बारिश लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बारिश लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 20 जून 2013

मुझे धूप चाहिए

मुझे धूप पसंद है, उसने कहा था।
और मैंने तपाक से उसके मुंह की बात छीनकर कर उसे भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था, '' ‌छ‌ि तुम्हें धूप  पसंद है, मुझे तो बा‌र‌िश पसंद है'' 
और फिर उसने भी तुरंत मेरी बात को लपक कर कहा था, ‘’मुझे बारिश बिलकुल पसंद नहीं है।‘’
वैसे बातें करने में मैं खुद भी बहुत माहिर हूं, लेकिन उसके तर्कों के आगे जीतना अक्सर मेरे लिए मुश्किल हो जाता था। उस दिन भी उसने मुझे बारिश के सैकड़ों नुकसान और धूप के हजारों फायदे गिना दिए थे। जवाब में मेरे पास सिर्फ वही घिसी-पिटी नॉनसेंस बकवास थी, जिसमें बारिश के होने से दो दिलों का धड़कना, किसी के लिए तड़पना और तन-मन में कुछ-कुछ होना शामिल था। हमारी बहस में कौन जीता, ये बताने के लिए किसी जज की जरूरत नहीं थी, क्योंकि हर बार की तरह उसकी जीत तय थी।
हारना यूं तो किसी को भी पसंद नहीं होता, लेकिन मुझे हारने से सख्त चिढ़ है। मैं हार बर्दाश्त ही नहीं कर सकती। उससे बात करने की सबसे खास और दिलचस्प बात ही ये थी कि उससे बातों में हारकर भी मुझे बुरा नहीं लगता था। ऐसा इसलिए होता था कि मैं हार कर भी जीत जाती थी, आखिर बिना कोई किताब पढ़े, बिना घंटों इंटरनेट पर आंखें गड़ाए मुझे इतनी सारी बातें जो पता चल जाती थी। चलते-फिरते विकीपीडिया की तरह था वो। अब इससे पहले कि आपका ध्यान असल मुद्दे से ज्यादा इस बात पर जाए कि वो कौन था तो वो मेरा एक दोस्त था। जिससे अक्सर साहित्य, राजनीति, शहर, समाज, देश, दुनिया, प्यार और सपने जैसे विषयों पर घंटों चर्चा हुआ करती थी। अब काफी समय से बात नहीं हुई है इसलिए लिखते वक्त वाक्यों में भूतकाल का भावना आ गई। अब मुद्दा यहां हमारी बातें या दोस्ती नहीं है, मुद्दा है बारिश और धूप।

मुझे हमेशा से बारिश बहुत पसंद रही है। हालांकि ऐसा भारत में कई लोगों के साथ है और खासकर लड़कियों के साथ। हो सकता है कि बॉलीवुड की फिल्मों का असर हो। लेकिन ऐसा सच में है।
चलो, अब बारिश का पसंद होना या न होना अपनी जगह है, लेकिन किसी को धूप पसंद है, ये बात समझना मेरे लिए अब से पहले तक काफी मुश्किल था।
कहते हैं न वक्त बड़ी चीज है। सब समझा देता है। हर बात और हर जज्बात। पिछले कुछ दिनों में काफी कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरी सोच को या कहिए कि पसंद पर ही प्रश्नचिंह् सा लगा दिया है। अब ये सोचने से पहले कि मुझे बारिश पसंद है, खुद को भीतर से कई बार खंगालना पड़ता है।

