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शनिवार, 24 मार्च 2012

प्रेम का अनुवाद

प्रेम का अनुवाद देह होता है
किसी ने कहा था
मैंने कहा
जिस प्रेम का अनुवाद देह है
वो प्रेम से कुछ अलग है
प्रेम से कुछ कम है
उसने कहा
ये तुम्हारा भ्रम है
मैंने कहा
तुम्हारी भाषा ही कमजोर है
जिस तरह पूजा के बाद मिलने वाले
जल का अनुवाद पानी नहीं हो सकता
उसी तरह
प्रेम का अनुवाद देह नहीं बन सकती
तुम्हीं सोचो, तुम्ही बताओ
क्या तुम्हें सिर्फ मिटती हुई वो दूरियां याद हैं
जिनके बाद दो शरीर एक दूसरे में सिमटते गए थे
.
.
एक-दूसरे के शरीर से कोसों दूर भी
लगातार पलती-बढ़ती हुई
उन नजदीकियों को तुमने कौन सी जगह दी है
अपनी स्मृति में
अपनी यादों में
क्या सबसे निचले माले पर बिठा दिया है
उन पलों को
जिनके होने से बचा हुआ है
आज भी
प्रेम का असितत्व
देह से बिल्कुल अलग
बहुत दूर भी

रविवार, 18 मार्च 2012

तुम और मैं

तुमसे दूर जाने की कई वजह थी मेरे पास
फिर भी
मैं तुम्हारे सबसे नजदीक रहना चाहती थी
तुम हर बार
मेरे दिल पर दस्तक देकर
दुत्कार रहे थे मुझे
मैं हर बार
तुम्हारा दर्द सहलाना चाहती थी
तुम चाह रहे थे
सब कुछ छिपाना
मैं चाह रही थी जताना
तुम पहले ही
निगल चुके थे
सारी भावनाएं
मैं अब
दांतों तले
हर एक अहसास को
चबा रही थी
तुम
एक अहम शख्सियत बनना चाहते थे
मेरी जिंदगी में
मैं
तुम्हें अपनी दुनिया का
सबसे खास शख्स बनाना चाहती थी
तुम अच्छी तरह जान चुके थे मुझे
कई तरह परख चुकने के बाद
मुझे डर था तुम्हें खोने का
हर परख से पहले
तुम मुझे सिखाकर
खुद भूल गए थे प्यार करना
मैं अब भी सीखे जा रही थी

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

पुरुष प्रधान कविता



नाबालिग लड़की से बलात्कार
पत्नी पर, शराबी पति का अत्याचार
बेटी के प्यार पर, बाप का प्रहार
ऐसी तमाम खबरों को लिखने 
और पढ़ने के बावजूद भी
मैं अपनी रचनात्मकता की फेहरिस्त में
जोड़ना चाहती हूं
एक पुरुष प्रधान कविता,
एक धारावाहिक
या ऐसी कहानी
जो पुरुष के अहसास और अनुभव बयां करे
लेकिन सांचों में ठिठके
इस तबके की तारीफ अफजाई के लिए
मुझे लंबा इंतजार करना होगा
या फिर जल्द ही
किसी आदमी को पुराने सांचों को तोड़
बाहर निकलना होगा
मिसाल बनना होगा
ताकि मेरी रचनात्मकता को
एक तथ्य मिल सके
और महिला समाज को एक उम्मीद

बुधवार, 4 जनवरी 2012

जब दो वक़्त मिलते हैं

वक़्त वक़्त की बहुत सी बातें है
शाम के एक ख़ास वक़्त पर
माँ कहती है
धुप बत्ती करो
संध्या समय है
उस वक़्त वो बाल नहीं सवारने देती
दर्पण में नहीं निहारने देती
ये  उनका एक अंध विशवास लगता है
पर जब माँ कहती है
दो वक़्त मिल रहे हैं इस वक़्त
दरिया भी रुक जाता है ...
तो ये मुझे
अपना एक
अनछुआ अहसास लगता है
जैसे वक़्त के रुक जाने की कल्पना से
मन सिहर जाता है
वक़्त आगे बढ़ने लगता है
तो जी घबराता है
.
.
ये माँ कैसी बातें करती है
कि इस वक़्त
एक वक़्त
दूसरे वक़्त
से मिल जाता है
जैसे सुबह को शाम
अपने आगोश में ले लेती हो
या सूरज की  देह
चाँद बनकर निकलती हो
दरिया कितना खुशनसीब है
जो वो रुक पाता है
ये देखने के लिए
मेरा तो सारा वक़्त ही
उस वक़्त की कल्पना करने में निकल जाता है


