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सोमवार, 8 सितंबर 2014

कब हटेगा कोहरा, कब छटेगी धुंध


मौन
असंख्य शब्द आ और जा चुके हैं
तुम्हारे और मेरे बीच
मगर फिर भी हम वह नहीं कह सके
जिसके बाद मौन भी एक भाषा बन जाता है


बंदिशें
न जाने बंदिशों की कैद में हू मैं
या मेरे ही मन ने कैद कर लिया है बंदिशों को
अपनी परवाह नहीं रही अब
चाहती हूं कि
ये बंदिशें आजाद हों


संभावना
कहीं कुछ रहे न रहे
कोरे कागज पर हमेशा
शेष रहेंगी
संभावनाएं।


संवेदना
इच्छाओं के बाजार में
सरेआम
बेहद गिरे हुए दामों पर
बेची जा चुकी हैं संवेदनाएं
दिखाने और जताने को हैं सिर्फ सिसकियां
आह...
ओह...
ओहो...
आदि-आदि।


गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

खुशियां नहीं जानतीं...

  
खुशियां नहीं जानतीं किस मौसम में खिलते हैं फूल
और किस मौसम में पत्ते झड़ते हैं पेड़ों से

किस मौसम में बारिश लाते हैं बादल और 
किस मौसम में हो जाती है बिना बादलों के ही बरसात

किस मौसम में कोहरे और धुंध की चादर में लिपट जाता है हर इंसान
और किस मौसम में हवाएं चलती हैं अपनी सबसे तेज चाल

खुशियों को कुछ मालूम नहीं होता

वो अपने वक्त से आती हैं
वक्त हो जाने पर बिना देरी किए चली जाती हैं

जैसे इस बार आया है वसंत 
मगर खुशियां नहीं आईं
वो आईं थीं उस वक्त 
जब मौसम बहुत उदास था।

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

अपने साथ न होना

सिर्फ दिल नहीं
मेरी आंखें
मेरे कान
मेरी नाक
मेरे होंठ 
मेरे हाथ
मेरे पैर
मेरे शरीर का हर एक रोम चाहता है
तुम्हारे ख्यालों से आजाद होना।

हर रोज मेरे दिमाग में दर्ज की जाती हैं
रिहाई की अर्जियां।

हर रोज फैसले के लिए एक नई तारीख मुकर्रर हो जाती है।

ये सब हर रोज होता है मेरे साथ।

आज जब सोचने बैठी हूं 
और लिख रही हूं ये सब 
तो अहसास हो रहा है 
कि न जाने कितने ही रोज से 
अपने साथ नहीं हूं मैं।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

प्रेम लुप्त हो चुका है

प्रेम लुप्त हो चुका है
डायनासोर से भी बहुत पहले।

मोहब्बतों की मौत के साक्षी रह चुके हैं
खुद प्यार करने वाले।
अब सिर्फ इश्क फरमाया जा रहा है।
...और जब हमारी औलादें रखेंगी
दिल की दहलीज पर कदम
तब युद्ध होगा
लुप्त हो चुके प्रेम को
फिर से जीवित करने का युद्ध
क्योंकि ऊब जाएंगी पीढ़ियां इश्क फरमाकर
तड़पेंगी प्यार के लिए पानी से ज्यादा
बीमारियों का इलाज बन जाएगा प्रेम
नसीहत में कहा जाएगा-
सुबह-दोपहर-शाम
खाने के बाद
खाने से पहले

आपको देना है
इन्हें अपना स्नेह भरा वक्त, प्रेम भरे पल।
प्रेम की खोज होगी
प्रेम पर शोध होंगे
अध्ययन किए जाएंगे
कि आखिरी बार कब, कहां, किसने किया था वह प्रेम,
जिसके अवशेषों से बचाया जा सके प्रेम का अस्तित्व

तब शायद किसी को हमारा भी दिल कहीं टूटा हुआ मिले...

सोमवार, 19 अगस्त 2013

भावनाओं की अर्थव्यवस्था

मुझे कुछ मिलने वाला था
...नहीं मिला
मैं दुखी हूं।
.................

उसके पास कुछ था
...छिन गया
वह दुखी है।
...............

तुम्हारे पास सब कुछ है
तुम्हारी हर दुआ कुबूल है
तुम्हारा हर ख्वाब सच है
अब पाने को कुछ नहीं है
तुम दुखी हो।
..............

