सोमवार, 2 दिसंबर 2013

प्रेम लुप्त हो चुका है

प्रेम लुप्त हो चुका है
डायनासोर से भी बहुत पहले।

मोहब्बतों की मौत के साक्षी रह चुके हैं
खुद प्यार करने वाले।
अब सिर्फ इश्क फरमाया जा रहा है।
...और जब हमारी औलादें रखेंगी
दिल की दहलीज पर कदम
तब युद्ध होगा
लुप्त हो चुके प्रेम को
फिर से जीवित करने का युद्ध
क्योंकि ऊब जाएंगी पीढ़ियां इश्क फरमाकर
तड़पेंगी प्यार के लिए पानी से ज्यादा
बीमारियों का इलाज बन जाएगा प्रेम
नसीहत में कहा जाएगा-
सुबह-दोपहर-शाम
खाने के बाद
खाने से पहले

आपको देना है
इन्हें अपना स्नेह भरा वक्त, प्रेम भरे पल।
प्रेम की खोज होगी
प्रेम पर शोध होंगे
अध्ययन किए जाएंगे
कि आखिरी बार कब, कहां, किसने किया था वह प्रेम,
जिसके अवशेषों से बचाया जा सके प्रेम का अस्तित्व

तब शायद किसी को हमारा भी दिल कहीं टूटा हुआ मिले...

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

खत के नाम एक खत


इस दुनिया के ऐसे बहुत से काम हैं, जो मैंने कभी नहीं क‌िए हैं।
मगर इन कामों में से एक काम ऐसा है जो मैं जल्द से जल्द करना चाहती हूं।
अगर कोई कहे कि यह मेरी जिंदगी का आखिरी दिन है तो भी शायद मैं सबसे पहले उसी काम को निबटाउंगी।
मैं खत लिखूंगी। जितना समय मेरे पास बचा होगा उतने खत।

सबसे पहला खत शायद एक प्रेम पत्र होगा।
जिसमें वो सारी बातें लिखी जाएंगी जो एसएमएस की शब्द सीमा के कारण कहीं नहीं जा सकीं।
या नेटवर्क फेल हो जाने के कारण सही समय पर सही व्यक्ति तक पहुंच नहीं सकीं।
और वो सारी बातें जिन्हें कहने से पहले खुद को रोक लिया गया ये सोचकर कि कहीं शब्दों की धार इस कच्चे और नाजुक रिश्ते की डोर को तोड़ न दे।
और वो सारी बातें जिन्हें कह देने के बाद शायद हमेशा के लिए अटूट बंधन में बंध सके अधूरा रह गया प्रेम।

दूसरा खत मां-पापा को लिखा जाएगा
इस खत में वो सारी बातें होंगी जिनके बारे में दफ्तर से घर लौटने के रास्ते में सोचा गया मगर घर पहुंचकर जिन पर बात नहीं हो सकी।
वो सारी बातें जिन्हें कहने से पहले यह कहकर बात टाल दी गई कि आप नहीं समझोगी मम्मी।
आपको क्या पता पापा?
और आखिर में यह बात भी जरूर लिखी जाएगी कि दिन के 12 घंटे घर से बाहर और घर आने के बाद वाले 12 घंटे में से मुश्किल से सिर्फ एक घंटा आपके साथ बिताने के बावजूद भी आप मेरी जिंदगी के सबसे अहम लोग हैं। सबसे खास। सबसे अनमोल।

तीसरा खत दोस्तों को
इस खत में लिखने के लिए ढेर सारी बातें होंगी। जिन्हें काफी देर-देर तक याद कर-कर के लिखना होगा।
शायद इस बहाने हर एक दोस्त के बारे में सोचने का भी मौका मिल जाए।
शायद उसकी कोई ऐसी बात भी याद आ जाए जिस पर पहले कभी ध्यान ही नहीं गया होगा।
यह खत शायद उन आंसुओं से सील जाए तो हंसते-हंसते इस पर गिरते जाएंगे, इसे लिखते वक्त।
यह खत शायद बहुत मजेदार होगा।


चौथा और आखिरी खत कुछ अजनबियों के नाम
इस खत में वो लोग शामिल होंगे जिनके बारे में सोचने के लिए कभी वक्त ही नहीं निकाला गया। मगर वक्त पड़ने पर ये अजनबी इस तरह काम आए जैसे कोई अपना या शायद अपना भी नहीं।
वो दो लड़के जिन्होंने ग्रेजुएशन का फॉर्म भरने की आखिरी तारीख पर और ऐसे समय में जब मुझे ड्रॉफ्ट बनवाने की कोई जानकारी नहीं थी, मुझे ड्राफ्ट बनवाकर दिया।
वो एक आंटी जिन्होंने मुझे उस वक्त अपने सुरक्षा घेरे का अहसास कराया जब मैं पहली बार रात में अकेले बस का सफर कर रही थी।
वो एक आदमी जिसने मुझे सड़क पर अकेले देखकर कमेंट कर रहे एक लड़के को डांट लगाई।
और भी न जाने कितने लोग...
अफसोस कि यह खत अपनी सही जगह तक नहीं पहुंचाए जा सकेंगे।
कहां से ढूंढे जाएंगे इन अपने से अजनबियों के पते।
मगर मैं ये खत भी जरूर लिखूंगी।

पांचवा खत होगा उनके नाम जिनके पास मैं जा रही हूंगी - एन इनविजिबिल पावर कॉलड 'गॉड'  (इस आर्टिकल को लिखने के लिए दी गई सिच्युएशन के अनुसार)
वैसे जिनके पास जाना ही है उन्हें खत लिखने की क्या जरूरत..
मगर दूर रहकर उनसे की गई प्रार्थनाओं का जो हिसाब-किताब अक्सर गड़बड़ाता रहा है
उस पर बात करना बहुत जरूरी है...
वो प्रार्थनाएं जो हजार बार करने पर भी पूरी नहीं की गईं
और वो जिन्हें बिना मांगे ही ...
उन हालातों के बारे में भी तो बताना है जब उनसे विश्वास ही उठ गया
और उनके बारे में भी जब लगा कि वह हैं और हमें देखते हैं, सुनते हैं और जवाब भी देते हैं।

ए लेटर टू गॉड तो बनता है एक बार दुनिया छोड़ने से पहले।

मगर...
क्या ये खत लिखे जा सकेंगे?
क्या यह मालूम चल सकेगा कि हमारी जिंदगी का आखिरी दिन कौन-सा है?
और अगर मालूम चल भी जाए तो क्या हम खत लिखेंगे।
लिखेंगे तो कैसे लिखेंगे हम खत? क्या हमें आता होगा खत लिखना?
खत लिखने का चलन भी तो खत्म हो चुका है और इसी के साथ
न जाने कितना कुछ खत्म हो चुका है...

क्या एक कोशिश फिर से नहीं की जानी चाहिए
क्या आज ही हमें नहीं लिखना चाहिए अपनी जिंदगी का पहला खत...

रविवार, 15 सितंबर 2013

गुनाहों का देवता न बनाएं उन्हें

देश ही नहीं दुनिया भर से एक ही आवाज सामने आई- फांसी। 
आवाज अपनी मंजिल तक पहुंची और फांसी का फैसला सामने आया।
जिस उम्मीद से न्यायपालिका की तरफ देखा जा रहा था, वह उम्मीद पूरी हुई।

मगर फिर भी न जाने क्यों मन को चैन नहीं मिला।
वजह यह कि कुछ ऐसी बातें फिर से देख ली, फिर से पढ़ ली और फिर से समझ लीं कि फांसी के फैसले से जो ठंडक दिल को मिली थी उससे भी कंपकंपी होने लगी।
 
पहला तो यह कि फांसी का फैसला सुनने भर पर इतना फोकस था कि ध्यान ही नहीं रहा, यह फांसी पहले सिर्फ कागज पर होगी और उसे हकीकत बनता देखने के लिए लंबा इंतजार भी करना पड़ सकता है।
हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट-मर्सी पिटीशन और इसके बाद जब हर स्तर पर यह मान लिया जाएगा कि सच में एक जघन्य अपराध के लिए दिया गया यह फैसला सही है तब जाकर फांसी की सजा मुकम्मल होगी।
बेशक यह एक कानूनी प्रक्रिया है, जिस पर अमल होना जरूरी है और न्यायपरक भी।
 
चिंता, डर और परेशानी सिर्फ इसी बात को लेकर है कि कहीं इस एक मामले के दोषियों को फांसी तक पहुंचते-पहुंचते इतना वक्त न लग जाए कि कई दामिनियों के दमन की कहानी हमारे सामने हो और हम बेबस होकर सिर्फ इंतजार ही करते रह जाएं।
डर, बेवजह भी नहीं है।
पहले आसपास की घटनाएं डराती थी।
फिर खबरें पढ़कर डर लगने लगा
फिर लगातार बढ़ते हुए आंकड़े सामने लगे
और अब अध्ययन भी...
 