हाल ही में हम वैष्णो देवी की यात्रा पर गए। वहीं से कुछ किमी की दूरी पर एक पहाड़ी एरिया है पटनीटॉप। हर तरफ पहाड़ और हरियाली। जरा सा सिर ऊपर उठाओ तो लगता है कि बादल आपको छूकर जा रहे हैं। कहीं लगता कि पेड़ों ने बादलों की टोपी पहन रखी है। कहीं लगता है कि पहाड़ बादलों का कंबल ओढ़कर सो गए हैं। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वहां मौसम बदल रहा था एक पल में बारिश होती थी, एक पल में रुक जाती थी। दिल्ली के 47 डिग्री टेम्परेचर के बाद वहां जाना किसी जन्नत से कम नहीं था। लेकिन सिर्फ एक दिन वो भी पूरा नहीं, समझ लीजिए एक दिन के सिर्फ कुछ घंटे वहां बिताकर, पूरा समय बारिश को महसूस कर उसमें रमकर अचानक मुझे धूप की कमी महसूस होने लगी। ऐसा लगा जैसे मुझे तुरंत एक धूप का टुकड़ा मिल जाए और मैं उसे अपने सिर पर रख लूं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जब हम रात को तकरीबन 11 बजे वहां से लौटे तब बारिश और भी तेज हो चुकी थी। और मैं, जिसे हजार परेशानियों में भी अगर कोई चीज खुशी दे सकती है तो वो है बारिश, वो लड़की धूप के लिए तरसते हुए वापस लौटी थी। उस वक्त, वक्त शायद मुझे समझा रहा था कि धूप की अहमियत क्या है।

अहमियत तो शायद बारिश और धूप दोनों की है। लेकिन फर्क ये है कि बारिश सिर्फ अमीरों का मौसम है। गरीब और सड़क पर चलने वाले लोगों को जीने के लिए धूप चाहिए होती है। धूप में पसीना बहता है तो उनके घर-परिवार के लोगों की जिंदगी सुकून से चलती है, लेकिन बारिश में जब घर की छत से पानी टपकता है और कमजोर चप्पलें कीचड़ में फंसकर टूट जाती हैं तो जीना मुहाल हो जाता है। फिर बेशक इन सब बिंबों के बीच मुझ जैसा कोई व्यक्ति अपने किराये के मकान की बालकनी में बैठे-बैठे हाथों को जाली से बाहर निकालकर भिगोते हुए कितने ही बेमानी ख्वाब क्यों न सजा रहा हो...

और इन सब भावनात्मक बातों से ज्यादा अहम और बड़ी घटना उत्तराखंड में बारिश से हुई तबाही है, जिसके आगे ऊपर लिखे सारे कारण एकदम बौने हैं...

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

बिछड़ने का दिन



उस तेज बारिश वाली एक शाम हम दोनों


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए


मिलने का दिन तय कर रहे थे


कल आखिरी बार मिलेंगे


मैंने मन में सोचा था


उसे भी बताया था


और फिर हम मिले


उस दिन


और उसके बाद


बार-बार मिलते रहे


यूं ही


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

उसका खेत और मेरा दिल

 (सावन का महीना है मगर इस बार जुलाई में मानसून मुंह बनाये बैठा है
न तन भीग पाया न मन , हम कवि दिल लोगों को बारिश कुछ ज्यादा ही पसंद होती है , मुझे बहुत पसंद है मेरे लिए शायद antiseptic की तरह  है. खैर दिल दे जरा हटकर देखा तो वो खेत दिखाई दिए जो बारिश के इन्तजार में है वो किसान जिसके लिए शायद ये बारिश antiseptic नही बल्कि अमृत की तरह थी जीवनदायी आखिर लुधिअना में आज काफी दिन बाद सुबह का स्वागत बरखा ने किया है)


मेरी नजरें भी थी आसमान तरफ
वो भी देख रहा था
बनते बिगड़ते बादलों को
मेरी रूह भी थी उदास और प्यासी
 वो भी बेचैन था सूखे से
हम दोनों रो रहे थे
और चाहते थे
कि
काश ये
आकाश भी रो दे
हमारे आंसुओं को धो दे
मैं  नही खा पा रही थी कुछ भी, कुछ दिनों से
और
उसके घर नही बना था कुछ, बहुत दिनों से
बहुत  दिनों से हमारे दिन थे सीले सीले
और रातें गीली गीली
पर हम भीग नही पाये थे
जीत नही पाए थे
अपनी उम्मीदों से
 उसका खेत ख़ाली था
और मेरा दिल 

