शनिवार, 1 मार्च 2014

जरूरी कविताएं (1)

1.

तुम्हारे साथ रहकर


तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएं पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आंगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है
कहीं भी एकांत नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गए हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूं
आकाश छाती से टकराता है
मैं जब चाहूं बादलों में मुंह छिपा सकता हूं।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है
यहां तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुजर सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज अशक्त भी है,
भुजाएं अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामथ्यर् केवल इच्छा का दूसरा नाम है.
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।


2.

भूख

जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुंदर दीखने लगता है।

3.

धूल

तुम धूल हो

जिंदगी की सीलन से जन्म लो
दीमक बनो, आगे बढ़ो।

एक बार रास्ता पहचान लेने पर
तुम्हें कोई खत्म नहीं कर सकता।

4.

कितना अच्छा होता है

कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है।


5.

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट

गोली खाकर
एक के मुंह से निकला-
राम।

दूसरे के मुंह से निकला-
माओ-

लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
आलू-

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।

6.

रिश्ता

कितना निराला रिश्ता होता है
पेड़ का चिड़िया से।

वह नहीं जानता
वह उस पर उतरेगी
या यों ही मंडराकर चली जाएगी।
उतरेगी तो कितनी देर के लिए
किस टहनी पर
वह नहीं जानता।

वह यहां घोंसला बनाएगी
या पत्तों में मुंह छिपाकर सो जाएगी
वह नहीं जानता।
उसके पंखों के रंग
उसकी पत्तियों के रंग
जैसे ही हैं या नहीं
वह नहीं जानता।

वह क्यों आती है
क्यों चली जाती है
क्यों चहचहाती है
क्यों खामोश होती है
वह नहीं जानता।

वह क्यों सहमती है
क्यों डरती है
क्यों उसे निर्भय गान से भरती है
क्यों उसके फल कुतरती है
क्यों उसकी आत्मा में उतरती है
वह नहीं जानता।

कल उसके टूट जाने पर
वह कहां होगी
वह नहीं जानता।

कितना निराला रिश्ता है
पेड़ का चिड़िया से
जिसे वह अपना मानता है
और जिसके सहारे हर बार अपने को
नए सिरे से पहचानता है।


6.

पांच नगर प्रतीक

दिल्ली-
कच्चे रंगों में नफीस
चित्रकारी की हुई, कागज की एक डिबिया
जिसमें नकली हीरे की अंगूठी
असली दामों के कैशमेमो में लिपटी हुई रखी है।

लखनऊ-
श्रृंगारदान में पड़ी
एक पुरानी खाली इत्र की शीशी
जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है।

बनारस-
बहुत पुराने तागे में बंधी एक तावीज,
जो एक तरफ से खोलकर
भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है।

इलाहाबाद-
एक छूछी गंगाजली
जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर
और रात में कला के नाम पर
उठायी जाती है।

बस्ती-
गांव के मेले में किसी
पनवाड़ी के दुकान का शीशा
जिस पर इतनी धूल जम गयी है
कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता।

लीक पर वे चलें

लीक पर वे चलें
जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

7.

तिमारदारी

बहुत संकरी सुरंग से होकर
गुजर जाती है सुबह और शाम
रोज-रोज का कमाया धीरज
सोख लेता है आसमान।

उम्र के सिरहाने पड़ी कुर्सी पर
बैठा रहता है अदृश्य,
अर्थ बड़ा है सामथर्य से-
कगार पर पेड़ का खड़ा रहना ही बहुत है।

डालियों पर विश्राम करते पक्षी
और काटती लहरों के बीच एक रिश्ता है
जो पेड़ के गिरने
और पक्षियों के उड़ जाने पर भी टूटता नहीं।

