बुधवार, 24 अगस्त 2011

मन लोकपाल

( रामलीला मैदान में हर दिन भीड़  बढ़ रही है अब सरकार की गर्दन भी कुछ झुकने लगी है
लेकिन हम अन्ना के नाम की नेलपॉलिश लगाने, टोपी और टी शर्त पहनाने के अलावा क्या कर पाए है
एक दिन का अनशन क्यों न अपने भीतर के बदलाव के लिए करे ...आखिर व्यवस्था हम से ही है हम ही हैं कहीं क्लर्क कही वकील कहीं बाबु कहीं पोलिसे क्लार्मी और कहीं ..वो शख्स जो एक लालच को पूरा करने के लिए दूसरे लालच की भेंट चढ़ता आया है
ये मन लोकपाल की बात है जरा इसे भी समझने की कोशिश करें अपने मन को भी मनाये ...भ्रष्टता से बचने के लिए एक बिल से जो बात नही बनेगी वो आपके दिल से बन जाएगी )

वीर तुम बढे चलो धीर तुम बढे चलो
सामने पहाड़ हो क्रांति की मशाल हो
तुम रुको नही थको नही
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दूसरी कक्षा में मैंने ऐसी ही एक कविता याद की थी प्रार्थना सभा में सुनाने के लिए..अब शायद कुछ एक लाइन गलत भी लिख दी हैं
लेकिन मैं बचपन से इतिहास के पाठ याद करते हुए सोचा करती थी काश ये क्रांतियाँ मैंने अपनी आँखों से देखी होती तब मुझे सब मालूम होता और कुछ भी याद या कहूँ की यूँ रटना न पड़ता ...बेशक बहुत से सपने अभी गर्त में है लेकिन अपनी आँखों से क्रांति देखने का ये मासूम सा ख्वाब यूँ सच होगा ....सोचा नहीं था
दिल्ली क्रांति के संक्रमण काल में है

  अन्ना और अरविन्द केजरीवाल की  सालों की  मेहनत का सिला जन सैलाब के रूप में सामने है मगर इस क्रांति का ये कैसा कडवा पहलू है क़ि लोगों ने रामलीला मैदान में जाने को एन्जॉय करने का नाम दे दिया है , वहां से अन्ना की  टोपी पहनकर वापस आने को वो अपनी शान समझ रहे है ..फिलहाल हर दिन भीड़ बढ़ रही है ..लेकिन इस भीड़ का हिस्सा कौन लोग हैं जरा अपनी छटनी करें ...इस आधार पर की वह  सिर्फ लोकपाल बिल पास करने की  मुहीम में नहीं खुद को बदलने की मुहीम में भी शामिल हो रहे हैं

बड़े बड़े स्कूलों का प्रबन्धन इस समर्थन में शामिल है
जरा वो अपने दामन  में झांके कितनी बार उन्होंने सस्ती कोपी किताबे महंगे दामों पर जबरदस्ती बच्चों को लेने को मजबूर किया है ...
जरा खोल के देखने उस रजिस्टर को जिसमे उनका स्टाफ हाथ में मिलने वाली तन्ख्वांह से कहीं ज्यादा पर दस्तखत करता है
बहुत से वकीलों ने भी रामलीला मैदान को ही अदालत बना डाला वो पूछे खुद से की क्या कभी बिना पैसे लिए  किसी गरीब को इन्साफ दिलाने में शामिल रहे हैं वो
बहुत से युवा इस आन्दोलन में जी जान से शामिल हुए झंडे लेकर सड़कों पर भागे नारे लगाये अन्ना की टोपी पहनी ..लेकिन फिर वापस लौट आये दरसल वास्तव में ये सब खुद को और अपने देखने जानने वालों को टोपी पहनाने जैसा है
बेहद चिड हो रही है मुझे ये लिखते हुए कि आजकल हर चीज हर बात हर जज्बात एक ट्रेंड या फैशन का रूप क्यों ले लेता है ?
क्यों चीजों का वास्तविक वजूद दिखावे की भेट चढ़ जाता है ?
हम किसी की पूंछ बनने की दौड़ में क्यों शामिल हो जाते है ?
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ये सारी बाते छोड़ भी दे ..सिर्फ मुद्दे की बात करें ..भ्रष्टाचार की बात करें तो क्या सिर्फ एक लोकपाल इस पर लगाम लगा सकता है
कानून तो कई हैं पर क्या कानून बनने से समस्या ख़त्म हो गई
तीन बार चलान होने पर लाइसेंसे रद हो जाना चाहिए
लेकिन नही होता
दहेज़ लेने और देने पर सजा का प्रावधान है
लेकिन धडल्ले से दहेज़ लिया और दिया जा रहा है
ये फेहरिस्त लम्बी है
समझने की बात ये है कि अनशन  और जन सैलाब से समस्या कितनी हल हो सकती है
अन्ना का अध्याय अभी जारी है ...
लेकिन इससे कुछ सिखने की शुरुआत हमें रामलीला मैदान पहुंचकर नही अपने भीतर झाँक कर  करनी होगी