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

बारिश, धरती, आसमान मैं और तुम ..मेरे प्रिये

(एक ऐसे समाज में जहाँ लड़के नौकरी करने वाली लड़कियां ढून्ढ रहे है
और लड़कियों का अपने कर्रिएर के लिए शादी बच्चे यहाँ तक कि कई बार प्रेम को भी दरकिनार कर देना आम हो गया है
ये कविता उस औरत कि बात को बयाँ करने के लिए है जो अपने पति से बहुत प्यार करती है और .... उसके प्यार के साथ ही अपने सपनो को सतरंगी बनाना चाहती है जो इक्कीसवी सदी में रहकर भी सिर्फ अपने लिए नही जी रही...अपनों के लिए जी रही है
ये उसका नारीत्व भी हो सकता है और उसकी आदत भी जिसे वो आज के आधुनिक युग में justify  कर पाती है )




आज फिर आई बारिश
दरवाजे पर हुई जोरों से आवाज
बहुत दिनों बाद अनमनी सी नींद
जल्दी खुल गई आज
मगर मैंने दरवाजा नही खोला
नही देखा बाहर
झांककर
किस तरह पेड़ हरे भरे हो गए है
बूंदों का स्पर्श पाकर
किस तरह हवा के सर्द झोंकों से
पंछी घोंसलों में अलिगनबद हो गए है
किस तरह धरती भीग रही है
चुपचाप एक शांत अहसास के साथ
अहसास जो कह रहा है
कि दूरिया हमेशा फासले नही होते
और नजदीकियां हमेशा करीब होने का प्रमाण पत्र नही दे सकती
जब आसमान धरती को ये अहसास दे सकता है
जब बूंदे पत्तो को चूम सकती है
पंछी आजाद गगन को छोड़ अपने घरोंदे  में
रम सकते है
तो तुम क्यों नही हो सकते मेरे सबसे करीब
हमेशा नजरों के सामने होकर भी
क्यों मैं हमेशा कहती हूँ तुमसे आधी बात
और छुपा लेती हूँ आधी
बताने की चाहत रखते हुए भी
क्यों मुझे लगता है कि मेरे जीवनसाथी
तुम नही समझोगे इस बात को
सुनोगे तो नही दोगे फिर मेरा साथ
तुम रूठ जाओगे मुझसे
मन्वाओगे अपनी जिद
थोप दोगे अपना निर्णय
चादर, परदे बच्चों का स्कूल सब कुछ तुम कहते गए
मैं रजामंद होती गई
मेरी पसंद का सवाल ही नही उठा
मैं खो गई तुम्हारी दलीलों
और दुनिया  की मुझसे जयादा समझ होने के तर्क में
मगर मेरे प्रिये अब जब मैं
फिर से रंगना चाहती हूँ अपनी
जिंदगी को अपने रंग में
वो रंग
जिस पर तुम्हारे प्यार की छाया
और मेरी उम्र की धूप ने
डाल दिया था पर्दा
तो दिल से तुम्हे बताकर
तुम्हारी तस्वीर से ढेरों बातें करके
अपनी आखों से तुमसे सबकुछ कहकर
और होठों को सीकर
भर दिया है नौकरी के लिए आवेदन पत्र
इस उम्मीद के साथ की तुम इसे सिर्फ मेरा नही समझोगे
हमारा समझ कर स्वीकार करोगे
और तुम्हारी सहमति के साथ मैं
महसूस कर सकूंगी
आसमान और धरा की दूरियों के बीच पनपते
हमेशा करीब होने के अहसास को
और
पी सकूंगी तुम्हारे प्यार की
वो बूँद जिसका मैंने  चातक की तरह
इन्तजार किया है
हर सावन को स्वाति नक्षत्र  मानकर