दुख भी अजीब चीज है
................

मांग शून्य है
और उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है
.................

भावनाओं की अर्थव्यवस्था डगमगाने वाली है
..................

किसी कवि से दुखों का विज्ञापन करवाना चाहिए।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

जब शब्द मरते हैं

एक आदमी था
बिलकुल वैसा ही जैसा होता है एक आदमी
मगर उस आदमी को सही-सही याद था
अपने जन्म का समय, तारीख और जगह।

उसने सुना एक जाने-माने विद्वान पंडित के बारे में।

वह उसके पास गया अपनी
किस्मत और उसका हुनर आजमाने

आदमी के हाथ की रेखाओं को पढ़ते ही 
विद्वान ने बता दिया उसके परिवार, सेहत, दाम्पत्य और करियर का हाल। 

समझा दिया आने वाली 
हर विपदा से बचने का उपचार

वह कब तक जीएगा
और मरने से पहले क्या-2 हासिल करेगा, 
इस बात का भी हो गया उस आदमी को ज्ञान

मगर परेशान हैं वह आदमी 
पिछले कुछ दिनों से बहुत।

बहुत हंसता है
और रो पाने की हर कोशिश
जैसे नाकाम हो गई है।

बहुत चुप रहता है
और कह दे किसी से ये चाहत
जैसे श्मशान हो गई है।


आदमी की जिंदगी और मौत की तिथ‌ि
बताने वाले विद्वानों 
को शायद नहीं मालूम हो पाता है
शब्दों की मौत का समय

इसका अहसास खुद समय करवाता है
जैसे अभी-अभी उस आदमी को हुआ है अहसास...

उम्मीद नामक एक शब्द मर चुका है उसके जेहन में 

और अब परेशानी की वजह बन रही है
मर चुकी उम्मीदों की भटकती आत्मा


विद्वानों को थोड़ा और विद्वान होने की जरूरत है शायद

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

तुम्हारी अनुपस्थिति


तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है
जैसे वो लकीर
जिस तक पहुंचकर
एक-दूसरे में सिमट जाते हैं
धरती और आसमान।

तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है
जैसे वो अंधेरा
जिसमें गुम हो जाता है
हर चेहरा और
मैं बना सकती हूं अपनी
कल्पना के घेरे में उस
उस वक्त तुम्हारा अक्स।

तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है
जैसे पानी का रंग
जो दिखता नहीं है
या होता नहीं है
यह अब तक तय होना बाकी है।

रविवार, 17 मार्च 2013

कुछ छोटी कविताएं

दुख
तुम एक घना जंगल हो कविताओं का।


आंसू
मैं चाहती हूं कि तुम मेरे जेहन में जाकर कहीं छिप जाओ
और भीतर से इतना गिला कर दो मुझे कि कोई गम
सोख न पाए।


शिकार
मैं नहीं करना चाहती तुमसे प्यारमुझे डर है कि तुम मेरी नफरतों का शिकार हो जाओगे।


धोखा
हम थक चुके हैं
प्यार कर-कर के
और उसके बाद
दिल में नफरत भर-भर के
आओ, एक-दूसरे को धोखा देने के लिए
हम एक-दूसरे के करीब आएं अब।


मैं
पतंग भी मैं
डोर भी मेरे हाथ में
उड़ान भी मेरी
आकाश भी मेरा
और अब कट-कट कर
गिर भी रही हूं मैं।

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

न जाने हम क्या कर रहे हैं



हम लिख रहे हैं
अतीत के अपराध
और वर्तमान के राग
कि
भविष्य बेहतर हो सके

हम दिख रहे हैं
इतिहास के भगत सिंह जैसे
21वीं सदी में क्रांति की मशाल लिए
कि
आने वाली सदियां हमें भी याद करें

हम खोल रहे हैं जुबां
चुप रहने की
त्रासदियों के बीच भी
कि
सच गूंगा न होने पाए
और झूठ भी सुन सके
उसकी गूंज को

हम शामिल हैं
हर उस विचार के साथ
कि
जिससे समाज को
समानता की सूरत मिल सके

हमने कुछ रास्ते अख्तियार किए हैं
दिखाने के लिए दूसरों को रास्ता
कि
हम गर मजबूर हो गए
कहीं अपनी अपनी मजदूरी के चलते तो
वो दूसरे उन रास्तों पर चल सकें।

मगर अब हमें बांध लेनी चाहिए
अपनी अंधी उम्मीदों की ये पोटली
कि
किसी दूसरे के कंधों को ये बोझ न सहना पड़े। 

शनिवार, 8 सितंबर 2012

कविता में नयी प्रेम कहानियां

1)
मैं तुमसे प्यार करती हूं
.
मैं तुमसे प्यार करता हूं
.
.