सोमवार, 19 सितंबर 2011

मन शैतान हो गया है


मन करता है नास्तिक हो जाऊं
मन करता है किसी को नाराज कर दूँ
और कभी न मनाऊँ
किसी को दूँ बेइंतहा मोहब्बत
और फिर मैं भी बेवफाई कर पाऊं
मन करता है अहसासों का
अंश अंश निकालकर
किसी कूड़ेदान में फेंक आऊं
मन  करता है किसी पहाड़ी जगह नही
पकिस्तान में जाकर छुट्टियाँ बिताऊं
मन करता है तोड़ दूँ
सारे परहेज और रजकर खाऊं
मांगूं नही
छीन लूँ
अपना हर हक़ - अधिकार
मोड़ दूँ तोड़ दूँ मरोड़ दूँ
उन सारे गृह नक्षत्रों को जो मेरे
खिलाफ
हो गए हैं
काट दूँ सारी किस्मत की रेखाएं
हाथ से
और खुद सपनों की एक तस्वीर हथेली पर सजाऊं
अब मन करता है खुद  पर करूँ एक अहसान
भूल जाऊं
सबको
और याद रखूं बस अपना नाम
ये मन अब शायद चंचल नही रहा
शैतान हो गया है

रविवार, 6 मार्च 2011

उफ़! ये कसक





नींद खो गई है
भूख सो गई है
सिर्फ प्यास लग रही है
उफ़ ! ये इश्क

कांटे ही थे वो चमकीले कागज में
लिपटे हुए

हम माना किये गुलाब  गिर गए होंगे रास्ते पर
उफ़ ! ये एतबार

किसी ताज को भी नही दी तवज्जो कभी

मगर उनके इक इशारे पर 

डाल दिए सब हथियार
उफ़ ! ये जज्बात

सूखते मुंह भी पानी नही माँगा किसी से

और उनसे जाकर कह दिया
हाँ तुमसे करते हैं प्यार
उफ़! ये इजहार

हरे भरे सपनो का

गुलाबी महल बनाकर
वो आये अंखियों में
और फिर खुद ही कर दिए सुराग
उफ़! ये वारदात

सारी कायनात आज शामिल है मेरी

रूह के साथ
जब कि वो हो रहे है
अपनी एक नई आरजू से दो चार
उफ़! ये संस्कार



सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

परख

परख 
पलक झपकते ही जो बादल देते हैं कारवां
उनकी परख
प्रेम नाम के पर्यायवाची
भरे पड़े हैं जिनके शब्दकोष में
जान, जानम, जानेमन और  जिंदगी
जो कहते हैं अपनी हर महबूबा को 
उनकी परख
हर रात होना चाहते हैं 
जो हम बिस्तर 
चोरी छिपे
हर उस लड़की के साथ
जिसने मान लिया हैं
उनके शब्दों को पर ब्रह्म
या फिर वो 
जिसे नही है कोई परवाह लोकलाज की
जो खुद भी मिटाना चाहती हैं महज जिस्मानी भूख
इस जगमगाहट के जरिये
उनकी परख
रोजी रोटी और मकान के बाद
या इन तीनो से पहले एक और 
मूलभूत जरुरत है हमारे बीच
देह
देह की भूख
देह की मुक्ति
देह का समर्पण
जो देते हैं इस तरह के प्रवचन
उनकी परख
जो स्त्री को करना चाहते है स्वतंत्र समाज की  बेड़ियों से
और वही 
जो नही देख सकते 
अपनी बहिन, बेटी या माँ को 
किसी पुरुष के ख्वाब ख्याल
संजोते हुए भी
उनकी परख
जस्बातों के दरम्यान पनपती
जरुरत से प्रेम को बचाने के लिए
शायद  परख जरुरी है 


कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...