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मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

कोट और पुतली की प्रेम कहानी


एक शहर का नाम है कोट और नजदीक में एक गांव है, जिसका नाम है पुतली। 

अक्सर आस-पास रहते हुए आपस में काफी अंतर होते हुए भी साथ चलने और साथ होने की इतनी आदत हो जाती है कि उस अंतर को खत्म करके एक हो जाने का अहसास हर पल दिलो-दिमाग में हावी होने लगता है।
शायद कोट और पुतली के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा और वो एक होकर कोटपुतली बन गए।
शायद ये लवस्टोरीज को लेकर मेरा अतिरेक ही है कि मैंने अपनी कल्पना से ये कहानी गढ़ दी है...मुझे गढ़ते हुए अच्छा लगा और उम्मीद पाल चुकी हूं कि पढ़ने वालों को पढ़ते हुए अच्छा लगेगा...इसके आगे की कहानी ये है कि कोटपुतली दिल्ली से 175 किमी दूर है, गुड़गांव से 128 किमी, जयपुर से 105 किमी और अलवर से 70 किमी। कोटपुतली की लवस्टोरी जो मैंने अपने मन से गढ़ दी है उसे आप अपनी आंखों से देख सकते हैं वहां जाकर जहां मेरी इमेजिनेशन में कोट और पुतली की शादी हुई थी। उस जगह का नाम है जस्ट देसी। 
Just Desi एक ठौर है दिल्ली से जयपुर जाते वक्त सुस्ताने के लिए। शहर की आपाधापी के बीच खुद को एक 

ऐसा मौका देने के लिए जो कम से कम एक महीने के लिए आपको तरोताजा रख सकता है। यहां आपको खेतों की रौनक मिलेगी और चाहे तो एक-दो हाथ बुआई-कटाई में लगाकर खेती को समझ भी सकते हैं। ताजा और एकदम ऑर्गेनिक सब्जियां लेकर भी आ सकते हैं।

प्रकृति अपने आप में जादुई होती है और मिट्टी को आकार लेते देखना भी मुझे उस जादू का ही एक हिस्सा लगता है। यहां आप ये जादू सिर्फ होते हुए ही नहीं देखते खुद वो जादू कर भी सकते हैं। यहां क्ले मॉडलिंग का एक कॉर्नर बना है, जहां आप अपनी पसंद के बर्तन बना सकते हैं...ये बर्तन अपने घर ले जाकर हमेशा के लिए यादों को भी सहेज सकते हैं।
अगर आपको लगता है कि चक्की पीसने का कनेक्शन सिर्फ जेल जाने से है, तो आप गलत हैं। एक जमाने में
जब हर घर में चक्की होती थी और महिलाएं अनाज हर रोज उसी चक्की पर पीसा करती थीं...वो जमाना जस्ट
देसी में फिर से जी उठता है, यहां बने चक्की कॉर्नर के साथ। बच्चों को उस जमाने की झलक दिखाने का ये अच्छा तरीका हो सकता है।

फिर चूल्हे की रोटी और बिना मशीन के दूध से मक्खन निकालने का तरीका, सूरज की परछाई से समय देखने की  ट्रिक जिस तरह आपके बच्चे यहां देखेंगे, शायद वो शहरों में देखने को ना ही मिले। 
ये ठौर मेन सड़क पर है, लेकिन इसके लिए सीढ़ियां उतरकर एक नई दुनिया में जाना पड़ता है, ये दुनिया सड़क पर तेज रफ्तार से जाती गाड़ियों से शायद नजर ना आए, इसलिए जीपीएस ऑन करके सही पते तक पहुंचना सही रहता है। मगर ज्यों-ज्यों आप सीढ़ियां उतरकर उस दुनिया में जाते हैं, उसके बाद के पल हमेशा के लिए यादगार बन जाते हैं।


ऐसे समय में जब नौकरी से छुट्टी मिलने का झंझट हो और एक ऑफ में ही दुनिया समेटनी पड़े, तब इस ठौर का 
रूख करके दुनिया बदलने का अनुभव लिया जा सकता है।








