भीग नही पाये थे
जीत नही पाए थे
अपनी उम्मीदों से
 उसका खेत ख़ाली था
और मेरा दिल 

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

मैं लिखना चाहती हूँ

 (मेरे लिए जिंदगी में लिखना बहुत जरुरी है ..उतना ही जितना कि जीना- खाना-पीना
जिन दिनों नहीं लिख पाती वो दिन बेचैन होते हैं और रातें करवट करवट
लेकिन कई बार हमारे लिखने का विषय बिलकुल rigid  हो जाता है यानि हम एक ही दुनिया के इर्द गिर्द घूमते रहते है
सावन, साजन, मोहब्बत, मंजिले....ये कुछ ही सब कुछ नही हैं
अगर हम शब्दों को जोड़कर किसी बात को बेहतरी से कहने का हुनर रखते है
तो क्यों न कुछ ऐसा कहें जिससे एक दिशा मिले हमें भी पढने वाले को भी
कुछ ऐसा ही करने की कोशिश थी मगर फिर ये कविता बन गई ...)

मैं लिखना चाहती हूँ
कुछ ऐसे लेख जो जुड़े हो देश, दुनिया और समाज से
कुछ ऐसी कवितायेँ
जिनमे न हो बारिश, फूल, भवरे, रास्ते, मंजिले और तुम्हारा जिक्र
जिनमे हो भूख, तड़प, समानता, संघर्ष और क्रांति की बातें
..
..
.
आज भी जब में लिख रही हूँ कुछ
तो चाहती हूँ कि
लिखूं
एक मीडिया मुग़ल का अंत (रुपेर्द मर्डोक के अखबार न्यूज़ ऑफ़  द वर्ल्ड के  बारे में )
समाज सेवी अन्ना और अड़ियल सरकार के बीच चल रहा द्वन्द
कुछ कर नही सकती मगर कहूँ कुछ
उन बम धमाकों के बारे में जो आतंकियों के लिए थे
महज जन्मदिन के पटाखे
मगर उनसे बेडोल हो गई थी कई जिंदगियां
और भरा पूरा
हँसता खेलता
अपनी चमक से
सारी दुनिया को रोशन करता
एक शहर
मैं लिखना चाह रही हूँ बहुत दिनों से
पद्नाभ्स्वामी मंदिर के खजाने
और
उस खजाने को खोलने की याचिका डालने वाले
व्यक्ति की मौत से
पनपे अंधविश्वास
और अथाह दौलत
के इस्तेमाल के बारे में कुछ
जब पीने अखबार में देखी मर्लिन मुनरो की मूर्ति की तस्वीर
जिस पर टिकी हैं सारी दुनिया की निगाहें
और जिस ड्रेस के कारण ही
कहा जाता है कि
हो गया था उसका तलाक
हां मैं लिखना चाह रही थी बहुत कुछ इस महंगाई के मौसम
में टाटा के ३२ हजार का घर बनाने के प्रोजेक्ट के बारे में कुछ
देखो न
कितना कुछ था मेरे पास लिखने के लिए
और मैं बस लिखती रही
तुम्हे
तुम्हारे इन्तजार को
हर बार आने वाली इस सुखी सी बहार को

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

बारिश, धरती, आसमान मैं और तुम ..मेरे प्रिये

(एक ऐसे समाज में जहाँ लड़के नौकरी करने वाली लड़कियां ढून्ढ रहे है
और लड़कियों का अपने कर्रिएर के लिए शादी बच्चे यहाँ तक कि कई बार प्रेम को भी दरकिनार कर देना आम हो गया है
ये कविता उस औरत कि बात को बयाँ करने के लिए है जो अपने पति से बहुत प्यार करती है और .... उसके प्यार के साथ ही अपने सपनो को सतरंगी बनाना चाहती है जो इक्कीसवी सदी में रहकर भी सिर्फ अपने लिए नही जी रही...अपनों के लिए जी रही है
ये उसका नारीत्व भी हो सकता है और उसकी आदत भी जिसे वो आज के आधुनिक युग में justify  कर पाती है )