''केवल झारखंड में ही पिछले एक महीने के दौरान बलात्कार के 818 मामले दर्ज दिए गए हैं।'' (बीबीसी हिंदी)
 
''एशिया के कुछ हिस्सों में किए गए हाल के एक अध्ययन के मुताबिक 10 में से एक व्यक्ति ने माना कि उसने एक महिला के साथ बलात्कार किया है।''
 
दूसरा मुद्दा मानवअधिकारों की रक्षा करने वाले लोगों का है। ये लोग आज भी न जाने अपनी पेशेवर मजबूरी या फिर किसी और वजह से यही राग अलाप रहे हैं कि बलात्कारियों के भी मानवाधिकार होते हैं।
जिस समाज में आज भी एक तबका औरत को इंसान जैसे अधिकार नहीं देता उसी समाज में एक औरत का बलात्कार करने वाले व्यक्ति के मानवाधिकार की बात करना......यह तर्क सुनने में ही इतना घटिया लगता है कि इसे विडंबना भी नहीं कहा जा सकता।
 

तीसरी बात उन लोगों की है जिन्हें लगता है कि दोषियों को सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए लिहाजा उनकी सजा भी कम होनी चाहिए।
इस बात का जवाब एक दृश्य की कल्पना से देना ज्यादा बेहतर होगा-
 
मान लीजिए आपके हाथ में गर्म चाय का कप है, सामने से कोई अपनी मस्ती में आ रहा है और उसका धक्का आपको लग गया।
गर्म चाय आपके हाथ पर गिर गई और हाथ जल गया।
आपको गुस्सा आएगा। आप चिल्ला भी सकते हैं।
सामने वाला माफी मांग सकता है।
आप थोड़ा बहुत चिल्ला कर लड़-झगड़कर माफ भी कर सकते हैं।
 
अब मानिए कि आपके हाथ में गर्म चाय का कप है और सामने से आने वाला व्यक्ति यह सोचकर ही आ रहा है कि वह आपको इस तरह धक्का देगा कि चाय आपके हाथ पर गिरे और हाथ जल जाए।
वह आता है और अपनी योजना के मुताबिक आपका हाथ जलाकर भाग जाता है।
आप क्या करेंगे।
आप सिर्फ चिल्लाएंगे नहीं।
उसके पीछे दौड़ेंगे। आसपास के लोगों को आवाज लगाएंगे। उसे पकड़वाएंगे।
चाहेंगे कि उसे सजा हो। शायद ही आप वहां पश्चाताप की गुंजाइश तलाशने बैठें।
 
 
जिन लोगों की बात हम यहां कर रहे हैं वह दूसरे दृश्य से संबंधित हैं।
उन्होंने गलती नहीं की है गुनाह किया है।
 

स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है और उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में भी यह स्पष्टता सार्थक होगी
और इंसाफ रास्ते में ही दम नहीं तोड़ देगा। 

सोमवार, 19 अगस्त 2013

भावनाओं की अर्थव्यवस्था

मुझे कुछ मिलने वाला था
...नहीं मिला
मैं दुखी हूं।
.................

उसके पास कुछ था
...छिन गया
वह दुखी है।
...............

तुम्हारे पास सब कुछ है
तुम्हारी हर दुआ कुबूल है
तुम्हारा हर ख्वाब सच है
अब पाने को कुछ नहीं है
तुम दुखी हो।
..............

दुख भी अजीब चीज है
................

मांग शून्य है
और उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है
.................

भावनाओं की अर्थव्यवस्था डगमगाने वाली है
..................

किसी कवि से दुखों का विज्ञापन करवाना चाहिए।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

जब शब्द मरते हैं

एक आदमी था
बिलकुल वैसा ही जैसा होता है एक आदमी
मगर उस आदमी को सही-सही याद था
अपने जन्म का समय, तारीख और जगह।

उसने सुना एक जाने-माने विद्वान पंडित के बारे में।

वह उसके पास गया अपनी
किस्मत और उसका हुनर आजमाने

आदमी के हाथ की रेखाओं को पढ़ते ही 
विद्वान ने बता दिया उसके परिवार, सेहत, दाम्पत्य और करियर का हाल। 

समझा दिया आने वाली 
हर विपदा से बचने का उपचार

वह कब तक जीएगा
और मरने से पहले क्या-2 हासिल करेगा, 
इस बात का भी हो गया उस आदमी को ज्ञान

मगर परेशान हैं वह आदमी 
पिछले कुछ दिनों से बहुत।

बहुत हंसता है
और रो पाने की हर कोशिश
जैसे नाकाम हो गई है।

बहुत चुप रहता है
और कह दे किसी से ये चाहत
जैसे श्मशान हो गई है।


आदमी की जिंदगी और मौत की तिथ‌ि
बताने वाले विद्वानों 
को शायद नहीं मालूम हो पाता है
शब्दों की मौत का समय

इसका अहसास खुद समय करवाता है
जैसे अभी-अभी उस आदमी को हुआ है अहसास...

उम्मीद नामक एक शब्द मर चुका है उसके जेहन में 

और अब परेशानी की वजह बन रही है
मर चुकी उम्मीदों की भटकती आत्मा


विद्वानों को थोड़ा और विद्वान होने की जरूरत है शायद

गुरुवार, 20 जून 2013

मुझे धूप चाहिए

मुझे धूप पसंद है, उसने कहा था।
और मैंने तपाक से उसके मुंह की बात छीनकर कर उसे भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था, '' ‌छ‌ि तुम्हें धूप  पसंद है, मुझे तो बा‌र‌िश पसंद है'' 
और फिर उसने भी तुरंत मेरी बात को लपक कर कहा था, ‘’मुझे बारिश बिलकुल पसंद नहीं है।‘’
वैसे बातें करने में मैं खुद भी बहुत माहिर हूं, लेकिन उसके तर्कों के आगे जीतना अक्सर मेरे लिए मुश्किल हो जाता था। उस दिन भी उसने मुझे बारिश के सैकड़ों नुकसान और धूप के हजारों फायदे गिना दिए थे। जवाब में मेरे पास सिर्फ वही घिसी-पिटी नॉनसेंस बकवास थी, जिसमें बारिश के होने से दो दिलों का धड़कना, किसी के लिए तड़पना और तन-मन में कुछ-कुछ होना शामिल था। हमारी बहस में कौन जीता, ये बताने के लिए किसी जज की जरूरत नहीं थी, क्योंकि हर बार की तरह उसकी जीत तय थी।
हारना यूं तो किसी को भी पसंद नहीं होता, लेकिन मुझे हारने से सख्त चिढ़ है। मैं हार बर्दाश्त ही नहीं कर सकती। उससे बात करने की सबसे खास और दिलचस्प बात ही ये थी कि उससे बातों में हारकर भी मुझे बुरा नहीं लगता था। ऐसा इसलिए होता था कि मैं हार कर भी जीत जाती थी, आखिर बिना कोई किताब पढ़े, बिना घंटों इंटरनेट पर आंखें गड़ाए मुझे इतनी सारी बातें जो पता चल जाती थी। चलते-फिरते विकीपीडिया की तरह था वो। अब इससे पहले कि आपका ध्यान असल मुद्दे से ज्यादा इस बात पर जाए कि वो कौन था तो वो मेरा एक दोस्त था। जिससे अक्सर साहित्य, राजनीति, शहर, समाज, देश, दुनिया, प्यार और सपने जैसे विषयों पर घंटों चर्चा हुआ करती थी। अब काफी समय से बात नहीं हुई है इसलिए लिखते वक्त वाक्यों में भूतकाल का भावना आ गई। अब मुद्दा यहां हमारी बातें या दोस्ती नहीं है, मुद्दा है बारिश और धूप।

मुझे हमेशा से बारिश बहुत पसंद रही है। हालांकि ऐसा भारत में कई लोगों के साथ है और खासकर लड़कियों के साथ। हो सकता है कि बॉलीवुड की फिल्मों का असर हो। लेकिन ऐसा सच में है।
चलो, अब बारिश का पसंद होना या न होना अपनी जगह है, लेकिन किसी को धूप पसंद है, ये बात समझना मेरे लिए अब से पहले तक काफी मुश्किल था।
कहते हैं न वक्त बड़ी चीज है। सब समझा देता है। हर बात और हर जज्बात। पिछले कुछ दिनों में काफी कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरी सोच को या कहिए कि पसंद पर ही प्रश्नचिंह् सा लगा दिया है। अब ये सोचने से पहले कि मुझे बारिश पसंद है, खुद को भीतर से कई बार खंगालना पड़ता है।

हाल ही में हम वैष्णो देवी की यात्रा पर गए। वहीं से कुछ किमी की दूरी पर एक पहाड़ी एरिया है पटनीटॉप। हर तरफ पहाड़ और हरियाली। जरा सा सिर ऊपर उठाओ तो लगता है कि बादल आपको छूकर जा रहे हैं। कहीं लगता कि पेड़ों ने बादलों की टोपी पहन रखी है। कहीं लगता है कि पहाड़ बादलों का कंबल ओढ़कर सो गए हैं। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वहां मौसम बदल रहा था एक पल में बारिश होती थी, एक पल में रुक जाती थी। दिल्ली के 47 डिग्री टेम्परेचर के बाद वहां जाना किसी जन्नत से कम नहीं था। लेकिन सिर्फ एक दिन वो भी पूरा नहीं, समझ लीजिए एक दिन के सिर्फ कुछ घंटे वहां बिताकर, पूरा समय बारिश को महसूस कर उसमें रमकर अचानक मुझे धूप की कमी महसूस होने लगी। ऐसा लगा जैसे मुझे तुरंत एक धूप का टुकड़ा मिल जाए और मैं उसे अपने सिर पर रख लूं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जब हम रात को तकरीबन 11 बजे वहां से लौटे तब बारिश और भी तेज हो चुकी थी। और मैं, जिसे हजार परेशानियों में भी अगर कोई चीज खुशी दे सकती है तो वो है बारिश, वो लड़की धूप के लिए तरसते हुए वापस लौटी थी। उस वक्त, वक्त शायद मुझे समझा रहा था कि धूप की अहमियत क्या है।

अहमियत तो शायद बारिश और धूप दोनों की है। लेकिन फर्क ये है कि बारिश सिर्फ अमीरों का मौसम है। गरीब और सड़क पर चलने वाले लोगों को जीने के लिए धूप चाहिए होती है। धूप में पसीना बहता है तो उनके घर-परिवार के लोगों की जिंदगी सुकून से चलती है, लेकिन बारिश में जब घर की छत से पानी टपकता है और कमजोर चप्पलें कीचड़ में फंसकर टूट जाती हैं तो जीना मुहाल हो जाता है। फिर बेशक इन सब बिंबों के बीच मुझ जैसा कोई व्यक्ति अपने किराये के मकान की बालकनी में बैठे-बैठे हाथों को जाली से बाहर निकालकर भिगोते हुए कितने ही बेमानी ख्वाब क्यों न सजा रहा हो...