सोमवार, 8 सितंबर 2014

कब हटेगा कोहरा, कब छटेगी धुंध


मौन
असंख्य शब्द आ और जा चुके हैं
तुम्हारे और मेरे बीच
मगर फिर भी हम वह नहीं कह सके
जिसके बाद मौन भी एक भाषा बन जाता है


बंदिशें
न जाने बंदिशों की कैद में हू मैं
या मेरे ही मन ने कैद कर लिया है बंदिशों को
अपनी परवाह नहीं रही अब
चाहती हूं कि
ये बंदिशें आजाद हों


संभावना
कहीं कुछ रहे न रहे
कोरे कागज पर हमेशा
शेष रहेंगी
संभावनाएं।


संवेदना
इच्छाओं के बाजार में
सरेआम
बेहद गिरे हुए दामों पर
बेची जा चुकी हैं संवेदनाएं
दिखाने और जताने को हैं सिर्फ सिसकियां
आह...
ओह...
ओहो...
आदि-आदि।


गुरुवार, 14 नवंबर 2013

खत के नाम एक खत


इस दुनिया के ऐसे बहुत से काम हैं, जो मैंने कभी नहीं क‌िए हैं।
मगर इन कामों में से एक काम ऐसा है जो मैं जल्द से जल्द करना चाहती हूं।
अगर कोई कहे कि यह मेरी जिंदगी का आखिरी दिन है तो भी शायद मैं सबसे पहले उसी काम को निबटाउंगी।
मैं खत लिखूंगी। जितना समय मेरे पास बचा होगा उतने खत।

सबसे पहला खत शायद एक प्रेम पत्र होगा।
जिसमें वो सारी बातें लिखी जाएंगी जो एसएमएस की शब्द सीमा के कारण कहीं नहीं जा सकीं।
या नेटवर्क फेल हो जाने के कारण सही समय पर सही व्यक्ति तक पहुंच नहीं सकीं।
और वो सारी बातें जिन्हें कहने से पहले खुद को रोक लिया गया ये सोचकर कि कहीं शब्दों की धार इस कच्चे और नाजुक रिश्ते की डोर को तोड़ न दे।
और वो सारी बातें जिन्हें कह देने के बाद शायद हमेशा के लिए अटूट बंधन में बंध सके अधूरा रह गया प्रेम।

दूसरा खत मां-पापा को लिखा जाएगा
इस खत में वो सारी बातें होंगी जिनके बारे में दफ्तर से घर लौटने के रास्ते में सोचा गया मगर घर पहुंचकर जिन पर बात नहीं हो सकी।
वो सारी बातें जिन्हें कहने से पहले यह कहकर बात टाल दी गई कि आप नहीं समझोगी मम्मी।
आपको क्या पता पापा?
और आखिर में यह बात भी जरूर लिखी जाएगी कि दिन के 12 घंटे घर से बाहर और घर आने के बाद वाले 12 घंटे में से मुश्किल से सिर्फ एक घंटा आपके साथ बिताने के बावजूद भी आप मेरी जिंदगी के सबसे अहम लोग हैं। सबसे खास। सबसे अनमोल।

तीसरा खत दोस्तों को
इस खत में लिखने के लिए ढेर सारी बातें होंगी। जिन्हें काफी देर-देर तक याद कर-कर के लिखना होगा।
शायद इस बहाने हर एक दोस्त के बारे में सोचने का भी मौका मिल जाए।
शायद उसकी कोई ऐसी बात भी याद आ जाए जिस पर पहले कभी ध्यान ही नहीं गया होगा।
यह खत शायद उन आंसुओं से सील जाए तो हंसते-हंसते इस पर गिरते जाएंगे, इसे लिखते वक्त।
यह खत शायद बहुत मजेदार होगा।