कुछ कदम बाद
मुझे प्यार से नफरत है
.
मैं प्यार से नफरत करता हूं

2)
दो अजनबी
एक दूसरे को
पहचानना चाहते थे
प्यार करना चाहते थे
एक दूसरे से
हर ऐसी वजह को मिटा देना चाहते थे
जिससे
नफरत का निशान भी बने
रिश्ते की चादर पर
करीब दस साल बाद
आज के समय में
दो अजनबी
डरते हैं
एक दूसरे को पहचानने से
वो डरते हैं कि कहीं
प्यार न हो जाए
वो हर ऐसी वजह को
दूर हटाना चाहते हैं
जिससे मन की मिट्टी पर
प्यार के पौधे को पनपने का
मौका मिले।

3)
हम थक चुके हैं
प्यार कर-कर के
और उसके बाद
दिल में नफरत भर-भर के
आओ, एक-दूसरे से नफरत करने के लिए
और एक-दूसरे को धोखा देने के लिए
हम एक-दूसरे के करीब आएं अब।



शनिवार, 1 सितंबर 2012

दो टुकड़े दिल

घर से निकलने से पहले मां

के सवालों का जवाब दिया

दफ्तर में बॉस की बातों का

दोस्तों के साथ

उन्ही की हां में हां

और न से न

मिलाई

मामी, बुआ, चाची, भैया और भाभी

के भी थे कुछ सवाल

जिन्हें पल भर में सुलझा दिया

हर बार

कितने दिनों तक सवालों में ठनती रही रार

मगर जवाबों ने बाजी मार ली हर बार

आज लेकिन सवाल सख्त था

जवाब पस्त था

आज अपने ही दिल ने

अपने ही दिल से पूछी

थी एक बात

क्यों री छोरी

कहां से आए हैं ..

किसके लिए हैं.. ये जज्बात

सवालों के साथ

सलाह भी मुफ्त थी

न चाहते हुए भी..

न जाने क्यों

बार-बार

चीख-चीख कर

कह रहा था

भटक मत...भटक मत

तुझे सिर्फ एक राह जाना है

उस एक ही को अपनाना है

उसी से करनी है दिल की सारी बात

...

...

और फिर अचानक

पता ही नहीं चला

कब एक दिल दो टुकड़ों में बंट गया

एक हमेशा के लिए सवाल बन गया

और दूसरा जवाब बनने की कोशिश में

मर गया...

लड़की के दिल की किस्मत भी

लड़की जैसी ही...।



मंगलवार, 21 अगस्त 2012

मैं एक औरत हूं

1)

मैं उस पर
कभी नहीं कर पाई पलट कर वार
सिर्फ इसलिए नहीं कि औरत हूं
और
मेरे कमजोर अंगों में हिम्मत नहीं
उस जितनी,
मगर इसलिए कि
मुझ पर वार करने वाला
पहले मेरा पिता था
और फिर
पति।
पिता... जो जीवनदाता है
और पति.. जिसे परमेश्ववर कहा जाता है

2)

मेरा वजन लगातार
कम हो रहा है
और कंधे झुकते जा रहे हैं
संस्कारों का कैसा बोझ है ये

3)
एक औरत चांद पर    
कदम रख चुकी है
और मैं
मेरे कदम
मेरे कदम तो...
जमीन पर भी
लड़खड़ाते हैं
जब भी कोशिश करती हूं चलने की
अपनी तरफ।

4)

एक औरत देश चला चुकी हूं
और मैं ...
मैं तो अपना तथाकथित घर भी
हर रोज टूटते देखती हूं
हिंदु-मुस्लिम दंगों से भी बड़ी जंग
छिड़ती है हर रोज यहां
मंदिर टूटता है
जलता चूल्हा मेरे ऊपर फेंका जाता है
टूटे फूलदानों को हर सुबह फिर करीने से सजाती हूं मैं
मगर
यहां कभी
लागू नहीं होती एमरजेंसी।