और इन सब भावनात्मक बातों से ज्यादा अहम और बड़ी घटना उत्तराखंड में बारिश से हुई तबाही है, जिसके आगे ऊपर लिखे सारे कारण एकदम बौने हैं...

रविवार, 9 जून 2013

हर शहर में एक समंदर होना चाहिए...

मुझे नहीं मालूम...क्यों
लेकिन कुछ तो बात है इस शहर में
जो हमेशा से ये सपनों का हिस्सा रहा है।
और जब सपने सच
होकर सामने खड़े होते हैं
तो भावनाएं कहीं छूमंतर हो जाती हैं
शब्द कहीं लुप्त
और उस वक्त का
हर एक अहसास जैसे अमर हो जाता है।
ऐसा ही कुछ हुआ
बस अभी चंद घंटों पहले
जब मैंने मुंबई में कदम रखे।
एक अनजान शहर के बारे में
कुछ भी कहने के लिए
कुछ घंटे बेहद नाकाफी हैं
लेकिन यही इस शहर की खासियत है शायद
कि यहां सिर्फ कुछ पल बिताकर भी
शब्दों में अच्छा-खासा निवेश किया जा सकता है।
!!!
आसपास, चारों तरफ, दूर-दूर तक फैले अथाह पानी के बीच
भी जैसे... कोई जमीन तलाशकर अपने पैरों पर खड़ा हो...
...कुछ ऐसा ही शहर है मुंबई।
एक जगह
हर पल जमीन को अपनी आगोश में लेने की कोशिश करने वाला
समंदर है तो
दूसरी जगह
आसमान को अंगूठा दिखाती इमारतें।
जैसे पूरी कायनात से बैर पालकर ही ये शहर जिंदा है
और जिंदादिली की मिसाल भी
तभी तो यहां आने वाले किसी भी शख्स की जिंदगी
किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं होती है।
बेशक असल में हर कोई हीरो न
हीं बन पाता है
लेकिन यहां रहकर जिंदगी जीना किसी के लिए भी हीरोगिरी से कम नहीं है।
बड़ी-बड़ी उम्मीदें लेकर लोग यहां आते हैं...
और ये उम्मीदें उन छोटी-छोटी खिड़कियों से बाहर झांकती दिखाई देती हैं
जो यहां बनीं
और टूटने के लिए बेताब होते हुए भी
कई सालों से जस की तस खड़ी इमारतों में
बिलकुल वैसा ही दर्जा रखती हैं,
जैसा कि किसी सिनेमाघर में बालकनी की सीट।
यहां रहने वालों की दुनिया एक दूसरे से काफी अलग है
लेकिन कुछ चीजें बिलकुल एक जैसी हैं...

यहां टैक्सी चलाने वाले भैय्या से लेकर बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमने वाले सेलिब्रिटी तक
हर किसी के लिए इस शहर की जिंदादिली एक मिसाल है
और यहां लगने वाला घंटों का लंबा ट्रैफिक जाम... एक कभी न खत्म होने वाली परेशानी।
इसके आगे कुछ भी कहने से पहले मुझे अंग्रेजी की एक कहावत का सहारा लेकर बात खत्म कर लेनी चाहिए क्योंकि अंग्रेजी में कहते हैं कि

 "The most amazing travellers were to humble to write about it"

यहां मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है शायद
लेकिन एक बात जरूर है कि मुंबई से आने के बाद लगता है कि
हर शहर में एक समंदर होना चाहिए...

शनिवार, 11 मई 2013

भरोसे को तो बदनाम मत कीजिए


वे कच्ची उम्र के नहीं थे।
जवानी को पार करके काफी आगे निकल चुके थे।
दो जवान बच्चों की शादी कर चुके थे।
अच्छे खासे बुजुर्ग व्यक्ति थे।
बातों ही बातों में कमिटमेंट की बात चली और उन्होंने तपाक से कहा-
कमिटमेंट तो होता ही तोड़ने के लिए है। फिर इतना क्या डरना!
अब मुद्दा यहां यह नहीं है कि किस मुद्दे पर उन्होंने यह बात कही।
मुद्दा यह है कि उन्होंने यह बात कही।
उन्होंने यानी 65 बरस के एक ऐसे व्यक्ति ने जो अपनी पर्सनल और प्रोफेशनल जिंदगी में उम्र के इस पड़ाव पर भी पूरी तरह सक्रिय है।
मैं यहां सिर्फ यह सब इसलिए नहीं लिख रही कि
मुझे उनकी बात बुरी लगी
या
बुजुर्ग उम्र के व्यक्ति का ऐसी बात कहना शोभा नहीं देता।
मैं यहां यह सब इसलिए लिख रही हूं कि 
बच्चे, बूढ़े, जवान
अमीर गरीब
महिला पुरुष
हर उम्र, लिंग और वर्ग का व्यक्ति यह बात अच्छे से मान चुका है कि कमिटमेंट होता ही तोड़ने के लिए है।

कैसी मान्यता है ये!

कहां से आई है?
क्या हमारे ही दिए हुए धोखे, दगा और अविश्वास ने हमारे ही आसपास के लोगों को ऐसा बना दिया है।
या फिर एक रस्म शुरू हो गई है इनसानों के बीच 
उन बादलों की तरह जो जेठ की दोपहरी में गरज-गरज कर जी को जलाते हैं, मन को ललचाते हैं और बिना बरसे ही चले जाते हैं।
आसमान में बादल को देखकर भी धरती के सूखे रह जाने जैसा ही होता है वह पल
जब हम आप एक दूसरे को दिलाए गए भरोसे पर खरे नहीं उतरते।


भाषण देने का तात्पर्य बिलकुल नहीं है।

लेकिन एक टीस है
जिसे निकालने की शैली में भाषणनुमा वाक्य घुसपैठ करते जा रहे हैं
और मैं उन्हें रोक नहीं पा रही हूं। 


बात सिर्फ प्यार, मोहब्बत के कमिटमेंट की नहीं है।

बात उस बात की है
जब एक कामयाब बेटा अपने बूढ़े मां-बाप से हर‌ महीने मिलने और घर खर्च के पैसे देने का वादा करता है और किसी भी महीने मिलने नहीं आता।


बात उस बात की है 

जब आज की कामकाजी मां हर दिन अपने बेटे को यह विश्वास दिलाती है कि वह उसके साथ दफ्तर से आकर जरूर खेलेगी, लेकिन हर दिन वह घर आकर अपनी थकान को ज्यादा प्रमुखता देती है और बच्चे का भरोसा टूटता जाता है।


बात उस बात की है

जब एक लड़का एक लड़की को प्यार करने के साथ-साथ उस शादी के भी सपने दिखाता है, जिसका न हो पाना पहले से तय होता है।


बात उस बात की भी है

जब एक लड़की यह जानने के बावजूद कि वह अपने प्यार और मां-बाप में से हमेशा मां-बाप को ही चुनेगी, लड़के को अपने प्यार में बांधे रखती है, पिंजरे के पंछी की तरह।


बात उस मामूली सी बात की भी है

जब हम यूं ही अपने साथ काम करने वाले को विश्वास दिलाते रहते हैं, उसकी मदद जरूर कर देंगे। उसके काम की चीज जरूर लाकर दे देंगे।
और हफ्ते दर हफ्ते 
''ओह मैं तो भूल ही गई''
''अरे कल पक्का''
जैसे संबोधनों और खिलखिलाहट में सच को छिपाते रहते हैं।


आखिर में बात सिर्फ इतनी है कि आप मत कीजिए वह काम जो आप नहीं करना चाहते

नहीं कर सकते
चाह कर भी नहीं
लेकिन कम से कम भरोसे को तो बदनाम मत कीजिए।
माना कि उम्मीद पर दुनिया कायम है
लेकिन उम्मीद भी तो ऐसी हो, जिसे पचाने के लिए कायम चूर्ण की जरूरत न पड़े।

''

मैंने भाषणबाजी न करने का भरोसा नहीं दिलाया था। 
''
;)