चौथा और आखिरी खत कुछ अजनबियों के नाम
इस खत में वो लोग शामिल होंगे जिनके बारे में सोचने के लिए कभी वक्त ही नहीं निकाला गया। मगर वक्त पड़ने पर ये अजनबी इस तरह काम आए जैसे कोई अपना या शायद अपना भी नहीं।
वो दो लड़के जिन्होंने ग्रेजुएशन का फॉर्म भरने की आखिरी तारीख पर और ऐसे समय में जब मुझे ड्रॉफ्ट बनवाने की कोई जानकारी नहीं थी, मुझे ड्राफ्ट बनवाकर दिया।
वो एक आंटी जिन्होंने मुझे उस वक्त अपने सुरक्षा घेरे का अहसास कराया जब मैं पहली बार रात में अकेले बस का सफर कर रही थी।
वो एक आदमी जिसने मुझे सड़क पर अकेले देखकर कमेंट कर रहे एक लड़के को डांट लगाई।
और भी न जाने कितने लोग...
अफसोस कि यह खत अपनी सही जगह तक नहीं पहुंचाए जा सकेंगे।
कहां से ढूंढे जाएंगे इन अपने से अजनबियों के पते।
मगर मैं ये खत भी जरूर लिखूंगी।

पांचवा खत होगा उनके नाम जिनके पास मैं जा रही हूंगी - एन इनविजिबिल पावर कॉलड 'गॉड'  (इस आर्टिकल को लिखने के लिए दी गई सिच्युएशन के अनुसार)
वैसे जिनके पास जाना ही है उन्हें खत लिखने की क्या जरूरत..
मगर दूर रहकर उनसे की गई प्रार्थनाओं का जो हिसाब-किताब अक्सर गड़बड़ाता रहा है
उस पर बात करना बहुत जरूरी है...
वो प्रार्थनाएं जो हजार बार करने पर भी पूरी नहीं की गईं
और वो जिन्हें बिना मांगे ही ...
उन हालातों के बारे में भी तो बताना है जब उनसे विश्वास ही उठ गया
और उनके बारे में भी जब लगा कि वह हैं और हमें देखते हैं, सुनते हैं और जवाब भी देते हैं।

ए लेटर टू गॉड तो बनता है एक बार दुनिया छोड़ने से पहले।

मगर...
क्या ये खत लिखे जा सकेंगे?
क्या यह मालूम चल सकेगा कि हमारी जिंदगी का आखिरी दिन कौन-सा है?
और अगर मालूम चल भी जाए तो क्या हम खत लिखेंगे।
लिखेंगे तो कैसे लिखेंगे हम खत? क्या हमें आता होगा खत लिखना?
खत लिखने का चलन भी तो खत्म हो चुका है और इसी के साथ
न जाने कितना कुछ खत्म हो चुका है...

क्या एक कोशिश फिर से नहीं की जानी चाहिए
क्या आज ही हमें नहीं लिखना चाहिए अपनी जिंदगी का पहला खत...

सोमवार, 19 अगस्त 2013

भावनाओं की अर्थव्यवस्था

मुझे कुछ मिलने वाला था
...नहीं मिला
मैं दुखी हूं।
.................

उसके पास कुछ था
...छिन गया
वह दुखी है।
...............

तुम्हारे पास सब कुछ है
तुम्हारी हर दुआ कुबूल है
तुम्हारा हर ख्वाब सच है
अब पाने को कुछ नहीं है
तुम दुखी हो।
..............

दुख भी अजीब चीज है
................

मांग शून्य है
और उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है
.................

भावनाओं की अर्थव्यवस्था डगमगाने वाली है
..................

किसी कवि से दुखों का विज्ञापन करवाना चाहिए।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

जब शब्द मरते हैं

एक आदमी था
बिलकुल वैसा ही जैसा होता है एक आदमी
मगर उस आदमी को सही-सही याद था
अपने जन्म का समय, तारीख और जगह।

उसने सुना एक जाने-माने विद्वान पंडित के बारे में।

वह उसके पास गया अपनी
किस्मत और उसका हुनर आजमाने

आदमी के हाथ की रेखाओं को पढ़ते ही 
विद्वान ने बता दिया उसके परिवार, सेहत, दाम्पत्य और करियर का हाल। 

समझा दिया आने वाली 
हर विपदा से बचने का उपचार

वह कब तक जीएगा
और मरने से पहले क्या-2 हासिल करेगा, 
इस बात का भी हो गया उस आदमी को ज्ञान

मगर परेशान हैं वह आदमी 
पिछले कुछ दिनों से बहुत।

बहुत हंसता है
और रो पाने की हर कोशिश
जैसे नाकाम हो गई है।

बहुत चुप रहता है
और कह दे किसी से ये चाहत
जैसे श्मशान हो गई है।


आदमी की जिंदगी और मौत की तिथ‌ि
बताने वाले विद्वानों 
को शायद नहीं मालूम हो पाता है
शब्दों की मौत का समय

इसका अहसास खुद समय करवाता है
जैसे अभी-अभी उस आदमी को हुआ है अहसास...