5)

एक औरत कर चुकी है एवरेस्ट की चढ़ाई
और मैं नहीं चढ़ पाती
कचहरी, महिला आयोग या फिर किसी एनजीओ की
सीढियां भी।

6)
एक औरत की कलम ने
खोल दी है बड़े-बड़े सरकारी घोटालों की पोल
मगर
मैं नहीं खोल पाती अपने होंठ भी
जब एक कठपुतली की तरह मुझे
सिर्फ बेटी, पत्नी और
औरत हो जाना होता है
एक इनसान होने से भी पहले।

7)

कुछ औरतें सुना है..खेल रही हैं
कई तरह के खेल
हॉकी से लेकर कुश्ती तक
और
मैं...
मै...अभी तक
जिंदगी के खेल
में फिल्डिंग की कर रही हूं बस

8)
एक औरत ने कत्ल कर दिया है अपने पति का
एक औऱत दूसरे आदमी के साथ भाग गई है
एक औरत ..
एक औरत..
मैं इन औरतों में शामिल नहीं हूं
अब तक
मैं भी औरत हूं
लेकिन एक खालिस औरत।
अब भी हूं मैं इन औरतों के बीच
अपने जैसी कई सारी खालिस औरतों के साथ
चांद,देश,एवरेस्ट या ओलंपिक
एक और सिर्फ किसी एक-एक औरत की जिंदगी में ही है बस
कितनी ही तो हैं
अब भी बस बेबस।
मैं वही बेबस औरत हूं
इसलिए नहीं कि औरत हूं
इसलिए कि मैं खालिस औरत हूं।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

बिछड़ने का दिन



उस तेज बारिश वाली एक शाम हम दोनों


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए


मिलने का दिन तय कर रहे थे


कल आखिरी बार मिलेंगे


मैंने मन में सोचा था


उसे भी बताया था


और फिर हम मिले


उस दिन


और उसके बाद


बार-बार मिलते रहे


यूं ही


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

जटिल प्रेम के सरल से प्रेम पत्र


मैंने कभी नहीं लिखा था
किसी को प्रेम पत्र
ये बात सौ फीसदी सच है
हां ये कहना थोड़ा अजीब होगा
कि कभी नहीं किया है प्रेम
मगर ये देखना दिलचस्प है
कि कुछ बच्चे लिख रहे हैं
गणित की कक्षा में
बड़े-बड़े जटिल सवालों के बीच
एक दूसरे को
छोटे-छोटे सरल से प्रेम पत्र
कॉपी के कागज की पर्चियां बनाकर
जबकि वो नहीं जानते कि
क्या होता है प्रेम
और उनके अध्यापक
एक-दूसरे पर लगा रहे हैं
अनुशासन में ढील का आरोप
बना रहे हैं सख्ती की नई योजना
और में सोच रही हूं
कोई तरकीब एक खास कक्षा लगाने की
सजा नहीं जिसमें समझ दी जाए प्रेम निभाने की ।

शनिवार, 24 मार्च 2012

प्रेम का अनुवाद

प्रेम का अनुवाद देह होता है
किसी ने कहा था
मैंने कहा
जिस प्रेम का अनुवाद देह है
वो प्रेम से कुछ अलग है
प्रेम से कुछ कम है
उसने कहा
ये तुम्हारा भ्रम है
मैंने कहा
तुम्हारी भाषा ही कमजोर है
जिस तरह पूजा के बाद मिलने वाले
जल का अनुवाद पानी नहीं हो सकता
उसी तरह
प्रेम का अनुवाद देह नहीं बन सकती
तुम्हीं सोचो, तुम्ही बताओ
क्या तुम्हें सिर्फ मिटती हुई वो दूरियां याद हैं
जिनके बाद दो शरीर एक दूसरे में सिमटते गए थे
.
.
एक-दूसरे के शरीर से कोसों दूर भी
लगातार पलती-बढ़ती हुई
उन नजदीकियों को तुमने कौन सी जगह दी है
अपनी स्मृति में
अपनी यादों में
क्या सबसे निचले माले पर बिठा दिया है
उन पलों को
जिनके होने से बचा हुआ है
आज भी
प्रेम का असितत्व
देह से बिल्कुल अलग
बहुत दूर भी