शनिवार, 27 अप्रैल 2013

चुन्नी को लपेटने का फर्क था सिर्फ



बचपन में सजने-संवरने का बहुत शौक था। अक्सर मां की चुन्नी को साड़ी बनाकर पहना करती थी और शीशे के सामने घंटों खुद को देखा करती थी। फिर एक दिन यूं ही चुन्नी छोटी लगने लगी और सिर से लपेट कर नीचे लाते-लाते चुन्नी का बुर्का बनाना आ गया। फिर तो सहेलियों को भी सिखा दिया। उसके बाद अक्सर हमारे घर-घर के खेल में एक सहेली चुन्नी की साड़ी बनाकर पहनती तो एक चुन्नी का बुर्का बनाकर। जब तक घर-घर का खेल रहा, ये सिलसिला यूं ही चलता रहा।
जब खेलने की उम्र चली गई तो इस सिलसिले का सच सामने आया।
सच ये था कि -
चुन्नी एक ही थी।
लपेटने के तरीके दो थे।
दो तरीकों में दो धर्म घर कर बैठे थे,
ये बात घर-घर के उस खेल में कभी महसूस नहीं हुई थी।
आज भी महसूस नहीं होती,
बल्कि आंखों के सामने दिखाई देती है।
न मैंने आजादी की लड़ाई देखी है
न 84 के दंगे।
मैं अभी कुछ ही दिन पहले देख कर आई हूं पाकिस्तान से दिल्ली आए 480 हिंदू परिवारों को।
जो पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते।
कहते हैं - पाकिस्तान में मुसलमान उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं, हिंदुस्तान में रहकर मर जाएंगे, लेकिन पाकिस्तान नहीं जाएंगे।
मैंने अभी-अभी देखी है हिंदु-मुस्लिम दंगों के गवाह और शिकार बने लोगों पर एक फिल्म-फिराक।
और मैं कई मरतबा पड़ी हूं इस बहस में कि क्यों मुझे शाहरुख खान पसंद है।
क्यों मैं तारीफ कर बैठती हूं मुसलमानी लड़कियों की तहजीब और नजाकत की।
क्यों गालिब से लेकर फराज तक की शायरी के ज्यादा से ज्यादा कसीदे मुंहजबानी याद कर लेने की जंग छिड़ी रहती हैं मेरे दिमाग में।
क्यों आखिरकार में हर साल कोशिश करती हूं उर्दू की क्लास में दाखिला लेने की, जो मेरे समय से मेल न खा पाने के कारण हर साल अधूरी रह जाती है।
ये महज इतेफाक है।
ये महज मेरे जज्बात हैं।
ये महज पसंद की बात है।
लेकिन मेरे आसपास के लोग इसे एक विद्रोही रंग दे देते हैं।
कहते हैं या चिढ़ाते हैं,
लेकिन मेरी हर बात पर अपनी यही बात दोहराते हैं कि
-तुम्हें तो मुसलमान ही पसंद हैं। पाकिस्तान चली जाओ।
मानो ये पसंद
पसंद नहीं
गुनाह है।
शुक्र है माहौल इतना भी गर्म नहीं है कि इस बात पर दंगे हो जाएं।
वरना शायद मैं भी कत्ल कर दी गई होती।
वैसे शायद कत्ल होने से ज्यादा खतरनाक होता होगा, कत्ल होते देखना।
जैसा कि पाकिस्तान से दिल्ली के बिजवासन में आए हिंदु लोगों के बीच बैठी एक पांच साल की बच्ची दिव्या भारती ने मुझे बताया था कत्ल का आंखों देखा हाल। उसकी मां उसे चुप रहने का इशारा कर रही थी। जो कत्ल उसने होते देखा था, उसकी वजह भी उसे मालूम थी, ये कत्ल होते देखने से भी ज्यादा खौफनाक था।
क्यों मारा तुम्हारे मामा के बेटे को।
वो मुसलमान था ने इसलिए।
.
.
.
इस जवाब के बाद सवाल भी दफन होने से पहले ये पूछ रहे थे मुझसे
कि उन्हें कब्र दी जाएगी या उनकी चिता जलाई जाएगी...
.
.
.
मेरा इतिहास बहुत कमजोर है
शायद गणित भी।
मगर जितनी भी तालीम है
उसे पूरा समझने-बूझने के बाद भी मुझे जाति और धर्म का भेद समझ नहीं आता।
इस बात का दुख मनाने से पहले कि कोई मुसलमान हिंदु को मार रहा है
या कोई हिंदु, एक नहीं हर मुसलमान से नफरत कर रहा है
मुझे इस बात का खौफ ज्यादा है कि
हम सब ही हिंदु मुसलमान से पहले
सिर्फ इन्सान हैं
और सिर्फ इन्सान ही हैं
इसके बाद में भी
ये बात कुछ लोग बिलकुल नहीं समझ रहे हैं।


काश कि इन लोगों की यादाश्त खो जाए और ये फिर से सिर्फ और सिर्फ इन्सान हो जाएं। 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

तुम्हारी अनुपस्थिति


तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है
जैसे वो लकीर
जिस तक पहुंचकर
एक-दूसरे में सिमट जाते हैं
धरती और आसमान।

तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है
जैसे वो अंधेरा
जिसमें गुम हो जाता है
हर चेहरा और
मैं बना सकती हूं अपनी
कल्पना के घेरे में उस
उस वक्त तुम्हारा अक्स।

तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है
जैसे पानी का रंग
जो दिखता नहीं है
या होता नहीं है
यह अब तक तय होना बाकी है।

रविवार, 17 मार्च 2013

कुछ छोटी कविताएं

दुख
तुम एक घना जंगल हो कविताओं का।


आंसू
मैं चाहती हूं कि तुम मेरे जेहन में जाकर कहीं छिप जाओ
और भीतर से इतना गिला कर दो मुझे कि कोई गम
सोख न पाए।


शिकार
मैं नहीं करना चाहती तुमसे प्यारमुझे डर है कि तुम मेरी नफरतों का शिकार हो जाओगे।


धोखा
हम थक चुके हैं
प्यार कर-कर के
और उसके बाद
दिल में नफरत भर-भर के
आओ, एक-दूसरे को धोखा देने के लिए
हम एक-दूसरे के करीब आएं अब।


मैं
पतंग भी मैं
डोर भी मेरे हाथ में
उड़ान भी मेरी
आकाश भी मेरा
और अब कट-कट कर
गिर भी रही हूं मैं।

गुरुवार, 14 मार्च 2013

11 मिनट और बेइंतहा मोहब्बत के अनंत पल

“प्यार”
को जिंदगी में कितनी जगह दे पाई हूं, ये तो मैं खुद भी नहीं जानती। लेकिन बातों में प्यार का मुद्दा अक्सर शामिल रहता है। एक दिन यूं ही जब प्यार बातों के बीच आया (ये भी कह सकती हूं कि प्यार के बीच में बातों को लाया गया) ,,,,, तब एक किताब का नाम सामने आया, “11 मिनट्स”।


दुनिया भर में मशहूर ब्राजील के लेखक पाओलो कोहेलो की सच्ची घटना पर लिखी गई एक किताब।
अल्केमिस्ट को पढ़ने के बाद पाओलो कोहेलो की शैली से ठीक-ठाक जान-पहचान हो गई थी। फिर भी इस किताब को सुनते ही, ढूंढने, खरीदने और जल्द से जल्द पूरा करने की वजह थी, वो एक लाइन जो इस किताब का जिक्र करते हुए मुझे बताई गई-
“ये एक लड़की की कहानी है, जो वेश्या बन जाती है (साथ में परिस्थितिवश लिखना जरूरी नहीं लगा, क्योंकि शौक से शायद ही कोई लड़की वेश्या बनना चाहती होगी) लेकिन जिदंगी में कई लोगों से शारीरिक संबंध बनाने के बाद भी उसे वह सुख और संतुष्टि नहीं मिल पाती, जो एक चित्रकार से प्यार करके उसके बिना छुए मिल जाती है।“


सुनने में यह काफी दिलचस्प और रहस्यमयी लगता है और खास बात ये है कि पढ़ने के बाद भी यह कहानी उतनी ही दिलचस्प और रहस्यमयी है। इसमें एक लड़की मारिया का बचपन है। उसका पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा और ....... वां प्यार है। उसके सपने हैं। उसकी एडवेंचर की दुनिया है। उसकी किताबें हैं। उसकी डायरी है। उसका अकेलापन है और फिर एक ऐसा सफर है, जिसमें उसे वेश्या बनना पड़ता है। इसी सफर में आने वाले उतार-चढ़ाव और ज्वार भाटे को मारिया अपनी डायरी में दर्ज करती है। उसी डायरी से कुछ बातें ---


“सबसे दिलचस्प लोग आखिरकार साथ छोड़ ही जाते हैं।“

“प्यार एक खतरनाक वस्तु का नाम है।“

“इलाज, दर्द से भी अधिक पीड़ादायक है।“

“जब हम किसी से मिलते हैं और उसे चाहने लगते हैं, तो लगता है जैसे सारी कायनात हमारे साथ है। आज सूरज डूबते वक्त मैंने ऐसा ही कुछ देखा।
और अगर कहीं कुछ गड़बड़ हो जाए तो फिर कुछ भी बाकी नहीं रहता। न कोई पंछी, न दूर से आती संगीत की आवाज और न ही उसके होंठों का स्वाद। ऐसा कैसे संभव है कि जो खूबसूरती कुछ पल पहले थी, अचानक गायब हो जाए... “