हर अंत से जुड़ जाती है
एक नयी शुरुआत।

सूने लंबे गलियारे में
आते-जाते दुख की
भारी पग-चाप
सुनती रहती हैं तीमारदार स्मृतियां
और देखती रहती हैं
सामने एक भूरा जंगल
जहां हवा शोकवस्त्र पहने घूम रही है।

निराशा की ऊंची काली दीवार में भी
बहुत छोटे रोशनदान सी
जड़ी रहती है कोई न कोई आकांक्षा
जिसमें उजाला फंसा रहता है
और कबूतर पंख फड़फड़ाकर निकल जाते हैं।

कोई सुख बड़ा नहीं होता।
कोई दुख छोटा नहीं होता।

कमरे में बसे
ताप की बांह थाम
चुपचाप
बर्फ से उठती है भाप-
कांपते पैरों पर
वर्तमान का कंधा पकड़
खड़ा हो जाता है बीमार भविष्य
और नये सिरे से चलना सीखता है
लड़खड़ाना अक्सर गिरना नहीं
संभलना भी होता है।

व्यथा की मार से
शब्दों के छिन जाने पर भी
खामोशी बोलती है,
थर्मामीटर में कैद पारा भी
दूसरों के लिए चढ़ता-उतरता है,
कौन जानता है
कौन-सा स्पर्श जादू कर जाए।

प्यार की शक्ति
इतिहास की शक्ति नहीं है।

किन्हीं दो क्षणों के
दो छोटे पत्थरों पर टिक जाती है
एक विशाल मेहराब
और सदियों तक टिकी रह जाती है,
लेकिन गहरी नींव पर
बनी दीवार अक्सर हिल जाती है।

भूकंप नापने के यंत्र पीठ पर लादे खंडहरों में
घूमता रह जाता है विवेक
जब कि दिल की गहराइयों में
बेबुनियाद चीजों की एक बस्ती
खड़ी हो जाती है,
ईश्वर और आदमी की
तीमारदारी के लिए।

8.

वसंत राग

पेड़ों के साथ-साथ
हिलता है सिर
यह मौसम नहीं आएगा फिर।

9.

पथराव

कविता नहीं है कोई नारा
जिसे चुपचाप इस शहर की
सड़कों पर लिखकर घोषित कर दूं
कि क्रांति हो गयी
न ही बचपना
कि किसी चिड़िया पर रंग फेंक कर
चिल्लाने लगूं
अब यह मेरी है।

जबान कटी औरत की तरह
वह मुझे अंक में भरती है
और रोने लगती है,
एक स्पर्श से अधिक
मुझे कुछ नहीं रहने देती
मेरे हर शब्द को
अपमानजनक बना देती है।
जितना ही मैं कहना चाहता हूं
स्पर्श उतना ही कोमल होता जाता है
शब्द उतने ही पाषाणवत्।

आग मेरी धमनियों में जलती है
पर शब्दों में नहीं ढल पाती।
मुझे एक चाकू दो
मैं अपनी रगें काटकर दिखा सकता हूं
कि कविता कहां है।

शेष सब पत्थर हैं,
मेरी कलम की नोक पर ठहरे हुए
लो, मैं उन्हें तुम सब पर फेकंता हूं
तुम्हारे साथ मिलकर
हर उस चीज पर फेंकता हूं
जो हमारी तुम्हारी
विवशता का मजाक उड़ाती है।

मैं जानता हूं पथराव से कुछ नहीं होगा
न कविता से ही।
कुछ हो या नहो
हमें अपना होना प्रमाणित करना है।

10.

अंत में

वह बिना कहे मर गया
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से-
कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।


-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

3 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सभी कविताएँ बहुत ही प्रभाव छोडती हैं ... लाजवाब ..

बेनामी ने कहा…

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संजय भास्‍कर ने कहा…

सलाम। बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आया हूं। व्यस्तताओं और उलझनों में फंसा मन आपकीकविता में इस कदर उलझ गया कि खुद को भूल गया। सभी कविताएँ बहुत ही अच्छी लाजवाब बधाई।

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