शनिवार, 5 मार्च 2011

भीगे ही नही ...गीले भी हो गए है



  सिर में बहुत दर्द हो रहा है..   .
गाड़ियाँ भी अपनी रफ़्तार से आगे दौड़ने लगी थी    उस बारिश में.. लेकिन मैं अपने छोटे क़दमोंको       भी जितना धीरे हो सकता था उतना धीरे चला रही थी और इस धीरेबाजी में सिर्फ भीगी ही  नही सिर पर ओले भी पड़ गए..
 और अब ये दर्द..
 मुनासिब ही था इससे क्या गिला,
 गिला तो इस दिल से है जिसने बेवजह गीला करवा दिया
अब अपनी इस बेवकूफी के बारे में सोचते सोचते मुझे एक समझदारी भरी बात सूझी है
जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि जिंदगी भर की सारी फिलोसफी इस एक पल में समा गई है
बारिश जितना ही खूबसूरत लगता हैं न हमें सब कुछ
पहले पहले...
प्यार, सपने, जिंदगी, दोस्ती, रिश्ते, एहसास
और हम बिना रेनकोट और छाता लिए फुलतुश भीगने लगते है इस सब में
हम सिर्फ भीगने का मजा लेते रहते है
 अचानक जाने कहाँ से ओले भी पड़ जाते है
 फिर ऐसा ही दर्द होता है जैसे मेरे सिर में हो रहा है
और
 बचते बचाते जब जैसे तैसे घर पहुँचते है तो पता चलता है
अरे यार
हम सिर्फ भीगे ही नही
गीले भी हो गए है
इसके बाद सूखने में काफी वक़्त लग जाता है काफी वक़्त



गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बारिश की शोख अदाएं अब सिर्फ सुर्खियां

 बारिश की वो शोखियां सड़कों के ट्रैफिक और नालों से बाहर आते पानी के बीच कहीं खो गई हैं। इन्हें ढूंढने का वक्त किसी के पास नहीं है क्योंकि हर कोई जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता है। और घर पहुंच कर पहला वाक्य निकलता है आफत आ जाती है बारिश में। पता नहीं कब जाएगी ये बारिश। और यहां हम सोचते हैं कि  मेघा बरसते ही रहें। बूंदे झरती ही रहे। और मिट्टी से वो सौंधी महक आती ही रहे हमेशा। चारो पहर।
                                        

बारिश...इस शब्द के होठों पर आते ही रुमानियत का जो अहसास दम भरने लगता है उसमें खुशी और ग़म दोनो रंग होते है। मौसम की पहली बारिश जाने क्या कुछ समेट लाती है अपने साथ। कुछ बीती बातें कुछ मीठी यादें या फिर एक नई याद कुछ नए जज्बात। साफ-सुथरे मौसम का यूं सीला सा हो जाना और सूखे से पत्तों का यूं गीला सा हो जाना।  एक बारिश और दो दृश्य।  एक के  बाद अगला। पहले बादलों की साजिश और बूंदो का झरना और फिर गीले से उन पत्तों से बूंदो का टपकना।  सोचती हूं तमाम लोगों को यूं अपनी ही दुनिया में मग्न कर देना भी तो कहीं आकाश की कोई चाल नही। चुपके से वो जो कहना चाहता है धरती से उसमें शायद उसे किसी का दखल पसंद नही है इसलिए ऐसा समां बांधता है कि हर कोई अपने ही मिलन और जुदाई के जोड़-घटा, गुणा-भाग में उलझ जाता है। हालांकि बारिश के बारे में काफी कुछ कहा जा सकता है और इसमें फीलिंगस आर मोर एंड वर्डस आर फ्यू वाली स्थिति पैदा हो जाती है। लेकिन बादल, बिजली,घटाएं और बारिश के अलावा कहने और सहने वाली बात ये है कि बेसब्री से जिस बारिश का हम इंतजार करते हैं जिसके बरसने से जेहन और जिंदगी में इतना कुछ घटित होने लगता है उसकी टीआरपी और ब्रांडिंग पर अव्यवस्थाओं का ऐसा असर होता है कि बारिश से लोग घबराने लगे हैं, कतराने लगे हैं। शायद भारत ही एक ऐसा देश है जहां बारिश सिर्फ आसमान से पानी गिरना भर नहीं है। उत्सव, गीत, कथाएं, हरियाली बहुत से पहलू यहां बारिश से जुड़ते हैं। कभी बारिश की भी अपनी शोखियां थी लेकिन अब बारिश सिर्फ अखबारों और चैनलों की सुर्खियां हैं। यहां बारिश आने से इतने लोगों की मौत और यहां बारिश से बाढ़ का खतरा।                                  

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...