रविवार, 31 जनवरी 2010

ख्वाब और जिंदगी

ख्वाबों की तस्वीर

में खुशियों की खुशबू होती है

बन्दे कि तक़दीर में

ख्वाब कि हकीकत नही

महज आरजू होती है

अफ्सानो कि चांदनी पर

जब असलियत कि धुप पड़ती है

तब जिंदगी की कहानी

पीछे छूट चुके किसी मोड़ की तरफ मुडती है

बेशक होती है

आवाज कुछ कहने के लिए

आँखें होती है देखने के लिए सब कुछ

और हाथ भी होते है करने के लिए बहुत कुछ

मगर खामोश सी जिंदगी

पल भर में सारी ज्ञानेन्द्रियों को अपाहिज बना जाती है

जिस तरफ न जाते है सपने

न सोच ही पहुचती है जहाँ तक

वाही कहीं दूर

जिंदगी की सड़क

हमारा मकाम बना आती है

अमूमन ही होता है ऐसा की हम जिंदगी को चलाते है

अक्सर जिंदगी ही हमें चलाती है

और चला जाती है

शनिवार, 30 जनवरी 2010

बदलते जाना


वक़्त के ढांचे में ढलकर

अपने वजूद को बनाना

वो अनजान से रस्ते चुनना

और जान भूजकर उन पर चलते जाना

अंधेरों से रौशनी कभी

और कभी

रौशनी से नींद के लिए

थोडा सा अँधेरा उधार मांग लाना

पहले जद्दोजहद से जिंदगी

और फिर

जिंदगी में जुस्तजू को पाना

खलिश से जगी ख्वाहिशें

और ख्वाहेशों को पाने में

खताओं को अपनाना

आसान तो नही होता न

सपनो को सच करने के लिए

हर बार लगातार

अपनी सोच को बदलते जाना

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

यादें

यादें
यादों को बनाओ भी तुम
बिठाओ भी तुम
और सजाओ भी तुम ही
फिर चंद लम्हों के फासलें से
इन यादों में बह जाओ भी तुम ही
तुम ही पूछों सवाल खुद से
और जवाब भी दिए जाओ तुम ही
बात सोच के बागवानो की
एक फूल ही पर इतराओ भी तुम ही
तुम ही ने कहे थे वो शब्द
उस रोज जिनसे शमा जल उठी थी
आज फिर याद करके उन पलों को
पछताओ भी तुम ही
यादें
यादों को बनाओ भी तुम
बिठाओ भी तुम
और सजाओ भी तुम ही