रविवार, 18 मार्च 2012

तुम और मैं

तुमसे दूर जाने की कई वजह थी मेरे पास
फिर भी
मैं तुम्हारे सबसे नजदीक रहना चाहती थी
तुम हर बार
मेरे दिल पर दस्तक देकर
दुत्कार रहे थे मुझे
मैं हर बार
तुम्हारा दर्द सहलाना चाहती थी
तुम चाह रहे थे
सब कुछ छिपाना
मैं चाह रही थी जताना
तुम पहले ही
निगल चुके थे
सारी भावनाएं
मैं अब
दांतों तले
हर एक अहसास को
चबा रही थी
तुम
एक अहम शख्सियत बनना चाहते थे
मेरी जिंदगी में
मैं
तुम्हें अपनी दुनिया का
सबसे खास शख्स बनाना चाहती थी
तुम अच्छी तरह जान चुके थे मुझे
कई तरह परख चुकने के बाद
मुझे डर था तुम्हें खोने का
हर परख से पहले
तुम मुझे सिखाकर
खुद भूल गए थे प्यार करना
मैं अब भी सीखे जा रही थी

सोमवार, 12 मार्च 2012

दो दुनिया

उनके पास एक वजह थी
बेवजह वक्त बरबाद करने की।
हमें हर वजह को भुलाकर
एक वक्त को हासिल करना था
उनके रास्तों पर मंजिलें खड़ी हुई थी
हमें खड़े खड़े रेलगाड़ी का सफर तय करना था
उन्होंने देखी नहीं होगी अपनी हथेली कभी
हमें हर वक्त हाथ की रेखाओं से लड़ना था
उनके लिए थे समुद्र के किनारों पर लगे हुए मेले   
हमें कुछ बनते ही गढ़ वाली गंगा में स्नान करना था
हम चबा रहे थे चाहतों को च्वीइंगम की तरह
और निगल रहे थे हर मजबूरी को
और उन्हें खाने से पहले उसकी खुशबू को          
चखना था
हमारे दरम्यान कोई दूरी नहीं थी मीलों की
इसी दुनिया में
उनकी बहुमंजिला इमारत के सामने हमारा
एक कमरे वाला किराये का घर था।

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

पुरुष प्रधान कविता



नाबालिग लड़की से बलात्कार
पत्नी पर, शराबी पति का अत्याचार
बेटी के प्यार पर, बाप का प्रहार
ऐसी तमाम खबरों को लिखने 
और पढ़ने के बावजूद भी
मैं अपनी रचनात्मकता की फेहरिस्त में
जोड़ना चाहती हूं
एक पुरुष प्रधान कविता,
एक धारावाहिक
या ऐसी कहानी
जो पुरुष के अहसास और अनुभव बयां करे
लेकिन सांचों में ठिठके
इस तबके की तारीफ अफजाई के लिए
मुझे लंबा इंतजार करना होगा
या फिर जल्द ही
किसी आदमी को पुराने सांचों को तोड़
बाहर निकलना होगा
मिसाल बनना होगा
ताकि मेरी रचनात्मकता को
एक तथ्य मिल सके
और महिला समाज को एक उम्मीद

बुधवार, 4 जनवरी 2012

जब दो वक़्त मिलते हैं

वक़्त वक़्त की बहुत सी बातें है
शाम के एक ख़ास वक़्त पर
माँ कहती है
धुप बत्ती करो
संध्या समय है
उस वक़्त वो बाल नहीं सवारने देती
दर्पण में नहीं निहारने देती
ये  उनका एक अंध विशवास लगता है
पर जब माँ कहती है
दो वक़्त मिल रहे हैं इस वक़्त
दरिया भी रुक जाता है ...
तो ये मुझे
अपना एक
अनछुआ अहसास लगता है
जैसे वक़्त के रुक जाने की कल्पना से
मन सिहर जाता है
वक़्त आगे बढ़ने लगता है
तो जी घबराता है
.
.
ये माँ कैसी बातें करती है
कि इस वक़्त
एक वक़्त
दूसरे वक़्त
से मिल जाता है
जैसे सुबह को शाम
अपने आगोश में ले लेती हो
या सूरज की  देह
चाँद बनकर निकलती हो
दरिया कितना खुशनसीब है
जो वो रुक पाता है
ये देखने के लिए
मेरा तो सारा वक़्त ही
उस वक़्त की कल्पना करने में निकल जाता है


कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...