उम्मीद नामक एक शब्द मर चुका है उसके जेहन में 

और अब परेशानी की वजह बन रही है
मर चुकी उम्मीदों की भटकती आत्मा


विद्वानों को थोड़ा और विद्वान होने की जरूरत है शायद

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

ऑटो में दो लड़कियां



लड़की-1
वही हरा वाला...। थोड़ा ट्रांसपेरेंट हैं न वो...। जैसे ही पहनने लगी, मम्मी ने टोक दिया।
"ये पहनकर बाहर नहीं जाना। ऑटो-वॉटो से जाना है, सही ढंग के कपड़े पहन लो।"

मेरा मूड ही खराब हो गया
फिर मैंने छोड ही दिया। ऐसे ही जींस कुर्ता पहनकर आ गई मैं।
तू बता, बड़ी स्मार्ट लग रही है.. आंटी ने कुछ नहीं कहा...

लड़की-2

हां यार
मेरी भी मम्मी कल से सवाल पूछे जा रही हैं।
"क्यों इतनी तैयारी कर रही है.."
"क्या बात है"
"कॉलेज ही जा रही हो न।"
मैंने बताया उनको कि आज कॉलेज में फेस्ट है...
मम्मी ने पूछा फेस्ट क्या होता है
मैंने कहा, मम्मी जैसे स्कूल में एनुयअल फंक्शन होता था न
ऐसे ही कॉलेज में फेस्ट होता है
फिर पता है मम्मी ने क्या कहा...
कहने लगी तो बेटा फिर वो दीवाली पर जो लाए थे वो सूट पहन ले या कोई साड़ी दूं अपनी निकालकर
मम्मी भी न .... समझती नहीं है
फेस्ट में कोई सूट या साड़ी थोड़ी पहनता है
फिर पूछने लगी "क्यों नहीं पहनता भला
एनुअल फंक्शन में भी तो तुम सब तैयार होकर जाते थे।"
मैंने बताया उन्हें, कॉलेज के फेस्ट बड़े ही धमाकेदार होते हैं
डांस  होता है, म्यूजिक होता है
दूसरे कॉलेज के भी लोग आते हैं
सब मस्ती करते हैं
सूट साड़ी में कैसे इंज्वाय करेंगे...
फिर तो मम्मी को औऱ ज्यादा लगने लगा कि मुझे ज्यादा तैयार नहीं होना चाहिए

लड़की-1
लेकिन यार मम्मी ठीक ही चिंता करती हैं
कल देखा नहीं था तूने टीवी पर
गाजियाबाद में ऑटो वाला ही
लड़की को भगाकर ले गया और
रेप कर दिया

लड़की-2
हां.... (अनमने से)



अब सिर्फ ऑटो की खड़खड़ की आवाज थी
संजी-संवरी सी वो दो लड़कियां बिलकुल सहमकर शांत हो गईं थी।
शायद मेरे ऑटो से उतरने के बाद उन्होंने किसी दूसरे विषय पर फिर से बात शुरू करने की हिम्मत जुटाई हो

-आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस था...

शनिवार, 1 सितंबर 2012

दो टुकड़े दिल

घर से निकलने से पहले मां

के सवालों का जवाब दिया

दफ्तर में बॉस की बातों का

दोस्तों के साथ

उन्ही की हां में हां

और न से न

मिलाई

मामी, बुआ, चाची, भैया और भाभी

के भी थे कुछ सवाल

जिन्हें पल भर में सुलझा दिया

हर बार

कितने दिनों तक सवालों में ठनती रही रार

मगर जवाबों ने बाजी मार ली हर बार

आज लेकिन सवाल सख्त था

जवाब पस्त था

आज अपने ही दिल ने

अपने ही दिल से पूछी

थी एक बात

क्यों री छोरी

कहां से आए हैं ..