आज फिर आई बारिश
दरवाजे पर हुई जोरों से आवाज
बहुत दिनों बाद अनमनी सी नींद
जल्दी खुल गई आज
मगर मैंने दरवाजा नही खोला
नही देखा बाहर
झांककर
किस तरह पेड़ हरे भरे हो गए है
बूंदों का स्पर्श पाकर
किस तरह हवा के सर्द झोंकों से
पंछी घोंसलों में अलिगनबद हो गए है
किस तरह धरती भीग रही है
चुपचाप एक शांत अहसास के साथ
अहसास जो कह रहा है
कि दूरिया हमेशा फासले नही होते
और नजदीकियां हमेशा करीब होने का प्रमाण पत्र नही दे सकती
जब आसमान धरती को ये अहसास दे सकता है
जब बूंदे पत्तो को चूम सकती है
पंछी आजाद गगन को छोड़ अपने घरोंदे  में
रम सकते है
तो तुम क्यों नही हो सकते मेरे सबसे करीब
हमेशा नजरों के सामने होकर भी
क्यों मैं हमेशा कहती हूँ तुमसे आधी बात
और छुपा लेती हूँ आधी
बताने की चाहत रखते हुए भी
क्यों मुझे लगता है कि मेरे जीवनसाथी
तुम नही समझोगे इस बात को
सुनोगे तो नही दोगे फिर मेरा साथ
तुम रूठ जाओगे मुझसे
मन्वाओगे अपनी जिद
थोप दोगे अपना निर्णय
चादर, परदे बच्चों का स्कूल सब कुछ तुम कहते गए
मैं रजामंद होती गई
मेरी पसंद का सवाल ही नही उठा
मैं खो गई तुम्हारी दलीलों
और दुनिया  की मुझसे जयादा समझ होने के तर्क में
मगर मेरे प्रिये अब जब मैं
फिर से रंगना चाहती हूँ अपनी
जिंदगी को अपने रंग में
वो रंग
जिस पर तुम्हारे प्यार की छाया
और मेरी उम्र की धूप ने
डाल दिया था पर्दा
तो दिल से तुम्हे बताकर
तुम्हारी तस्वीर से ढेरों बातें करके
अपनी आखों से तुमसे सबकुछ कहकर
और होठों को सीकर
भर दिया है नौकरी के लिए आवेदन पत्र
इस उम्मीद के साथ की तुम इसे सिर्फ मेरा नही समझोगे
हमारा समझ कर स्वीकार करोगे
और तुम्हारी सहमति के साथ मैं
महसूस कर सकूंगी
आसमान और धरा की दूरियों के बीच पनपते
हमेशा करीब होने के अहसास को
और
पी सकूंगी तुम्हारे प्यार की
वो बूँद जिसका मैंने  चातक की तरह
इन्तजार किया है
हर सावन को स्वाति नक्षत्र  मानकर

रविवार, 26 जून 2011

तुम्हें प्यार करना जैसे यह कहना " ज़िंदा हूँ मैं ".

प्यार को बयाँ करना आसान नहीं है 
प्यार सबको एक न एक बार होता है 
बारिश जैसा हसीं समां हो या फिर पतझड़ 
प्रेम के फूल हर पल खिलते रहते है 
ये एक ऐसा विषय है जिससे जुडी 
एक ही बात को 
एक ही अहसास को 
हर कोई अपने अंदाज में बयाँ करता है 
और हर बार ये पुरानापन 
एक नई सी हिमाकत कर जाता है
हिमाकत 
कुछ और दिलों में प्रेम पनपाने की 
मैंने शायद सच में किसी से प्रेम नहीं किया 
लेकिन मैं हर वक़्त प्रेम में हूँ 
कभी मेरे घर की छत से गुजरते किसी बदल के साथ प्रेम में 
कभी मेरे होंटों पर आ गिरी बारिश की किसी बूँद के साथ प्रेम में 
कभी उस हवा के झोंके के साथ 
जिसने तरतीब से बंधे हुए मेरे बालों को बेतरतीब कर 
मेरे चेहरे  को हमेशा से ज्यादा खूबसूरत बना दिया 
कभी उस पीले पत्ते के साथ प्रेम में 
जो आंधी के बाद 
 दरवाजे की चौखट पर आ खड़ा हुआ
बिना कोई दस्तक दिए मेरे इन्तजार में 
मैं प्रेम में हूँ उन सपनो के साथ 
जिन्होंने मुझे जिंदगी का संबल दिया 
उस वक़्त 
जब में मौत के तथ्यों पर 
गहनता से शोध करने लगी थी 
.
.
.
.
अपनी बात के बाद 
अज के इस हसीं मौसम के नाम तुर्की कवि  नाजिम हिकमत (1902-1963)  की एक कविता आपके लिए पोस्ट कर रही हूँ आप इसमें डूबे बिना रह नहीं सकेंगे


तुम्हें प्यार करना
तुम्हें प्यार करना यों है जैसे रोटी खाना नमक लगाकर, 
जैसे रात को उठना हल्की हरारत में 
और पानी की टोंटी में लगा देना अपना मुंह, 
जैसे खोलना बिना लेबल वाला कोई भारी पार्सल 
व्यग्रता, खुशी और सावधानी से. 
तुम्हें प्यार करना यों है जैसे उड़ना समुन्दर के ऊपर 
पहली-पहली बार, 
जैसे महसूस करना इस्ताम्बुल पर आहिस्ता-आहिस्ता पसरती सांझ को.
तुम्हें प्यार करना जैसे यह कहना " ज़िंदा हूँ मैं ".