बुधवार, 17 अगस्त 2011

एक उदास मन की टूटी फूटी बतियाँ

बहुत बड़ा बनने और बहुत कुछ पाने के ख्वाबों के बीच कुछ छोटी छोटी चीजें कितनी अहम् हो जाती है ...इतनी अहम् की ये चीजे ही हमारा अहम हो जाती हैं..
शायद जिंदगी कभी हमारी तरह नही होती
हमें हमेशा जिंदगी के जैसे होना होता है

जिसे पाना चाहते हैं जब वो मिल जाता है तो

सब कुछ इतना सूना क्यों हो जाता है

उसे खो सकने का तो कभी ख्याल भी

नही किया था
आज वो ढूंढे से भी नही मिल रहा

इतनी बेसिर पैर हो रही है

मंजिल कि
कोई सिरा दिख ही नही रहा
नही तो आगे बढूँ और थाम लूँ , जकड लूँ

आसमान में छाए बादलों को देखा तो लगा
कि जैसे उड़ रहें हैं ये
इनका तय है न एक मौसम उड़ने का
एक बरसने का
एक तरसने का
एक तरसने का
हम तो
फिर वही बात
अपनी मर्जी से कहाँ
अपने सफ़र के हम हैं
रूख हवाओं का जिधर है
उधर के हम है
लेकिन क्यों हवाएं हमारे रुख के साथ नहीं हैं
क्यों इस कायनात कि सारी साजिशे हमारे खिलाफ रहीं हैं
क्यों '

रविवार, 14 अगस्त 2011

इस आजादी पर

घुमकड़ी का अपना अलग मजा है आप अकेले होकर भी एक नए शहर में एक नई जगह पर अकेले नही होते क्योंकि वहां बहुत कुछ होता है आपके जानने समझने, देखने और महसूस करने के लिए... दिल्ली की दुनिया में रहकर पंजाब मेरे लिए सिर्फ फिल्मों में दिखने वाली एक ऐसी जगह थी जहाँ बेहद खूबसूरत सरसों के खेत होते है ..इससे ज्यादा कभी मैंने सोचा ही नही शायद ....या जरुरत ही नही पड़ी सोचने की
लेकिन जरूरतों से जुस्तजू के दरम्यान एक रात में ही मेरे रहने का ठिकाना बदला और ६ सितम्बर २०१० को मैं लुधियाना आ गई ....फिर एक सिलसिला शुरू हुआ घुमकड़ी के उस शौक को पूरा करने का जो दिल्ली में रहते हुए सिर्फ कनाट प्लेस, लाजपत नगर, साकेत या मंडी हाउस तक सीमित था...हालाँकि मैं अपना ये शौक बहुत बेहतरी से तो पूरा नही कर पाई ..लेकिन एक छोटी से अनजानी सी अनसोची सी यात्रा हुई ..