“हर चीज मुझे यह अहसास दिला रही है कि जो निर्णय मैं लेने जा रही हूं वह सही नहीं है, लेकिन गलतियां करना तो जिंदगी का हिस्सा है। यह दुनिया पता नहीं मुझसे क्या चाहती है। क्या यह चाहती है कि मैं कोई जोखिम न उठाऊं और वहीं लौट जाऊं, जहां से आई हूं केवल इसलिए कि जिंदगी को हां कह देने की मुझमे हिम्मत नहीं है।“

“मैंने जिंदगी में, उन चीजों को अस्वीकृत करने में बहुत समय गंवा दिया था, जिन्हें मैं हां कहना चाहती थी।“

‘’मैं तुमसे प्यार करता हूं’’ ...हालांकि यह शब्द उसने अपनी 22 बरस की उम्र में कई बार सुने थे, और उसे लगता था कि इन शब्दों के पीछे सिर्फ खोखलापन है, क्योंकि इन शब्दों में उसे कभी गंभीरता या गहराई का आभास नहीं हुआ, ये शब्द कभी किसी अटूट रिश्ते में नही बदले।“

“सभी को एक जैसी चीजों की तलाश थी।“

“वो नियति की शिकार नहीं थी, वो अपने आप से यही कहती रही, वो अपने जोखिम खुद उठा रही थी, अपनी हद से गुजर रही थी। ऐसी चीजों का अनुभव कर रही थी, जिन्हें किसी रोज, अपने मन की खामोशी में बुढ़ापे की उकताहट के समय वो भावुक होकर याद कर लिया करेगी-बात इस समय चाहे कितनी भी बेहूदा लग रही हो।“

“क्या स्कूल में सिखाई गई बातों से दुनिया इतनी अलग थी।“

“कुछ लोग जिंदगी का सामना अकेले ही करने के लिए जन्म लेते हैं और इसमें अच्छाई और बुराई जैसी कोई बात नहीं है, यह तो बस जिदंगी है। मारिया ऐसे ही लोगों में से एक थी।“

“जिदंगी उसे सिखा रही थी बहुत तेजी से, कि सिर्फ ताकतवर ही जिंदा रहते हैं। ताकतवर होने के लिए उसे श्रेष्ठ बनना पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नहीं था।“

“सभ्यता के साथ कुछ तो बहुत बड़ी गड़बड़ थी। यह अमेजन के वर्षा वनों का विनाश या ओजोन परत या पांडा, सिगरेट, घातक खाद्य पदार्थ या जल के हालातों की बात नहीं थी, इन विषयों को तो अखबार उठाते थे।“

“मनुष्य पानी के बिना एक सप्ताह रह सकता है, खाने के बिना दो सप्ताह और घर के बिना तो शायद बरसों, मगर अकेलेपन के साथ नहीं, यह सबसे भयानक यंत्रणा है, सबसे बुरी तकलीफ।“

“प्यार के प्रलोभन से बचने के लिए उसने अपना दिल अपनी डायरी के नाम कर दिया।“

“प्यार किसी प्रकार की स्वेच्छा से स्वीकार की गई दासता है। पर यह सच नहीं है। स्वतंत्रता का अस्तित्व तभी है, जब प्यार की उपस्थिति हो। जो व्यक्ति को खुद को पूरी तरह दे देता है, जिसे सम्पूर्ण स्वतंत्रता का अहसास होता है, वही व्यक्ति भरपूर प्यार दे सकता है।“

“एक ऐसे मर्द की तलाश जो मुझे समझ तो सकेगा, लेकिन मुझे तकलीफ नहीं देगा।“

“मुझे बेहद तकलीफ हुई थी जब एक-एक करके मैंने उन मर्दों को खो दिया, जिन्हें मैंने प्यार किया था। अब हालांकि मुझे यकीन हो गया था कि कोई किसी को नहीं खोता क्योंकि कोई किसी का स्वामी नहीं होता।

स्वतंत्रता का यही सच्चा अनुभव है- संसार की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु का अपने पास होते हुए भी उसका मालिक न होना।“

“वो जो करती उसका उचित कारण देने की कोशिश करती, वो उस समय हिम्मत करने का बहाना करती जब वो कमजोर होती थी या जब हिम्मत से भरी होती तो कमजोर दिखने का प्रयत्न करती थी।“

मारिया अपने बारे में रैल्फ(चित्रकार) को बताते हुए
“मैं दरअसल एक नहीं, तीन हूं, सच कह रही हूं-यह इस बात पर निर्भर करता है कि मैं किसके साथ हूं। एक तो मासूम लड़की है, जो मर्दों की शौर्य गाथाओं को सुनकर मंत्रमुग्ध हो उन्हें सराहनीय नजरों से देखने का बहाना करती है। फिर दूसरी एक कातिल हसीना, जो किसी को जरा भी असुरक्षित पाती है तो उस पर झपट पड़ती है और ऐसा करते ही वो स्थिति का नियंत्रण करने के साथ सामने वाले को उत्तरदायित्व से मुक्त कर देती है, क्योंकि फिर उन्हें किसी बात की चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। और आखिरकार मैं एक समझदार मां हूं, जो दूसरों की जरूरत के मुताबिक उन्हें राय देती है, जो सब कहानियों को तन्मयता से सुनती है और उन्हें एक कान से सुनकर दूसरे से बाहर निकाल देती है। इन तीनों में से तुम किससे मिलना चाहोगे.. “
“तुमसे“

“मैं यह मानना चाहूंगी कि मुझे प्यार हो गया है। एक ऐसे व्यक्ति के साथ जिसे मैं नहीं जानती और जो कभी मेरी योजनाओं का हिस्सा नहीं था। आत्मनियंत्रण और प्यार से दूर भागते रहने के इतने महीनों बाद भी मुझे बिल्कुल विपरीत परिणाम मिला, मुझसे थोड़ा अलग सा व्यवहार करने वाले पहले व्यक्ति पर मैंने अपना दिल लुटा दिया।“

“यह दुनिया जिस तरह की है उसमें एक प्रसन्नता भरा दिन, एक चमत्कार ही तो है।“

रैल्फ ने जब मारिया से कहा-
“मैं तुम्हें हर उस रूप में चाहता हूं जिसमें तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें चाहूं।“
तब मारिया की डायरी से
“नहीं वो ऐसा नहीं कह सकता, क्योंकि ठीक यही बात तो वो सुनना चाहती थी। वो भूकंप, वो ज्वालामुखी, वो तूफान लौट आए। उसे अपने ही जाल से निकल पाना असंभव प्रतीत होने लगा था, वो इस आदमी को वास्तव में पाने से पहले ही खो देने वाली थी।“

मारिया, रैल्फ को उपहार देते हुए
“तुम्हारे पसंद की कोई खरीदकर तुम्हें देने की जगह, मैं तुम्हें वो वस्तु दे रही हूं जो मेरी है, सचमुच मेरी। उपहार।“
उपहार देना। अपना कुछ किसी को देना। मांगने के स्थान पर कुछ ऐसा देना जो अपने लिए महत्वपूर्ण हो। तुम्हारे पास मेरा खजाना है, वो पेन जिससे मैंने अपने कुछ सपनों को कागज पर उतारा। मेरे पास तुम्हारा खजाना है, रेलगाड़ी का डिब्बा, तुम्हारे उस बचपन का हिस्सा, जिसे तुम जी नहीं पाए।
मेरे साथ तुम्हारे अतीत का हिस्सा है और तुम्हारे पास मेरा एक छोटा सा उपहार कितनी सुंदर बात है न।“

“मैं जान गई हूं कि प्रतीक्षा करना बहुत कठिन होता है और मैं इस अहसास की आदत डालना चाहती हूं, यह जानते हुए कि तुम मेरे साथ तब भी हो जब तुम मेरे साथ नहीं हो।“

“गहरी इच्छा और सच्ची इच्छा है किसी के पास होने की इच्छा। पर इसके आगे सब बदल जाता है. मर्द और औरत सामने आ जाते हैं पर इससे पहले क्या होता है-जो आकर्षण दोनों को पास लेकर आया-उसे समझा पाना असंभव है, वर्तमान स्थिति में वो एक अनछुई इच्छा है।जब इच्छा अपनी इस शुद्ध अवस्था में होती है, तब औरत और मर्द को जिदंगी से प्यार हो जाता है। वो हर पल, श्रद्धापूर्वक सचेत रहकर जीते हैं और सदैव अगले पल के आर्शीवाद का उत्सव मनाते हैं।“

“सबसे महत्वपूर्ण अनुभव किसी व्यक्ति के लिए वो होता है जो उसे उसकी हद तक ले जाए। इसी एकमात्र तरीके से हम सीखते हैं, क्योंकि इसके लिए हमें अपनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ती है।“



“मैं एक ही शरीर में दो औरते हूं-
एक जो उन सारी खुशियों, जुनूनों और साहसिक अनुभवों को जी लेना चाहती है, जो जिंदगी मुझे दे सकती है। दूसरी औरत नित्य के नियमों, पारिवारिक जीवन और उन चीजों की जिन्हें योजना के साथ पाया जा सकता है, सबकी गुलामी करना चाहती है।
इन दो औरतों का मिलन, गंभीर खतरों से भरा एक खेल है।“