किसके लिए हैं.. ये जज्बात

सवालों के साथ

सलाह भी मुफ्त थी

न चाहते हुए भी..

न जाने क्यों

बार-बार

चीख-चीख कर

कह रहा था

भटक मत...भटक मत

तुझे सिर्फ एक राह जाना है

उस एक ही को अपनाना है

उसी से करनी है दिल की सारी बात

...

...

और फिर अचानक

पता ही नहीं चला

कब एक दिल दो टुकड़ों में बंट गया

एक हमेशा के लिए सवाल बन गया

और दूसरा जवाब बनने की कोशिश में

मर गया...

लड़की के दिल की किस्मत भी

लड़की जैसी ही...।



मंगलवार, 21 अगस्त 2012

मैं एक औरत हूं

1)

मैं उस पर
कभी नहीं कर पाई पलट कर वार
सिर्फ इसलिए नहीं कि औरत हूं
और
मेरे कमजोर अंगों में हिम्मत नहीं
उस जितनी,
मगर इसलिए कि
मुझ पर वार करने वाला
पहले मेरा पिता था
और फिर
पति।
पिता... जो जीवनदाता है
और पति.. जिसे परमेश्ववर कहा जाता है

2)

मेरा वजन लगातार
कम हो रहा है
और कंधे झुकते जा रहे हैं
संस्कारों का कैसा बोझ है ये

3)
एक औरत चांद पर    
कदम रख चुकी है
और मैं
मेरे कदम
मेरे कदम तो...
जमीन पर भी
लड़खड़ाते हैं
जब भी कोशिश करती हूं चलने की
अपनी तरफ।

4)

एक औरत देश चला चुकी हूं
और मैं ...
मैं तो अपना तथाकथित घर भी
हर रोज टूटते देखती हूं
हिंदु-मुस्लिम दंगों से भी बड़ी जंग
छिड़ती है हर रोज यहां
मंदिर टूटता है
जलता चूल्हा मेरे ऊपर फेंका जाता है
टूटे फूलदानों को हर सुबह फिर करीने से सजाती हूं मैं
मगर
यहां कभी
लागू नहीं होती एमरजेंसी।

5)

एक औरत कर चुकी है एवरेस्ट की चढ़ाई
और मैं नहीं चढ़ पाती
कचहरी, महिला आयोग या फिर किसी एनजीओ की
सीढियां भी।

6)
एक औरत की कलम ने
खोल दी है बड़े-बड़े सरकारी घोटालों की पोल
मगर
मैं नहीं खोल पाती अपने होंठ भी
जब एक कठपुतली की तरह मुझे
सिर्फ बेटी, पत्नी और
औरत हो जाना होता है
एक इनसान होने से भी पहले।

7)

कुछ औरतें सुना है..खेल रही हैं
कई तरह के खेल
हॉकी से लेकर कुश्ती तक
और
मैं...
मै...अभी तक
जिंदगी के खेल
में फिल्डिंग की कर रही हूं बस

8)
एक औरत ने कत्ल कर दिया है अपने पति का
एक औऱत दूसरे आदमी के साथ भाग गई है
एक औरत ..
एक औरत..
मैं इन औरतों में शामिल नहीं हूं
अब तक
मैं भी औरत हूं
लेकिन एक खालिस औरत।
अब भी हूं मैं इन औरतों के बीच
अपने जैसी कई सारी खालिस औरतों के साथ
चांद,देश,एवरेस्ट या ओलंपिक
एक और सिर्फ किसी एक-एक औरत की जिंदगी में ही है बस
कितनी ही तो हैं
अब भी बस बेबस।
मैं वही बेबस औरत हूं
इसलिए नहीं कि औरत हूं
इसलिए कि मैं खालिस औरत हूं।