बुधवार, 22 जून 2011

रात, चाँद और एक सवाल

सारा आसमान नीला था
मगर चाँद पर पड़ी थी
सफ़ेद बादलों की एक चादर
सब लोग सो गए
मगर रात बेचैन थी
चाँद चादर की ओट में से भी
बहुत कुछ कह रहा था
मगर रात खुले आम घूमते हुए
 भी खामोश थी
मैं एक टक चाँद को देखती
और एक पल रात को महसूस करती
ये वो समय था जब सारी कायनात शांत थी
पेड़ फूल  पत्ते कलियाँ
झील झरने सागर नदियाँ
सब
मगर मैंने सुना कि
रात और चाँद चीख चीख कर
बातें कर रहे हैं
चाँद है तो रात है
और
रात है तो चाँद है
मगर
चाँद वहां है
रात यहाँ है
ये कमबख्त खुदा कहाँ है





मंगलवार, 7 जून 2011

ये नामुराद शहर

सपनो की अपनी एक दुनिया होती है लेकिन
मधय्वार्गिये लोगों की  दुनिया में सपनो की दुनिया का नाम कुछ  शहरों से जुडा है
जैसे लोग हनीमून मनाने के लिए स्विट्जर्लैंड  जाने का सपना देखते है
गर्मिया बिताने के लिए शिमला, मंसूरी या नैनीताल जाने का 
सपना देखते है
जीवन के आखिरी पड़ाव पर चारों धामों की यात्रा करने का सपना देखते है
और
युवा एक नई, बेहतर, शानदार, सितारों सरीखी जिंदगी जीने के लिए मुंबई जाने का सपना देखते हैं
क्या सपनो की दुनिया सिर्फ मुंबई है ....?
मैं मुंबई में रहने वाली ऐसी आँखों को भी जानती हूँ  जिनमे घर वापस लौटने का सपना पलता है
घर जो लखीम पुर खीरी में है , घर जो उज्जन में है , घर जो चित्रकूट में है...घर जो रांची में है
एक तरफ से देखें तो  घर वापसी का ये सपना गलत है, भावुकता है 
या कमजोरी है
दूसरी तरफ से देखे तो ये सपना प्यार है , लगाव है , खिंचाव है 
या जरुरत है
सपने सिर्फ वही तो नही होते न जो शाहरुख़ खान  बनने के लिए देखे जाते हैं..सपने वो भी होते हैं जो गरमी में बिना बिजली के सोती माँ के लिए इन्वेर्टर लगाने के लिए देखे जातें है...जो पापा की झुकती कमर को अपने हाथों के सहारा देने के लिए देखे जाते हैं  इसलिए बहुत से ऐसे सपने हैं जिनका शहर मुंबई नही है नॉएडा  है , गाज़ियाबाद है,  कलकाता है, बिहार भी है और ऐसे ही बहुत से नामुराद शहर जहाँ इन लोगों का घर बसता है
इस सब की जद्दोजहद में सिर्फ एक सपना होता हैं घर वापसी का


विस्थापन एक बेहद पीड़ादायक शब्द है और भविष्य बनाने के लिए घर बार को छोड़कर दूर किसी दूसरे शहर में जा बसना विस्थापन सरीखी ही पीड़ा देता है.. हाँ ये पीड़ा पथरीली नही होती मखमली होती है मगर पीड़ा तो होती है न


मंगलवार, 24 मई 2011

पगडंडी


 झीलों के किसी शहर में
तुम्हारे साथ रहना
समुंदर के किनारे
नंगे पाँव हाथों में हाथ डाले घंटों टहलना
पहाड़ों की हसीं वादियों में
जोर से तुम्हारा नाम पुकारना
और कभी शाम ढले
फूलों के एक बगीचें में तुम्हारे साथ
बैठकर
घर लौटते पक्षियों को देखना
तुम्हारे लिए तुम्हारे साथ
प्रक्रति के इस हर एक रूप को साक्षी मानकर
मैं चाहती हूँ
तुम्हे प्रेम करना
पर क्या तुम...
क्या तुम चाहोगे ?
मेरे साथ इन बहारों के बीच
अचानक आ गए
पतझड़ में
किसी  पगडंडी पर चलना


शनिवार, 7 मई 2011

माँ

माँ
सोच में हूँ कि कैसे अलंकृत करूँ
इस व्यंजन को जिसका स्वर
मेरे पूरे जीवन का आधार है
घनी धूप  में पेड़ की छाया कहूँ
या अंधेरों में रौशनी का एहसास
अतुल्निये हो तुम माँ .....................
फ़िर किस से तुलना करूँ तुम्हारी
कौन है इस जग में तुम जितना ख़ास
असमंजस में पड़ जाती हूँ जब देखती हूँ
हर माँ में वही  जज्बा
वही  जज्बात
संघर्ष , समर्पण और सहनशक्ति की वो अद्भुत मिसाल
जीवन के हर मुश्किल दौर में उसकी दुआओं का साथ
देने को उसे क्या दूँ
उसकी ममता जितना अनमोल
कुछ नही है मेरे पास
हे इश्वर !!!!!!!!!!!!!हे अल्लाह
कबूल करना इतनी दरख्वास्त
जिस आँचल  के सायें में
पली बड़ी हूँ, उस झोली में खुशियाँ भर सकूँ
कर सकूँ कुछ तो रहमत तेरी
न कर सकूँ तो माँ को कभी कोई दुःख भी न
दूँ
न कर सकूँ तो कभी उसे मैं कोई दुःख न दूँ

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

रात चाँद मैं और रेल

रात, चाँद, मैं और रेल
रास्तों का शोर, सूनी पड़ी सड़कें, बेवफा नींद और तेरी यादों का खेल
भूल बैठी थी कि अब तक याद है मुझे
वो बात वो साथ 