“कुछ तकलीफें ऐसी होती हैं, जिन्हें तभी भुलाया जा सकता है जब हम अपने दर्द से ऊपर उठने मैं सफल हो सकें।“

क्या एक सिपाही युद्ध में दुश्मन को मारने जाता है?
“नहीं, वह जाता है अपने देश पर मर मिटने के लिए।

क्या एक पत्नी अपने पति को यह दिखाना चाहती है कि वो कितनी खुश है?
नहीं, वो चाहती है कि उसका पति देख सके कि वो कितनी समर्पित है. उसे खुश रखने के लिए वो कितनी तकलीफें उठा रही है।

क्या एक पति काम पर इसलिए जाता है कि वहां उसे निजी पूर्णता मिल जाएगी?
नहीं, वो अपना खून पसीना अपने परिवार की भलाई के लिए बहाता है।

यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है। कुछ लोग अपने मां-बाप की खुशी के लिए अपने सपने भुला देते हैं, मां-बाप, बच्चों को खुशहाल रखने के लिए अपना जीवन लगा देते हैं। दर्द और तकलीफ का उपयोग केवल एक वस्तु को सत्य ठहराने के लिए होता है,
जिससे हमें केवल आनंद ही मिलना चाहिए-प्रेम।


“कुछ चीजें बांटी नहीं जा सकती। ना ही हमें उन सागरों से भय लग सकता है, जिनमें हम अपनी स्वेच्छा से डूबना चाहें, डर हर किसी की शैली को संकुचित कर देता है, यह समझने के लिए मनुष्य न जाने कितने नरक झेलता है। एक दूसरे से प्यार तो करें, परंतु हम एक दूसरे को पाने की कोशिश कभी न करें। “

“पैसा एक विशेष कागज का टुकडा, रंग-बिरंगी आकृतियों से सजा हुआ। सबके अनुसार जिसकी कोई न कोई कीमत थी। वह इस बात को मानती, सब मानते थे। जब तक कि आप ऐसे ही कागज के टुकड़ों का बड़ा सा ढेर लेकर किसी सम्मानित, परंपरागत, बहुत ही गोपनीय स्विस बैंक मैं जाकर कहें, क्या मैं इनसे अपने जीवन के कुछ क्षण वापस खरीद सकती हूं,
नहीं मैडम हम बेचते नहीं, केवल खरीदते हैं।“

“शायद यही कारण था कि वे एक-दूसरे से प्यार करते थे क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें एक दूसरे की आवश्यकता नहीं है।“

“आदमी हमेशा डर जाते हैं जब औरत कहती है, मुझे तुम्हारी जरूरत है।“

....

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

ऑटो में दो लड़कियां



लड़की-1
वही हरा वाला...। थोड़ा ट्रांसपेरेंट हैं न वो...। जैसे ही पहनने लगी, मम्मी ने टोक दिया।
"ये पहनकर बाहर नहीं जाना। ऑटो-वॉटो से जाना है, सही ढंग के कपड़े पहन लो।"

मेरा मूड ही खराब हो गया
फिर मैंने छोड ही दिया। ऐसे ही जींस कुर्ता पहनकर आ गई मैं।
तू बता, बड़ी स्मार्ट लग रही है.. आंटी ने कुछ नहीं कहा...

लड़की-2

हां यार
मेरी भी मम्मी कल से सवाल पूछे जा रही हैं।
"क्यों इतनी तैयारी कर रही है.."
"क्या बात है"
"कॉलेज ही जा रही हो न।"
मैंने बताया उनको कि आज कॉलेज में फेस्ट है...
मम्मी ने पूछा फेस्ट क्या होता है
मैंने कहा, मम्मी जैसे स्कूल में एनुयअल फंक्शन होता था न
ऐसे ही कॉलेज में फेस्ट होता है
फिर पता है मम्मी ने क्या कहा...
कहने लगी तो बेटा फिर वो दीवाली पर जो लाए थे वो सूट पहन ले या कोई साड़ी दूं अपनी निकालकर
मम्मी भी न .... समझती नहीं है
फेस्ट में कोई सूट या साड़ी थोड़ी पहनता है
फिर पूछने लगी "क्यों नहीं पहनता भला
एनुअल फंक्शन में भी तो तुम सब तैयार होकर जाते थे।"
मैंने बताया उन्हें, कॉलेज के फेस्ट बड़े ही धमाकेदार होते हैं
डांस  होता है, म्यूजिक होता है
दूसरे कॉलेज के भी लोग आते हैं
सब मस्ती करते हैं
सूट साड़ी में कैसे इंज्वाय करेंगे...
फिर तो मम्मी को औऱ ज्यादा लगने लगा कि मुझे ज्यादा तैयार नहीं होना चाहिए

लड़की-1
लेकिन यार मम्मी ठीक ही चिंता करती हैं
कल देखा नहीं था तूने टीवी पर
गाजियाबाद में ऑटो वाला ही
लड़की को भगाकर ले गया और
रेप कर दिया

लड़की-2
हां.... (अनमने से)



अब सिर्फ ऑटो की खड़खड़ की आवाज थी
संजी-संवरी सी वो दो लड़कियां बिलकुल सहमकर शांत हो गईं थी।
शायद मेरे ऑटो से उतरने के बाद उन्होंने किसी दूसरे विषय पर फिर से बात शुरू करने की हिम्मत जुटाई हो

-आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस था...

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला...

मां को एक बार कहते सुना था, ‘’जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं, या तो किसी के हो जाओ या किसी को अपना बना लो।‘’ 
 
फिर जब कविताएं पढ़ने का शौक जोश-खरोश से पूरा करने लगी तो मशहूर कवि पाश की एक कविता पढ़ी,
‘’बीच का रास्ता नहीं होता‘’

मां और पाश दोनों की ही बात से साफ है कि हम किसी एक ही तरफ होते हैं या तो ‘’हां ‘’ या तो ‘’ना‘’। या तो डूबना या तो तरना। मगर अफसोस मेरे अनुभव में इन दोनों अजीजों की यह सीख जिंदगी से बहुत मेल नहीं खा पाती। अक्सर ऐसा होता है कि न तो हम किसी को अपना बना पाते हैं पूरी तरह, न किसी के हो पाते हैं पूरी तरह। अक्सर ऐसा होता है कि जिंदगी बीच का ही कोई रास्ता अख्तियार कर लेती है और हम ना-ना करते हुए भी उसी बीच के रास्ते पर अपनी खुशियों की मंजिल बना लेते हैं। अक्सर यह फैसला करना काफी मुश्किल होता है कि हमें किसी एक तरफ जाना है या फिर बीच का ही कोई रास्ता निकालना है।





कई सालों पहले एक शाइर की जिंदगी में भी ऐसा ही मोड़ आया जब उसे किसी एक को चुनना था, या तो वो मतलब की दुनिया के हिसाब से खुद को ढाल ले और मशहूर हो जाए या फिर ऐसी दुनिया को छोड़कर अपनी अलग एक गुमनाम दुनिया बसा ले। अबरार अल्वी चाहते थे कि वह शाइर दुनिया के हिसाब से ढल जाए और गुमनामी की बजाय दुनिया के इस बदलाव को स्वीकार करके मशहूर हो जाए। वो दुनिया जिसने उसकी नज्मों को कूड़ेदान में बिना पढ़े फेंक दिया। वो दुनिया जिसने उसकी बेकारी बेरोजगारी और मुफलिसी को देखा और उसे देखकर पहचानने तक से इनकार कर दिया। और वही दुनिया जिसने तब एकदम से अपना तौर-तरीका ही बदल दिया, जब देखा कि उसी बेकार, बेरोजगार और मुफलिसी से घिरे शाइर की नज्मों को लोग सीने से लगाए फिरते हैं। उसी दुनिया ने उस गुमनाम शाइर को अपना अजीज बताना शुरू कर दिया। उसके नाम के कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए।

अपनी सारी जिंदगी जो शाइर अपनी एक नज्म छपवाने के लिए अखबार और मैग्जीनों के चक्कर काटता रहा हो उसके लिए अपने नाम की किताबों के छपते देखने से बड़ा सुख क्या हो सकता था। लेकिन उसे यह सुख उस दुनिया के हाथों कबूल नहीं था, जिसने बुरे वक्त में उसे लात मारी थी। फैसला करना मुश्किल था,लेकिन जो फैसला लिया गया उसने मेरा ध्यान आज फिर मां और पाश की सीख की तरफ खींच दिया... 
-"जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं, या तो किसी के हो जाओ
या किसी को अपना बना लो।"
 


-"बीच का रास्ता नहीं होता"

शाइर ने बीच का रास्ता नहीं चुना,  उसने परायी और मतलबी दुनिया को तो अपना बना लिया, लेकिन उसका होना किसी भी सूरत में कबूल नहीं किया। उसने कबूल की गुमनामी की अपनी अलग दुनिया बसाना।
.....और इस तरह हिंदी सिनेमा की एक फिल्म ने इतिहास में हमेशा के लिए अपना नाम दर्ज करवा लिया।

प्यासा

निर्देशक-गुरुदत्त
निर्माता-गुरुदत्त
लेखक-अबरार अल्वी
अभिनय-गुरुदत्त, माला सिन्हा, वहीदा रहमान
...