सोमवार, 25 जनवरी 2010

मीडिया में रण

बहुत शोर सुनते थे पहलु में दिल का /जो चीरा तो एक कतरा खून न निकला .........मीडिया में मीडिया के लिए मीडिया द्वारा मचे 'रण' का फलसफा भी कुछ ऐसा ही है । नही जानती कि फिल्म रण में क्या होगा ,पटकथा कितनी मजबूत होगी, क्लाइमैक्स कितना बेहतरीन लेकिन बेशक फिल्म को अच्छे खासे दर्शक मिल जायेंगे । आम दर्शक रूचि लें या न ले मीडिया वालें सारे लोग तो जरुर देखने जायेंगे । कोई हर्षवर्धन मालिक (अमिताभ बच्चन )से खुद को जोड़कर देखेगा तो कोई पूरब शास्त्री(रितेश देशमुख) में अपना अक्स पायेगा। और फिर वो मासूम दिल भी तो इस फिल्म के दर्शक होंगे जो मीडिया में आने का सपना पाले कभी इंडियन एक्सप्रेस के पन्ने पलटते है तो कभी विनोद दुआ और बरखा दत्त के प्रोग्राम टी वी पर एक ताकि लगाकर देखते है । रण में तो उनके सामान्य ज्ञान के लिए काफी मसाला है । मीडिया के अन्दर होने वाले रण तो फिल्म २६जनवरी को रिलीज़ हो जाएगी लेकिन एक रण और भी है मीडिया में आने के लिए लड़ा जाने वाला रण जिस पर फिल्म बेशक कोई न बनाये लेकिन निसंदेह ये चर्चा का विषय तो जरूर है ..चाहे वो चर्चा चोरी छुपे ही क्यों न हो होती जरुर है । मैं जरा खुले आम कर रही हूँ । इस चोथे इस्ताम्भ कि चारों दीवारों पर जैसे बाज़ार , पूँजी , सत्ता और एक अनकहे स्वार्थ के दरवाजे लगे है जो इन्हें खोल लेता है वो अन्दर जा सकता है और जिसके पास ऐसी चाबियाँ नही है उसके लिए मीडिया किसी जंतर मंतर या भूल भूलैया सरीखा ही है । एक रण ये भी है जो पत्रकारिता को पैत्रेकारिता के रूप में अपनाने पर मजबूर कर देता है । चलने से पहले ही गिरने का एहसास पैरों कि सारी ताकत को भस्म कर देता है । 'क्या करेंगी मीडिया में आकर दुनिया बदल लेंगी या समाज ? ऐसी मेरी हसरत कहाँ जनाब मैं तो खुद ही को बदलूंगी ।' अख़बारों में तमाम ख़बरें और इश्तिहार छपते है लेकिन किसी चैनल या पुब्लिकतिओन में भर्तियाँ हो रही है ये सुचना आपको मीडिया के किसी माध्यम में बमुश्किल ही मिलेगी । यहाँ सूत्र, सौर्स और संबंधों के आधार पर आपकी सेवाए तय की जाती है । फिर खुदी को भुलाकर खुद को बुलंद करने की जो रस शुरू होती है वो भी रण है । व्यवस्था की आलोचना करने वाला मीडिया खुद किस हद तक अव्यवस्थित है इसका तकाजा एडिटर्स गिल्ड से ज्यादा उन तमाम लोगों को होता है जो हर रोज अपना किया धरा पोथी पत्र हाथ में लेकर निकलते है और दफ्तार्रों के दरवाजे से एक प्रश्नचिन्ह साथ लेकर लौट आते है

सोमवार, 18 जनवरी 2010

जरुरत जिंदगी

बड़े बड़े सपने ...सफलताओ की आकांशा ...बहुत कुछ हासिल करने की हसरत ...शोहरत और बुलंदियों तक पहुचने की उम्मीदे ... ये कुछ ऐसे शब्द है जो कब जिंदगी में दाखिल हो गए पता ही नही चला ...और आज जब एक हल्का सा एहसास हुआ तो समझ आया कि इन शब्दों के चलते अक्सर हम जैसे लोगो को जिंदगी वैसे जीने ही नही देती जैसे शायद असल में हमें जीना चाहिए .... एक जिंदगी अनेक इच्छाएँ और हर इच्छा को पूरी करने कि हसरत के लिए कि जाने वाली कसरत ...बस येही कुछ रह जाता है ......सुबह होती है शाम आती है और रात के आगोश में फिर एक नए सपने कि चादर ओड हम आँखें बंद करके भी जागते ही रह जाते है ..लेकिन इन सारी बड़ी बड़ी बातों के बीच कितना कुछ छोटा मोटा होता है जिसके लिए हम सपने नही देखते ...दुआएं नही मांगते लेकिन फिर भी जब मिलता है तो अच्छा लगता है .......जैसे बस का वक़्त पर मिल जाना ...कंडेक्टर का हमसे टिकेट लेना भूल जाना ..यूँ ही कही रस्ते में अचानक किसी पुराने दोस्त का मिल जाना ...जिसे मन ही मन हम पसंद करते हों किसी दिन उसका हमसे बात करना ..चाय कि पत्ती के साथ बिस्किट मुफ्त मिल जाना ....मम्मी का हमारी पसंद कि सब्जी बनाना ....आज जब लिखने बैठी तो पता चला कि फेहरिस्त कितनी लम्बी है ..शायद सब कुछ लिख ही नही पाऊँगी .....आपकी जिंदगी में भी होंगे ऐसे कई पल जो बिना मांगी खुशिओं से सजे होंगे .......लेकिन कहाँ याद रहती है ये बाते .....उम्मीदे ..इच्छाए कुछ इस कदर हावी हो जाती है कि जिंदगी जीने से ज्यादा बड़ा .......इन इच्छाओं कि जरुरत को पूरा करना हो जाता है ...और अंतत होता ये है कि
जिंदगी जरुरत नही बन पाती ......जरुरत जिंदगी बन जाती है