वो अनकहे से रिश्ते की 
अनजाने ही बढती गई एक अमरबेल
रात, चाँद, मैं और रेल
ख्वाबों की जगह यादों ने ले ली है
एक कोने में जा खड़े हुए हैं ख्वाब
खुश है देखकर
रोतें रोते यूँ  

एक दूसरे से लिपटती यादों को
जैसे बरसों बाद मिली हों  मुझसे
आज ख़त्म हुई हो जेल
रात, चाँद, मैं और रेल
इन अंधेरों के बीच 
गलती से जला रह गया
पीली रौशनी वाला एक बल्ब
तुम हो जैसे
और मेरा किरदार टुब्लाईट जैसा
बुझ बुझ कर जलने वाला
कैसे हो सकता है
और
कैसे हो सकता था ये मेल
रात, चाँद, मैं और रेल

इस गाड़ी की एक पटरी  थी
जिससे ये उतर जाती तो
हादसा हो जाता है 
इस लड़की की एक परिपाटी है
जिस पर चलती है तो फासला हो जाता है
अब न उड़ान को तालों में बंद कर सकती हूँ
न कस सकती हूँ आसमान की ऊंचाई पर नकेल
रात, चाँद, मैं और रेल
अपनी सी, अनजानी सी रात.. खो गई
चाँद पर पड़ गया बादलों का पर्दा
गर्म चाय समोसे की आवाज ने बताया
सुबह हो गई
अब आगे का रास्ता सूना था
और सड़कों पर था  शोर
अब न रात है न चाँद न रेल 





गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

मैनेजमेंट कला के फेर में बेचारा दिन और बेचैन रातें





मेरी शक्ल पर कुछ मुरझाए बादल और माथे पर टेड़ी-मेड़ी घटाएं देखकर एक दिन यूं ही मुझसे कहा गया था चीजों को मैनेज करना सीखो। चीजे मसलन,  सुख और दुख का मैनेजमेंट।  हंसी और आसूंओं का मैनेजमेंट।  इच्छाओं और कुंठाओं का मैनेजमेंट। प्रेम और नफरत का मैनेजमेंट।   शरीर और आत्मा का  मैनेजमेंट। 
 बेचारा दिन और बेचैन रातें
ये हंसी इसके सामने नहीं। इस इच्छा को यहीं अभी मार दो। इससे प्रेम करना अच्छा है और इससे सिर्फ दोस्ती रखो जब तक कि तुम्हे जरूरत है। शरीर की फिक्र करो अब आत्मा को कोई नहीं पूछता। गोया आत्मा कोई शादी कर चुकी अभिनेत्री हो। और प्रेम या नफरत कोई नहाने का साबुन जिसे कोई खूशबू के लिए खरीद रहा है तो कोई रंग गोरा करने के लिए। खैर, चीजों को मैंनेज करने के इस सुझाव पर अंदरखाने तो मैंने बहुत शोर मचाया लेकिन  बाहर से पड़ रहे बदलाव के दबाव ने मुझे बिना इतलाह के ही बदलना शुरू कर दिया है। जहां एक बड़ी चिल्लाहट दर्ज कर सकती थी अब वहीं एक गहरी खामोशी को इस तरह ओड़ लेती हूं जैसे शब्दों से ही अनजान हूं मैं। और इस खामोशी के बाद खुद से खफा भी हो जाती हूं। दरअसल दुनियावी होने में मुझे भी गुरेज नहीं लेकिन aमैं मायावी नहीं होना चाहती। सवालों का एक झंझावत सा मन में शोर मचा रहा है और मेेरे पास उन सवालों को दबा देने की मजबूरी के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। हर गहराती रात के साथ ये सवाल मुझे मुझसे मिलाने की कोशिश करते हैं। लेकिन दिन की रोशनी में मेरी आंखे ऐसे चौंधिया जाती है कि फिर इन सवालों के जिक्र से भी कोफ्त होने लगती है। इस बदलाव के बाद क्या कुछ बचा रह जाएगा। सिवाए रात को सोने और दिन को खोने के। या फिर रात भी बेचैन रहेगी और दिन भी बेचारा सा।  