फिल्में देखना या किताबें पढ़ना मेरे लिए एक नई दुनिया का सफर करने की तरह है। क्योंकि मैं अक्सर अपने घुमक्कड़ी के शौक को पूरा नहीं कर पाती इसलिए समय मिलते ही फिल्में देखती हूं या कोई नई किताब पढ़ना शुरू करती हूं। फिलहाल बात सिर्फ फिल्म की। यह शायद मेरी गलती रही कि अब तक मैंने सिर्फ अपने समय की ही फिल्में देखने पर गौर किया। पिछले कुछ वक्त से कुछ अच्छे लोगों की संगत और सोहबत का असर हुआ कि कुछ पुरानी फिल्में देखने लगी। पाकीजा, मुगल-ए-आजम, तीसरी कसम हाल के ही कुछ दिनों में मैंने देखी हैं। पाकीजा में राजकुमार-मीनाकुमारी की अदायगी और डायलॉग लुभाते हैं तो मुगल-ए-आजम की लंबाई के साथ उसके दर्शकों को बांधे रखने की अदा और तीसरी कसम में भोले-भाले प्यार की अधूरी कहानी। लेकिन इन सब फिल्मों में प्यासा को देखने के बाद लगा कि शायद फिल्में देखकर तृप्त होने की मेरी कोशिश प्यासा देखे बिना प्यासी ही रह जाती। 
इस खूबसूरत फिल्म के लिए गुरुदत्त साहब का शुक्रिया..

एक कबूलनामा
मुझे जानने वाले सभी लोग जानते हैं कि मैं शाहरुख खान को
लेकर थोड़ी दीवानी हूं। इसकी कोई खास वजह नहीं है...यूं भी किसी को पसंद या प्यार करने 
की कोई वजह होती नहीं है...लेकिन प्यासा देखने के बाद जो पहली प्रतिक्रिया मेरे लफ्जों में आई वो यही थी कि .... यार ... गुरुदत्त को मैंने आज तक कभी देखा क्यों नहीं था... ;)

शनिवार, 26 जनवरी 2013

''करियर, प्यार और सेक्स'' किसे इनकार करेंगे आप

इनकार (2013)

प्रोड्यूसर-प्रकाश झा

डायरेक्टर-सुधीर मिश्रा
अर्जुन रामपाल
चित्रांगदा सिंह

तुम और मेरे जैसे लोग, जो प्यार के अलावा और भी बहुत कुछ चाहते हैं...क्या उनके बीच कुछ मुमकिन है…?... इसका जवाब है ‘’इनकार’’
फिल्म शुरू होती है सेक्सुअल हैरेसमेंट से औऱ खत्म होती है लव कन्फेशन पर। कहानी शुरू होती है बचपन की एक सीख से और खत्म होती है, जवानी के एक सिलसिले पर। कुल मिलाकर देखें तो दो बातें कही जा सकती हैं। या तो कहानी, फिल्म के हिसाब से हल्की थी, या फिल्म ही कहानी पर भारी पड़ गई। इन दो बातों के बावजूद भी इस फिल्म को देखऩे से इनकार नहीं किया जा सकता। सुधीर मिश्रा का डायरेक्शन और अर्जुन-चित्रांगदा की सुपर एक्टिंग के साथ ही फ्रेश कांसेप्ट वाली इस फिल्म को एक बार देखना तो बनता है। अब जब एक बार आप इस फिल्म को देख रहे होते हैं, तो आपको लगता है कि यह फिल्म एक बॉस के अपनी फीमेल एंप्लाई को सेक्सुअल हैरेस करने की कहानी है। यानी ऐसी कहानी, जहां बॉस, एक महिला कर्मी को कॉफी पर मिलने के बहाने होटल में बुलाता है और जबरदस्ती उसके साथ संबंध बनाता है। इस सबके बदले महिला कर्मी को मिलता है प्रमोशन औऱ नौकरी के तयशुदा फायदों से कहीं ज्यादा लाभ। (नोट-हर ऑफिस में बॉस इस तरह की कुछ न कुछ हरकतें जरूर करते हैं वो शारीरिक भी हो सकती हैं, मौखिक भी और ऐसी भी, जिनकी कोई भाषा नहीं है, इसे मद्देनजर रखते हुए हर किसी को अलग-अलग लग सकता है) मगर फिल्म की कहानी में सेक्सुअल हैरेसमेंट का सिर्फ नाम होता है। फिल्म सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस की सुनवाई के तीन दिनों में तीन घंटे पूरा करती है और खत्म होने पर पता चलता है कि जिन लोगों के बीच सेक्सुअल हैरेसमेंट का केस चल रहा होता है, वो दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे, हैं और शायद हमेशा करते रहेंगे। जहां प्यार हो फिर वहां कोई केस या कोई तीसरा कुछ नहीं कर सकता। यहीं पर फिल्म खत्म हो जाती है। इसके बावजूद भी लगभग तीन घंटे तक देखते रहने की कई वजह भी इस फिल्म में है। कहानी की लाइन से हटकर भी फिल्म में औरत और आदमी के बीच की अलग-अलग तरह की भावनात्मक कमजोरियों को बारीकी से दिखाया गया है। आज के समय में यह फिल्म हर उस लड़की और औरत को एक बार जरूर देखनी चाहिए, जो जिदंगी में सच में प्यार के अलावा और भी बहुत कुछ चाहती है। जो सपने देखती है और उन्हें पूरा करना चाहती है। जो एक औरत होकर भी टीम लीडर बनना चाहती है। सदियों से चली आ रही उस सोच को बदलना चाहती है, जिसके मुताबिक औरतों में किसी बड़ी पोजीशन को संभालने की क्षमता ही नहीं होती। बेशक देश और दुनिया में कई औऱतों ने इस मानसिकता को बदला है, लेकिन आज भी कहीं न कहीं अपनी कुछ भावनात्मक कमजोरियों की वजह से औरत को अच्छी-खासी करियर ग्रोथ को पीछे छोड़ शुरू से शुरू करना पड़ता है। देसी-विदेशी खूबसूरत लोकेशंस की बजाए फिल्म का ज्यादातर हिस्सा एक एड कंपनी के कांफ्रेंस रूम में शूट हुआ है। फिर भी इसमें हिंदुस्तान से लेकर न्यूयॉर्क और लंदन तक बिखरे कुछ ऐसे रगं देखे जा सकते हैं, जो देश और वेश दोनों बदलने पर भी एक जैसे रहते हैं। चिंत्रागदा बार-बार यह कहकर कि ‘’उस वक्त मुझे उस पर भरोसा था, इसलिए मैंने उसे जाने दिया’’   औऱत औऱ आदमी के बीच बनने वाले विश्वास की एक बहुत महीन लकीर की तरफ देखने को मजबूर करती हैं, जिसे बार-बार पार किया जाता है और प्यार का मामला, सेक्सुअल हैरेसमेंट में बदल जाता है या फिर जिसे आम भाषा में नफरत और ब्रेकअप कह दिया जाता है। क्योंकि यहां सब कुछ एक बॉस और एंप्लोई में हो रहा है, इसलिए कहानी थोड़ी अलग लगती है, लेकिन शायद सच्चाई हर तरह से कुछ इसी तरह की है कि उस वक्त का भरोसा, वक्त के साथ कमजोर क्यों होता जाता है। एक बात और इस पूरी फिल्म को देखने के बाद समझ आती है। जिस पर चाहें तो हंस भी सकते हैं। ज्यादातर फिल्मों मैं जो मैंने देखा है वो यही रहा है कि हीरो के हीरोइन को आई लव यू बोलने में ही इंटरवल हो जाता है और फिल्म के आखिरी सीन में दोनों एक बिस्तर पर होते हैं और लाइट बंद हो जाती है। इस फिल्म ने सोसाइटी के नए लव कल्चर को सामने रखा है। हीरो और हीरोइन एक-दूसरे के बहुत नजदीक आ जाते है। कई बार दोनों बिस्तर पर साथ होते हैं और बत्ती बुझ जाती है। लेकिन एक बार दोनों एक-दूसरे को आई लव यू नहीं बोलते। उनके बीच में प्यार का इजहार होता है आई लवड यू डैमिड...आई लवड यू जैसी भूतकाल की भाषा में। बस प्यार के इस इजहार के साथ सारी सजा, सारी दफा माफ औऱ फिल्म खत्म। रही बात बॉक्स ऑफिस रेटिंग की तो इसे रेटिंग के हिसाब से जज नहीं किया जा सकता। ये शायद हर तरह की ऑडियंस के लिए बनी भी नहीं है। कुछ फिल्मों को देखने के लिए एक समझ चाहिए होती है और कुछ फिल्में खुद-ब-खुद बहुत कुछ समझा देती हैं। इनकार इन दोनों परिस्थितियों को मिलाकर देखी जाने वाली फिल्म है। इसे देखने के लिए एक समझ चाहिए, अगर यह समझ एक दर्शक के तौर पर आपमें है तो फिल्म खुद-ब-खुद आपको राहुल वर्सेज माया के केस की सुनवाई के जरिये सपने और उनकी सीढ़ी वर्सेज प्यार और सेक्स का फर्क दिखा सकती है। इस फर्क को देखने के साथ ही अगर आप फिल्म देख चुके हैं तो उस फर्क को समझना भी जरूरी है जिसमें फिल्मों के हिट और फ्लॉप होने की वजहें बदल रही हैं। इन दिनों कुछ ऐसी भी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्में आई हैं, जिनमें न स्टोरी है, न कांसेप्ट, न एक्टिंग। उनमें है सुपरस्टार हीरो, बेहतरीन लोकेशन, आइटम नंबर और तड़कते-भड़कते, नचाते-थिरकाते गाने। इस हिसाब से इनकार में एक कहानी है, जो बेशक अपने सब्जेक्ट के साथ पूरा इंसाफ नहीं कर पाई, लेकिन इसमें किरदार हैं, निर्देशन है, अभिनय है। इस सबसे बढ़कर घिसे-पिटे पुराने फार्मुले या सिक्वल नंबर पर बनने वाली फिल्मों से अलग ये एक नए सब्जेक्ट पर बनी फिल्म है। जहां तक म्यूजिक की बात है तो हजारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर मिश्रा के साथ शुरुआत करने वाले और परिणिता जैसी फिल्मों के लिए म्यूजिक अवार्ड जीतने वाले शांतनु मोइत्रा और स्वानंद किरकिरे की टीम का म्यूजिक और लिरिक्स भी इस फिल्म को एक अलग टच देने में कामयाब रहे हैं।