फिरोजपुर
का गाँव हुसैनीवाला, पाकिस्तान की सरहद से सटा...मेरी हमेशा से पाकिस्तान जाने की इच्छा रही है .....वजह है ये जानना कि आखिर कौन सी ऐसी खाई है जिसने एक देश को दो बना दिया और दो पड़ोसियों को कभी एक होने नही दिया..लेकिन जिदगी की दूसरी  और जरूरतों और दबावों के आगे ये इच्छा जरा साइड पर ही रहती थी ...दरसल मैं फिरोजपुर अखबार के लिए एक स्टोरी करने गई थी ...कुछ पता नही था कि जहाँ जाना है वो जगह कितनी दूर है , वहां जाने का साधन क्या है और हा रात से पहले घर भी लौटना था...मुझे मुहार जमशेर नाम के एक गाँव में जाना था जो फिरोजपुर से भी १२० किलोमीटर दूर था और दोपहर के  3 :३० बजे फिरोजपुर से इस गाँव के लिए निकलने का मतलब था वापसी में देरी और असुरक्षा... इसलिए एक जानने वाले से पूछा  कि यहाँ सरहद पर बना कौन सा गाँव सबसे नजदीक है ..तब उसने हुस्सैनिवाला के बारे में बताया.. तब नही सोचा था कि आज मेरी वो साइड की हुई इच्छा यूँ पूरी होने वाली है.. गाँव पहुंचकर वहां बने बोर्डर के बारे में पता चला तो सोचा कि यहाँ देखते है क्या होता है ..बस फिर रास्ता ही सब कुछ जानता  था और हम निरे अजनबी एक मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे ...जब पहुंचे तो दिखी
दो सरहदे...एक तरफ पाकिस्तान ....एक तरफ हिन्दुस्तान
एक तरफ पाकिस्तान के लोग ..दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के
इधर हमारे सिपाही ..उधर उनके
एक दूसरे के आगे पैर ठोकते हुए ...
एक दूसरे को अकड़ दिखाते हुए ..
अपने अपने झंडे को ऊँचा उठाते हुए ..
वहां से पाकिस्तान जिंदाबाद  के नारे लगा रहे कुछ लोग
तो यहाँ से हिन्दुस्तान की जयकार करते  नौजवान
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एक साथ बहुत से सवाल उमड़ घुमड़ आये ये सब देख कर कि
ये सब क्यों हो रहा है ?
किसने बनवाया होगा ये बोर्डर ?
जब दुश्मनी है तो ये ठोक बजाने का दिखावा क्यों ?
 क्या मिल जाता है एक दूसरे के झंडे को निचा दिखाकर ?
क्या कभी मन नही करता होगा आपस में आम लोगों की तरह हसने बोलने का ?
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जब वहां एक सिपाही से इन सवालों के जवाब लेना चाहा तो उसने कहा हमें मीडिया वालों से बिना इजाजत बात करने की परमिशन नही है
जब तक वहां सेरेमनी चलती रही सिर्फ दुश्मनी दिखाई दी
जब वो सेरेमनी ख़त्म हुई और हम लोग बाहर आने लगे तब किसी को बातें करते सूना .." ये लोग सिर्फ आधे घंटे की इस सरेमोनी में ही ये ठोक बजाते है रात को साथ बैठकर दारु पीते है ..
फिर देखा की सीढियों से उतरते हुए पाकिस्तान के कुछ बच्चे हमें हाथ हिलाकर बाय कर रहे है
कुछ मुस्कुरा रहे हैं
कुछ नजरों में निगाहे डालकर कुछ ढूँढना चाह रहे है
ये वो बातें है जिन्हें लिखकर बयाँ नही किया जा सकता
हां आप चाहे तो पढ़कर महसूस जरुर कर सकते हैं ...
ये चिंदी चिंदी से एक दो पल जब आँखों के आगे दुबारा तैरते है तो लगता है यहाँ मैं रीट्रीट सेरेमनी नही
रीथिंक टू रीबिल्ड सरेमोनी देखने आई थी
यानि दुबारा से ये सोचना की हमें क्या बनाना है
दो दुश्मन देश??
दो दोस्त??
एक टुटा हुआ एक रूठा हुआ देश??
या फिर अगर हम ये सारी सरहदे ही मिटा दें !!!!! सिर्फ बातों में नही सच में ...सच में जाये और वो लोहे की तारें काट आये किसी औजार से
अब मिट जाना चाहिए इन सरहदों का अस्तित्व...हम दोनों देशवासी तो facebook पर कब से एक दूसरे के दोस्त हैं
हमारा दिल कब से धड़क रहा है विभाजन में अपने पीछे छुट चुके परिवारों के लिए

हम कहाँ चाहते है अब लड़ना झगड़ना हम तो चाहते है पाकिस्तान के खूबसूरत शहरों में जाकर छुट्टियाँ बिताना ...(इस आजादी दिवस पर पहली बार बेहद गुलाम अनुभव कर रही हूँ मैं खुद को)



गुरुवार, 4 अगस्त 2011

उसका खेत और मेरा दिल

 (सावन का महीना है मगर इस बार जुलाई में मानसून मुंह बनाये बैठा है
न तन भीग पाया न मन , हम कवि दिल लोगों को बारिश कुछ ज्यादा ही पसंद होती है , मुझे बहुत पसंद है मेरे लिए शायद antiseptic की तरह  है. खैर दिल दे जरा हटकर देखा तो वो खेत दिखाई दिए जो बारिश के इन्तजार में है वो किसान जिसके लिए शायद ये बारिश antiseptic नही बल्कि अमृत की तरह थी जीवनदायी आखिर लुधिअना में आज काफी दिन बाद सुबह का स्वागत बरखा ने किया है)


मेरी नजरें भी थी आसमान तरफ
वो भी देख रहा था
बनते बिगड़ते बादलों को
मेरी रूह भी थी उदास और प्यासी
 वो भी बेचैन था सूखे से
हम दोनों रो रहे थे
और चाहते थे
कि
काश ये
आकाश भी रो दे
हमारे आंसुओं को धो दे
मैं  नही खा पा रही थी कुछ भी, कुछ दिनों से
और
उसके घर नही बना था कुछ, बहुत दिनों से
बहुत  दिनों से हमारे दिन थे सीले सीले
और रातें गीली गीली
पर हम भीग नही पाये थे
जीत नही पाए थे
अपनी उम्मीदों से
 उसका खेत ख़ाली था
और मेरा दिल 

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...