शनिवार, 26 मार्च 2011

एक चुटकी चैन


कुछ दिन पहले किसी ने ये दुआ दी थी मुझे  'तुम्हारा  इंसानी रूप दुनिया की हर तीखी धूप में बचा रहे। यह रंग जो तुम्हारा अपना है हंसी का, खुशी का, बचपन का, रिश्ते का, बरकरार रहे हर उस हमले से जो मासूमियत पर होता ही है हर तरफ से।
काश कि यह सब जिस जमीन पर खडा होकर मैं कह रहा हूं उसको पूरा पूरा पढ पातीं तुम। हालांकि उससे भी फर्क यही पढता कि तुम रो देतीं।''
 हाँ मैं रो देती ...
अधूरे अहसास और अनकहे लफ्जो के इस मकडजाल के बीच सच  में मुश्किल तो है उस जमीन को पूरा पूरा पूरा पढ़ पाना जहाँ जज्बात सिर्फ जरुरत भर रह गए है..जहाँ प्रेम करने के लिए प्रेम नही किया जा रहा.. जहाँ हम सब एक दुसरे के लिए सिर्फ माध्यम बन गए है.
लेकिन क्या फर्क पड़ता है अगर मैं उस जमीन को न भी पढूं तो ...
कदम बढ़ाते ही तो पैरों के नीचे वही जमीन होती है
और बिना पढने की मोहलत लिए मुझे उस जमीन को समझ कर संभल कर कदम रखने के बारे में सोचना पड़ता है.
हाँ मुझ पर हमला होता है
जब मेरे मासूम सवालों को
मायूस कर देने वाले जवाब मिलते है
जब मेरे दिल में बैठकर कोई मेरे दिमाग को
परख रहा होता है
जब उम्र भर के लिए साथ हो जाने वाला कोई लम्हा
बरसो पुराना बीता पल बन जाता है
और जब
मेरी आँखों को पढ़ सकने वाला
कोई शख्स
ढेरों शब्दों को भी नही समझ पाता है 
ये निरी कोरी भावनाए है
हर किसी का  दिल बहता होगा इनमे
मेरा जरा सा डूब गया है
और इस डूबते से मन को तिनके की तरह इन शब्दों का सहारा मिल रहा है
और ये शब्द कम्भक्त नशा बन गए है शराब की तरह
जिस दिन न पीयू नींद नही आती
 जिस दिन न लिखूं चैन नही मिलता
और फिर इतनी सख्त जमीन पर चलने के बाद
एक चुटकी चैन तो चाहिए न ....




रविवार, 6 मार्च 2011

उफ़! ये कसक





नींद खो गई है
भूख सो गई है
सिर्फ प्यास लग रही है
उफ़ ! ये इश्क

कांटे ही थे वो चमकीले कागज में
लिपटे हुए

हम माना किये गुलाब  गिर गए होंगे रास्ते पर
उफ़ ! ये एतबार

किसी ताज को भी नही दी तवज्जो कभी

मगर उनके इक इशारे पर 

डाल दिए सब हथियार
उफ़ ! ये जज्बात

सूखते मुंह भी पानी नही माँगा किसी से

और उनसे जाकर कह दिया
हाँ तुमसे करते हैं प्यार
उफ़! ये इजहार

हरे भरे सपनो का

गुलाबी महल बनाकर
वो आये अंखियों में
और फिर खुद ही कर दिए सुराग
उफ़! ये वारदात

सारी कायनात आज शामिल है मेरी

रूह के साथ
जब कि वो हो रहे है
अपनी एक नई आरजू से दो चार
उफ़! ये संस्कार



शनिवार, 5 मार्च 2011

भीगे ही नही ...गीले भी हो गए है



  सिर में बहुत दर्द हो रहा है..   .
गाड़ियाँ भी अपनी रफ़्तार से आगे दौड़ने लगी थी    उस बारिश में.. लेकिन मैं अपने छोटे क़दमोंको       भी जितना धीरे हो सकता था उतना धीरे चला रही थी और इस धीरेबाजी में सिर्फ भीगी ही  नही सिर पर ओले भी पड़ गए..
 और अब ये दर्द..
 मुनासिब ही था इससे क्या गिला,
 गिला तो इस दिल से है जिसने बेवजह गीला करवा दिया
अब अपनी इस बेवकूफी के बारे में सोचते सोचते मुझे एक समझदारी भरी बात सूझी है
जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि जिंदगी भर की सारी फिलोसफी इस एक पल में समा गई है
बारिश जितना ही खूबसूरत लगता हैं न हमें सब कुछ
पहले पहले...
प्यार, सपने, जिंदगी, दोस्ती, रिश्ते, एहसास
और हम बिना रेनकोट और छाता लिए फुलतुश भीगने लगते है इस सब में
हम सिर्फ भीगने का मजा लेते रहते है
 अचानक जाने कहाँ से ओले भी पड़ जाते है
 फिर ऐसा ही दर्द होता है जैसे मेरे सिर में हो रहा है
और
 बचते बचाते जब जैसे तैसे घर पहुँचते है तो पता चलता है
अरे यार
हम सिर्फ भीगे ही नही
गीले भी हो गए है
इसके बाद सूखने में काफी वक़्त लग जाता है काफी वक़्त



शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

सात खून माफ़ और आठवां ...