और अंत में
-लड़कों के लिए ध्यान देने वाली एक बात
फ्लर्टेशन जब औरत को पसंद न हो तो वो हैरेसमेंट बन जाता है
-लड़कियों को समझना चाहिए
इनकार करने से पहले ये न सोचें कि कहीं मैं ओवर रिएक्ट तो नहीं कर रही! क्योंकि बाद में इनकार करने पर उसे सचमुच में ओवर रिएक्शन समझकर दरकिनार कर दिया जाता है।

शनिवार, 19 जनवरी 2013

बलात्कार क्यों...


''बलात्कार, पुरुष कामुकता की न‌िरंतरता का एक चरम अंत है। पुरुषों में साथी तलाशने की चाहत मह‌िलाओं से ज्यादा प्रबल और अव‌िवेकी होती है। पुरुष इसके ल‌िए कई तरह से अपनी इच्छा को मह‌िलाओं के सामने रखते हैं। जब उनकी ये कामनाएं पूरी नहीं होती तो उनकी इच्छा पूर्त‌ि का एकमात्र साधन बलात्कार बचता है''
-स्टीवन प‌िंकर (नवभारत टाइम्स में प्रकाशित एक लेख से ली गई टिप्पणी)
पिछले कई दिनों से बार-बार ये सवाल दिमाग में कौंध रहा था क‌ि कोई आदमी बलात्कार क्यों करता है? अगर इसका जवाब सिर्फ इतना है कि सेक्स इच्छा की पूर्त‌ि के लिए बलात्कार किया जाता है तो इसके सामने फिर कुछ सवाल खड़े हो जाते हैं। 
पहला सवाल ये कि यह इच्छा किसी खास तबके या व्यक्ति में तो नहीं होती। दुनिया के हर आदमी में यह इच्छा कभी न कभी पैदा होती है, हर कोई बलात्कार करने लग जाए तो?  
दूसरा यह कि क्या सिर्फ एक इच्छा को पूरा करने के ल‌िए कोई इस हद तक गिर सकता है
हार्वर्ड व‌िश्वव‌िद्यालय में मनोव‌िज्ञान के प्रोफेसर स्टीवन प‌िंकर की हाल ही में सामने आई टिप्पणी जिस तरह से मेरे इन सवालों का जवाब देती है वो संतोषजनक तो नहीं है, लेकिन एक वजह को सामने जरूर रखती है। फिर भी मुझे नहीं लगता कि दरिंदगी को किसी का मनोवैज्ञानिक विकार समझकर किसी भी तरह नजरअंदाज किया जा सकता है। जहां तक मेरी समझ की बात है तो
बिना ज्यादा पड़ताल किए और सोचे-समझे, मेरे लिए बलात्कार का जो पहला मतलब सामने आता है, वह है किसी के साथ अनैच्छिक या जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाए जाने की घटना। लेकिन कुछ लोगों से बातचीत के दौरान और कुछ चीजें पढ़ते हुए जो परतें खुल रही हैं, उनसे यह घटना सिर्फ इतनी सी है नहीं। 
कई दफा मुझे लगता था कि हमारे देश में बलात्कार के इतने मामले ‌सामने आने की एक वजह ये भी हो सकती है कि यहां सेक्स नामक शब्द को जुबां पर लाने को भी बहुत बुरा माना जाता है। इसके बारे में सोचना और करना इतना गुप्त होता है कि किसका, कब, कहां और कितनी बार बलात्कार हो चुका है, इसके सही आंकड़ें शायद यहां कभी जुटाए ही न जा सकें। शरीर से जुड़ी इच्छा, भावना और जरूरत के इसी दमन की वजह हो सकता है बलात्कार। लेकिन एक दिन पहले बीबीसी पर प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट को पढ़कर ये भ्रम भी टूट गया। यह रिपोर्ट ब्रिटेन में बलात्कार के बढ़ते मामलों के बारे में है। रिपोर्ट के अनुसार इंग्लैंड और वेल्स में हर साल औसतन चार लाख 73 हज़ार सेक्स अपराध होते हैं। इनमें पुरूषों के साथ होनेवाले अपराध भी शामिल हैं, मगर बहुतायत महिलाओं के साथ हुए अपराध है। इनमें हर साल बलात्कार की संख्या 60 हज़ार से 95 हज़ार तक होती है। यानी आँकड़ों को मानें, तो इंग्लैंड-वेल्स में भारत से दोगुना से भी ज़्यादा बलात्कार होते हैं। इसका मतलब समाज में खुलापन और शारीरिक इच्छाओं की खुलेआम पूर्त‌ि भी इस समस्या का हल नहीं है। बलात्कार की घटनाओं को देखने-सुनने की इस कड़ी में मेरे बढ़ते कंफ्यूजन की एक वजह तमाम बुद्धिजीवियों और जाने-माने लोगों के बेतुके बयान भी हैं। छत्तीसगढ़ से भारतीय जनता पार्टी के सांसद रमेश बैस ने भी कुछ ऐसा ही बयान दिया। उन्होंने कहा कि बड़ी लड़कियों या औरतों के साथ बलात्कार समझ में आता है, लेकिन अगर कोई इस तरह की हरकत नाबालिग के साथ करे तो उसे फांसी पर चढ़ा देना चाहिए। इस बयान को सुनने के बाद बयानबाजी की जो राजनीति शुरू हुई वो तो अपने नियत कार्यक्रम के तहत जारी है ही। लेकिन मुद्दा यहां फिर सवालों पर आकर खड़ा हो जाता है कि औरतों के साथ बलात्कार अगर इतनी ही सामान्य घटना है तो फिर इस पर ‌इतना हो हल्ला क्यों? फिर सवाल ये भी है कि नाबालिग से बलात्कार के लिए आदमी की कौन सी प्रबल इच्छा जिम्मेदार है?
बलात्कार की घटनाओं के बाद लोगों ने लड़कियों के कपड़ों को लेकर भी तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं जाहिर की। ''महिलाएं छोटे और भड़काऊ कपड़े न पहनें''  गोया पुराने जमाने में तो औरतें सिर से पैर तक ढकी होती थी। किसी ने तो यहां तक कह दिया कि ''लड़कियों के पास मोबाइल नहीं होना चाहिए'', गोया कि मोबाइल ही किसी आदमी को बलात्कार के सिग्नल प्रेषित करता है। ''उन्हें हमेशा किसी रिश्तेदार के साथ ही बाहर निकलना चाहिए'' गोया आज तक कभी रिश्तेदारी में किसी ने किसी का बलात्कार किया ही न हो। गोया इस तरह की प्रतिक्रिया जाहिर करने वाले लोगों ने उन खबरों की तरफ कोई ध्यान ही न दिया हो, जब एक बाप अपनी बेटी की इज्जत लूटकर फरार पाया गया। घटनाएं चाहें कितनी ही सामने क्यों न आए। बहस का मुद्दा हमेशा आदमी की इच्छा और औरत की चरित्रहीनता पर खत्म होता है। 
क्या शरीर से जुड़ी कोई इच्छा, जरूरत या चाहत औरत के भीतर नहीं होती?
क्या कभी उसकी इच्छा और कामना अपने चरम पर नहीं पहुंचती?
क्या कभी औरत को पुरुष के ज्यादा अच्छे और स्मार्ट दिखने या हंस-बोलकर बात करने से गलत सिग्नल नहीं मिलते?
अगर ये सब औरत के साथ भी होता है। और अगर कुछ लोगों का सामना इस सच्चाई से भी हुआ है कि आदमियों का भी बलात्कार किया जाता है तो अंत में शायद बात प्रोफेसर स्टीवन पिंकर के उस तर्क पर ही आकर खत्म होती है, जिसमें उन्होंने आदमियों में कमुकता के स्तर को महिलाओं के मुकाबले ज्यादा बताया है। 
लेकिन अगर मनोवैज्ञानिक स्तर पर इच्छाओं का दमभर कर किसी अपराध और दरिंदगी को जायज ठहराया जा सकता तो अदालत, सजा और न्याय नाम के शब्द पैदा ही न हुए होते। यह मुद्दा अपराध,सजा और न्याय का तो है ही लेकिन भविष्य में इससे निपटने और इससे बचने के लिए ''आदमी, औरत और सेक्स'' की गुत्थी को भी सुलझाने की जरूरत होगी।




कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...