बुधवार, 15 अगस्त 2012

आजादी के लड्डु खाकर पछता रही हूं मैं

इससे पहले भी जब कभी मैंने आजादी के दिन के बारे में कुछ लिखा है तो उन लड्डुओं का जिक्र जरूर किया है जो मैंने पूरे 12 साल हर 15 अगस्त और 26 जनवरी पर खाएं हैं। बेशक मैं कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लूं मगर एक सामान्य शख्स की तरह कुछ इंसानी कमजोरियां मेरे साथ भी  हैं। लड्डु उन्हीं कमजोरियों में से एक है।
इसलिए शायद पिछले इतने सालों में जब भी मैंने आजादी के सही मायने तलाशने और उनके बारे में संजीदगी से सोचने की कोशिश की तो लड्डु का स्वाद उस पर हावी हो गया। आप सोचेंगे मेरी जिंदगी के 12 साल बीते हुए तो  11 साल का वक्त निकल गया फिर.. 11 साल मैं क्या करती रही..दरअसल मेरी मां टीचर हैं तो मेरा स्कूल खत्म होने के बाद भी घर पर लड्डुओं का आना जारी रहा और इसलिए मुझ पर मेरी कमजोरी का हावी होना भी...
खैर
इस बार मैंने इस पर काबू किया है...बिल्कुल वैसे ही जैसे लड़कियां अपनी दूसरी तमाम कमजोरियों पर काबू करती रहती हैं न जाने कितनी बार....
लड्डु न खाने से पेट में जो स्पेस खाली छूटा है वहां एक सवाल घुड़मुड़-घुड़मुड़ कर रहा है। सवाल ये कि क्या ये दिन सच में इस तरह खुश होने का है कि स्कूलों में लड्डु बांटे जाएं। छतों पर पतंग उड़ाई जाए। फिल्म देखी जाए। बाहर घूमने जाया जाए। धानी और नांरगी रंग के कपड़े पहने जाएं। फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया जाए। रंगारंग कार्यक्रम किए जाएं...?
आज इतने सालों बाद आजादी पर सोचते हुए मैंने अपनी एक कमजोरी को तो पीछे छोड़ दिया है मगर दूसरी फितरत मेरे साथ है और वो है मेरा स्वार्थ। स्वार्थ ये कि यहां मैं पूरे देश या देशवासियों की नहीं सिर्फ अपने लिए आजादी के मायनों की बात करुंगी। जानती हूं कि 65 साल बाद इन बातों का रोना रोकर कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन मैं इतने सालों तक खाए गए लड्डुओं का पश्चाताप करना चाहती हूं।
तो कहानी कुछ इस तरह है कि किताबों और किस्सों से इतर जब मैंने इस बार आजादी को समझा तो देखा कि
इस डिप्लोमेटिक आजादी की वजह से ही आज मेरे पास मेरे गांव का नाम नहीं है। वो गांव जहां शहर की आपाधापी से दूर जाकर कुछ दिन मैं सुस्ता सकूं। कोई जमीन नहीं है जिसके खेतों में मैं गर्मियों की छुट्टी में जाकर लहलहा सकूं। पुरखों की विरासत नहीं है। वो गली कूचे नहीं है जहां मेरे  दादा-परदादा रहे और पले-बढ़े। और जहां जाकर मैं उनके अस्तित्व को महसूस कर सकूं। उन पर किस्से कहानियां औऱ कविताएं लिख सकूं। विभाजन की वो टीस क्या होती है वो इस बार पहली बार मुझे महसूस हुई। शायद कहीं दबी तो पड़ी थी पर लड्डुओं ने उसे उबरने नहीं दिया।
कहां की हो तुम...ये सवाल न जाने कितने सालों से हर वक्त हर मोड़ पर पीछा करता रहता है। ... औऱ मैं कुछ ठीक-ठीक नहीं बता पाती। क्यों..क्योंकि हम मुलतानी हैं। मुलतान के रहने वाले मुलतानी.. इतना कह भर देने से ही मेरे दोस्त मुझे रिफ्यूजी कह कर चिढ़ाने लगते औऱ एक कुंठा मेरे अंदर दाखिल होती और फिर हवा के रास्ते बाहर निकल जाती। मुझे लगता रिफ्यूजी होना एक मजबूरी है कोई इतनी बुरी बात नहीं जिस पर संजीदा हुआ जाए।