अच्छी फिल्में सिर्फ फिल्म के लिहाज से ही अच्छी होती हैं जिंदगी के लिहाज से शायद ....
परदे पर हम अपनी दमित इच्छाओ की पूर्ति होते देख रोमांचित और उत्साहित महसूस  करते हैं और फिल्म हिट हो जाती है क्योंकि असल जिंदगी में सात खून माफ़ नही होते...और सात बार शादी करने का जोखिम उठाना .....????
हमारा आज, अभी और इस वक्त का सच ये है कि पत्नियाँ एक पति के साथ सात जन्मों के रिश्ते में बंधने के बाद शायद ७००० बार मरती हैं
बहुत सारे पतियों को लग सकता है कि ये एक तरफ़ा सच है और उनके पक्ष को दरकिनार कर दिया गया है ..तो हाँ...कर दिया है ..क्योंकि उनके पक्ष का प्रतिशत बहुत कम है..खैर इसे मेरी खुन्नस न समझिएगा सिर्फ एक बात लिखी है जो देखी और महसूस की अभी तमाम दुनिया देखना बाकी है और फिर हो सकता है कि विचार भी बदल जाये...
लेकिन विशाल भारद्वाज ने हमारे संकुचित समाज के सामने आंखे फाड़ कर, कान खड़े कर और कुर्सी से चिपक कर देखी जाने वाली एक फिल्म का प्रसार किया है ....जिस फिल्म के ख़त्म होने  के बाद अनजाने ही लोग standing oveation देते नजर आये....क्योंकि सात खून हो जाने के बाद शायद ये देखना किसी को गवारा न था कि प्यारे से शुगर( विवान शाह) का भी खून हो गया है ..साहेब (प्रियंका चोपरा) का वो शुगर जिसका एक बच्चा और बेहद प्यार करने वाली एक पत्नी है इसलिए हर बॉलीवुड फिल्म की तरह इस फिल्म की भी एंडिंग साइड हीरो और साइड हेरोइन के मिलन के साथ हैप्पी हो गई. लेकिन कुछ निराशा, अवसाद, अहसास और सवाल शादी नाम के रिश्ते से जुड़ते भी नजर आये जो कि हमारे देश में सिर्फ एक रिश्ता नही बल्कि भरा पूरा उत्सव है..
................
एक तरफ प्यार की तलाश में गुनाह करती औरत( सूजैना, प्रियंका चोपरा) ..और असफल होती सात शादियाँ और दूसरी तरफ बीवी बच्चे के साथ खुशहाल  जिंदगी जीने वाला एक छोटा सा परिवार ( विवान और कोंकना सेन शर्मा)
,क्या लगता है ????
शादी नाम की संस्था सिर्फ शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाई गई एक औपचारिक परम्परा है या एक शादी के साथ भी हमें तन मन और ...धन तीनो का सुख मिल सकता है. फिल्म सिर्फ प्यार की  तलाश में धोखे खा रही एक औरत की कहानी है या ये सच दिखाने वाला एक आईना भी कि हर औरत एक बार अपने पति को मारने के बारे में जरूर सोचती है.
अजीब तरह से बदल रही है यार ये दुनिया
प्यार करने की भी एक निश्चित स्ट्रेटजी हैं यहाँ 
और शादी इस रिश्ते पर तो भयंकर रूप से प्रश्नचिन्ह  लग रहे है 
देखना ये है कि शेष क्या बचेगा 
और सिनेमा की दुनिया में सात खून माफ़ होने के बाद असल जिंदगी का आठवां खून क्या माफ़ हो पायेगा

 

dnt just obey boss



सिर्फ घोटालों ही नहीं तमाम तरह के मोह और माया जालों में फंसे धंसे देश के बेदाग़ छवि वाले प्रधानमन्त्री कह रहे है कि मैं जॉब कर रहा हूँ. ये बात सुनकर एकबारगी तो प्रधानमन्त्री जैसे बड़े से पद की महिमा बेहद छोटी नजर आती है लेकिन वहीँ दूसरी दफा सोचने पर कीचड़ में कमल की तरह खिलते मनमोहन सिंह दिखाई देते है जो असल मायनो में पार्टी प्रधान के दिशानिर्देशों पर शिद्दत से काम कर रहे है बिलकुल जॉब के शाब्दिक अर्थ को चरितार्थ करते हुए ...just obey boss . लेकिन उनके पद की गरिमा और गुंजाईश को नौकरी नुमा घेरे में कैद करना उस मिशन के साथ नाइंसाफी है जिसके  आधार पर इस पद की अवधारणा बनाई गई थी. 
बात सिर्फ प्रधानमन्त्री के ब्यान पर टिप्पड़ी करने की नहीं है बल्कि ये भी है कि अगर हम सब लोग अपने काम को सिर्फ जॉब मानकर करें जिम्मेदारी और जवाबदेही समझकर नहीं तो क्या इस विकासशील देश के विकास का पहिया चल पायेगा ...जो सोच पहले से ही  संकुचित है अगर उसे नौकरी समझकर सीमित भी कर लिया गया तो 
किसी कंपनी में बतौर प्रशिक्षु शुरुआत करने वाली कोई महिला उसी कंपनी के सर्वोच्च पद पर पहुँच पाएगी...
क्या एक टी  वी प्रोग्राम से शुरुआत करने वाला व्यक्ति एक पुरे न्यूज़ चैनल को स्थापित कर पाता..
पेट्रोल पम्प  पर काम करने वाल एक अदना सा कर्मचारी aदेश के नामी अमीरों में शामिल होता 
ऐसे कई सवाल है जो मंत्री जी के एक जवाब पर खड़े हो गए हैं 

 