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

हर शक्स यहाँ इतना परेशान क्यों है (२)

वो मैं ही थी जो इस सोच में थी कि हर शक्स यहाँ इतना परेशान क्यों है लेकिन देखिये वो भी मैं ही हूँ जो इस सवाल के जवाब कि एक किश्त यहाँ लिख रही हूँ ....सुनी पढ़ी बातों से नही बल्कि खुद अनुभव करके ...या कहूँ कि
"खुद परेशां होंके हम समझे हकीक़त फ़साने कि " हुआ यूँ कि नौकरी कि तलाश में भटकते हुए मैं एक न्यूज़ चैनल के दफ्तर पहुची ...चैनल का नाम न जाहिर करते हुए सिर्फ ये कहना काफी होगा कि जिस तरह मैं मीडिया मैं संघर्ष के दौर से गुजरती नयी प्राणी हूँ जो पत्रकार बनना चाहती है उसी तरह ये चैनल भी कुछ वक़्त पहले ही चोथे इस्तंभ में शुमार हुआ है .....तो मैं रिसेप्शन पर पहुंची और उसके बाद हुआ संवाद कुछ इस तरह रहा
रिसेप्शनिस्ट - क्या काम है ?
मैं -एच आर डिपार्टमेंट में जाना है
रिसेप्शनिस्ट- किससे मिलना है ?
मैं - यहाँ कोई जॉब ओपनिंग है क्या ?
रिसेप्शनिस्ट-हा है तो आप को किससे मिलना है
मैं -मुझे उन्ही से मिलना है जो नए लोगो का इन्तर्विएव(साक्षात्कार ) ले रहे है
रिसेप्शनिस्ट- मैडम आप अपना रिज्यूमे यहाँ दे दीजिये हम आपको अइसे किसी से
नही मिलवा सकते
मैं -सर मेरे पास कोई रेफरेंस नही है कृपा करके मुझे किसी से एच आर में मिलवा दीजिये ताकि मैं खुद अपना रिज्यूमे उन्हें दे सकू ...
रिसेप्शनिस्ट-आप ज्यादा परेशान हो रही है तो मैं आपको एक बात बताना चाहूँगा कि यहाँ हर रोज १०० -१५०
रिज्यूमे आते है हम सारे ऊपर पहुंचा देते है लेकिन होता उन्ही का है जिनका कुछ जुगाड़ होता है ...हमारी तरफ से आप निश्चिन्त रहो हम तो पहुंचा देंगे ..लेकिन आगे का भगवान् मालिक है ॥
मैं ------------------अब इसके बाद मैं क्या कहती है काफी कोशिशों के बाद भी मुझे किसी से मिलने नही दिया गया और मैं निराश खली हाथ वापस आ गई .....हाथ लगा तो बस ये कुछ शब्द...आज कि एक नयी पोस्ट ....
अब समझ में आता है कि हर शक्स यहाँ इतना परेशान क्यों है ....अगर मीडिया में काम करने वाले अनुभवी लोगो में से कोई भी मेरे इस अनुभव पर रौशनी दाल पाए तो मेरी निराशा के ज्वार को थोडा सहारा मिल जायेगा .........क्योंकि अपना तो कोई जुगाड़ नही है भाई ......कब तक चलेगी ये शीत लड़ाई .......

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...