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

पहले से ज्यादा जवां लगती है हर बार ये दिल्ली



लुधियाना में बैठकर दिल्ली की बात. बहुत नाइंसाफी है जनाब. हाँ है तो. लेकिन क्या करें कमबख्त दूरियों ने दिल में दिल्ली को और भी गहरे घुसा दिया है. चार दिन की छुट्टी के बाद लुधियाना लौटी हूँ तो दिल्ली में कई नए बने फ्लाई ओवर, पहले से कुछ ज्यादा फैशन परस्त हो गए लोगों और प्रेम के उन्माद में नियम तोड़ते( दरसल मेट्रो में अब महिलायों के लिए अलग से सीट अरक्षित कर दी गई है ऐसे में जो लोग जोड़े से मेट्रों में सफ़र करते है उनके लिए खासी परेशानी होती है जैसा की मुझे उस वक्त महसूस हुआ, मेट्रो कर्मचारी ने लड़के से वुमन कम्पार्टमेंट से जाने के लिए कहाँ तो वह उस कर्मचारी से ही झगड़ने लगा उसके साथ उसकी महिला मित्र ने अन्य महिला यात्रिओं के विरोध करने पर उनके साथ भी गलत तरह से बात की , मामला सिर्फ इतना था की वेह दोनों साथ खड़े होना चाहते थे और एक नियम उसमे बढा बन रहा था )  युवाओं के साथ पहले से कहीं ज्यादा जवां लगती दिल्ली कुछ भी सही लेकिन कुछ लिखने को मजबूर कर रही है. जैसे न जाने कितना कुछ समेटे है ये अपने गर्भ  में. जैसे किसी देवता के वरदान से मिले खजाने में धन ख़त्म ही नही होता उसी तरह दिल्ली के बारे में लिखने के लिए इतना कुछ है कि उसमे कुछ नया लिखने की शर्त कोई मायने ही नही रखती. अहसास तो शख्स बदलने के साथ खुद ब खुद नए हो ही  जाते है न . जैसे मेरा दिल्ली से नॉएडा जाने के लिए ३३ नंबर की बस पकड़ने और गंतव्य तक पहुँचने का अहसास आज भी मेरे चेहरे पर मुस्कान ला देता है नही मुस्कान नही बड़ी सी हंसी. अगर आप इस बस से परिचित है और ये सब पढ़ रहे है तो अब तक मुस्कराहट आप के होटों को भी छु कर गुजर चुकी होगी अगर नही जानते तो माजरा ये है कि इस बस में सीट  तो दूर की बात है सांस लेने के लिए स्पेस मिलना भी मुश्किल होता है. अब शायद इस नंबर की बसों की संख्या बढा दी गई है तो कुछ सहूलियत हो लेकिन उस समय ३३ नंबर की बस में सफर करना और सुरक्षित लौटना जिंदगी की तमाम आपाधापियों के बीच जगह बना चुकी एक बड़ी चुनौती होतीं थी. मगर ये दिल्ली है और बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती है. इस शहर में आना भी बड़ी बात है रहना भी बड़ी बात है और अपनी जगह बनाना भी बड़ी बात है. और हाँ इस शहर का होकर भी इसे छोड़ जाना और फिर लौटकर अपना अस्तित्व बसाना ये सिर्फ बात ही बड़ी नही है ये काम भी बहुत बड़ा है ........आखिर बड़ा शहर है और हम छोटे लोग है वक़्त से भी और कद से भी ...हा हा हा. और फिर बड़ा बनने की न सही लेकिन बड़ा होने की ख्वाइशें अभी बाकी है ....

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

लम्हा लम्हा तनहा तनहा अपनी अपनी सी कुछ उदासियाँ





लम्हा लम्हा तनहा तनहा
अपनी अपनी सी कुछ उदासियाँ
चाँद की चांदनी में खामोश रात
सूरज के उजाले में बेचैन दिन
वक़्त के सायें में सिसकते जज्बात
और साथ होकर भी जीना तेरे बिन
लम्हा लम्हा तनहा तनहा
अपनी अपनी सी कुछ उदासियाँ
हवा के महकते झोंको
में उचटता सा मन
बादल गरजकर बारिशें लाकर
हर शय  को भिगोता सावन
और गीली गीली भीगी भीगी सी इस रुत में
सुखा रह जाता मेरा दामन
लम्हा लम्हा तनहा तनहा
अपनी अपनी सी कुछ उदासियाँ
लम्बे रास्ते दूर मंजिल
चलने का शौंक
और
पहुँचने का हुनर भी
फिर मिलना दिलों जाँ को
तोड़ देने वाली एक थकान
महफ़िल से गुजरकर
वीरान सा एक मकाम
लम्हा लम्हा तनहा तनहा
अपनी अपनी सी कुछ उदासियाँ
सांसो के एहसास से धड़कन की आवाज तक
कई मर्तबा तुझे खोकर
फिर से पाने की तारीख से आज तक
न जाने कितनी बार
मैंने खुद को तेरा होते हुए पाया है
और अब
जिंदगी का यूँ तुझे पराया कर जाना 
लम्हा लम्हा तनहा तनहा
अपनी अपनी सी कुछ उदासियाँ

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

तन्हाई पर नहीं 'रजाई' पर लिखूं



 आज सोचा कि
जिंदगी की तन्हाई पर नही 
हर रात मुझे गुदगुदाता है जिसका अहसास 
अकेले से बिस्तर की उस रजाई पर लिखू 
उन बातों पर नहीं
जिनसे बेमानी हो गए थे रिश्ते 
उन मुलाकातों पर लिखूं 
जिन्होंने हर बार दे छोड़ी 
दोबारा मिलने की एक वजह
उन किस्सों को न फिर से आम करूँ आज 
जिन्होंने हर खास पल को बना दिया था खोखला
अब लिखूं वो कहानिया 
जिन्होंने राजा रानी की ख़त्म हो चुकी कहानी को भी 
आगे बढ़ाने का होंसला दिया 
करूँ कुछ ऐसा क़ि
चाँद शर्माए और शिद्दत भी शर्मिंदा हो जाए 
देश दुनिया से दूर किसी द्वीप पर '
कोई ताजमहल नहीं 
एक तस्वीर बन आऊं 
बस एक वो ही न जान पाए
उसकी बेकरारी का मुझ पर असर 
और सारी कायनात को खबर हो जाए
क्यूँ लिखूं मैं कुछ दिल पर
दिल की बातों पर 
या दिल के बारे में
आज जिक्र करना चाहिए मुझे धड़कन का 
जिसने दिल के हर बदलते रुख को दिया है 
आगे बढ़ने का रास्ता 
ख्वाइशों और खामोशियों पर जाने कितना कुछ लिखा गया है आज तलक 
आज सोचती हूँ लिखूं उन इशारों पर 
जिन्होंने हर बार किया था खबरदार 
दिल की बातों में बह जाने से
दिखाया था आईना कई बार 
मिलाया था 
मेरे ही अक्स में मेरी जिंदगी से जुड़े हर अफ़साने से
उसने नहीं लिखे थे कभी ख़त मुझे 
भेजे थे कुछ एस ऍम एस 
संक्षिप्त सन्देश सुविधा के तहत
आज रोक लूँ मैं किसी तरह खुद को 
न पढूं दोबारा से उन शब्दों को 
जिन्होंने हकीकत से रुसवा कर दिया मुझे 
आज याद करूँ उन इमारतों को
जहाँ बचपन में मैंने अनजाने ही लिख दीये थे 
दो नाम 
एक बेनाम प्रेम कहानी के
क्यों ? ? ? ? ? ? ? ? ? ? ?
सही सोचा है न मैंने 
जिंदगी की तन्हाई पर नहीं 
अकेले से बिस्तर की रजाई पर लिखूं



बुधवार, 12 जनवरी 2011

आखिर ये मुद्दआ क्या है





हर रोज ऑफिस आते हुए मैं मंदिर के सामने से गुजरती हूँ
हाथ जोडती हूँ और कान पकडती हूँ
बचपन की आदत है
माँ अक्सर चलती बस से भी इशारा कर मंदिर की तरफ सर झुकाने  के लिए कहती थी जाने अनजाने किसी का दिल दुखाने और गलतियों की माफ़ी मांगने को कहती थी हालाँकि इस बात के अपने अलग तर्क हो सकते है कि माफ़ी मांग लेने से गलती सुधार नही जाती लेकिन ये माँ कि बात है जिस पर हर तर्क फीका पड़ जाता है उसी तरह तब  की ये आदत आज तक बरकरार है ...और गलतियां भी तो नही रुकी फिर चाहे बचपन हो या जवानी. खैर
वहां हर रोज मैं मंदिर में एक महिला को देखती हूँ उनके अलावा मंदिर में सिर्फ पंडित जी होते है जो अक्सर बाहर आकर बातें करते हुए दिखते है
वो महिला अकेली ही मंदिर में भजन गाती है ..कभी राम रूप में आना कभी श्याम रूप में आना ... प्रभु जी चले आना
मंदिर के आलो में दीये जले होते है...एक अजीब सी सुकून देने वाली और चुभने वाली शांति भी होती है जो कभी कभी सन्नाटे जैसी भी लगती है ...ऑंखें बंद किये ढोलक की थप से अपने सुर मिलाने की कोशिश करती वो महिला गीत गाती रहती है
भगवान् को बुलाती रहती है पता नही वो वापस कब जाती होगी
पता नही भगवान् उसके बुलाने से आते होंगे या नही
क्या ये भगवान् को बुलाने का तरीका है या फिर खुद को बहकाने का
यहाँ मुद्दा
न आस्था है
न भगवान्
न अरदास
बात ये है कि
इंसान जीवन के यथार्थ पर नहीं बल्कि सपनो पर जीता है.
ऐसे सपने जो कभी कभी बिलकुल बेमानी होते है और कभी कभी ऐसे कि सपने जिंदगी बन जाते है
पर उस महिला को देखकर फिर भी बहुत से सवाल सामने आ जाते है
क्यों गा रही है ये अरदासों के ये गीत जब हर कोई मशगूल है अपनी जिंदगी में
मंदिर का पंडित भी मंदिर से बाहर बगले झांक रहा है







कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...