लेकिन आज मैं बेहद संजीदा हूं क्योंकि इस रिफ्यूजी होने ने मुझसे मेरा इतिहास छीन लिया और इसलिए मैं अपने भूगोल को आज तक नहीं समझ पाई औऱ न ही समझा पाई....
अब आप ही बताइए कि मेरी मां का जन्म उत्तरप्रदेश के एक कस्बा नुमा शहर खुर्जा में हुआ उनका बचपन पंजाब के अबोहर में बीता। मेरे पिता जयपुर में पले-बढ़े। देहरादून में पढ़े-लिखे। हरिद्नार में बसे। और मेरा जन्म हुआ बुलंदशहर में और मैं बचपन से रही हूं गाजियाबाद में..............अगर आप मेरे इस भूगोल को समझ सकें हों तो मुझे भी एक शब्द में इस सवाल का जवाब दीजिएगा कि "मैं कहां की हूं..."सिवाए इस जवाब के जो मैंने अभी कुछ बरस पहले ही देना सीखा है.." हिंदुस्तान"
मगर फिलहाल मैं खुद ही एक कोशिश करती हूं अपने असल भूगोल को समझने की...
मुलतान, जो पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है, चेनाब नदी के किनारे।
मुलतान, जिसे सूफी और संतों का शहर कहा जाता है।
मुलतान, जो बाबा फरीद के नाम से मशहूर पंजाबी के बेहद शुरुआती दौर के कवि फरीदुद्दीन गंजशकर का जन्मस्थान है।
मुलतान, जो सिर्फ एशिया ही नहीं दुनिया के कुछ एक सबसे पुराने शहरों में से एक है।
औऱ
मुलतान, वही शहर जो आजादी के नाम पर अपनी पहचान लुटा बैठा। और मुलतानी कहे जाने वाले इसके बाशिंदे भारत का रुख कर गुमनाम हो गए क्योंकि मुस्लिम बहुल होने के कारण मुलतान को पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया....।
ये ख्याल बहुत पाक नहीं लगते जो आज मन में यूं कुलाचे मार रहे हैं। क्योंकि इतना जानती हूं मैं कि उस वक्त ब्रिटिश रुल से आजाद होना ही सबसे बड़ी परिभाषा थी आजादी की..शायद रहनुमाओं  को ख्याल ही न आया हो किसी की पहचान और गांव घर के हमेशा के लिए दफन होने का।...मगर आज इन ख्यालों को रोकना नहीं चाहती मैं... बेशक नापाक ही सही लेकिन आज आजादी के इरादे मेरे मन में कुछ नेक नहीं लगते...आज मैं आजादी के इस दिन को बेदखल कर देना चाहती हूं अपनी जिंदगी से ...

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

बिछड़ने का दिन



उस तेज बारिश वाली एक शाम हम दोनों


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए


मिलने का दिन तय कर रहे थे


कल आखिरी बार मिलेंगे


मैंने मन में सोचा था


उसे भी बताया था


और फिर हम मिले


उस दिन


और उसके बाद


बार-बार मिलते रहे


यूं ही


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए

रविवार, 24 जून 2012

गाली, गोली और ....गैंग ऑफ सो मेनी रियल्टीज



न लूट खसोट करने वाले गुंडों के गैंग पहली बार पर्दे पर दिख रहे थे, न ही मार-धाड़ वाली फिल्म देखना कोई नई बात थी। 
न गालियां अजनबी थीं, न आदमी की वो जात... जो वो अक्सर दूसरी औऱतों के सामने दिखाते नजर आते हैं। मगर इन सब जानी पहचानी चीजों को एक बड़े से कमरे में सौ लोगों के बीच देखना बहुत अजीब था। 
शायद खुद से आंखें मिलाने जैसा या फिर उस दुनिया से आंखें चुराने जैसा, जिसका हिस्सा हम आज भी थे...। 


ये फिल्म 1940 के जिन हालातों से शुरू होकर आज में लौटती है...उस बीच में दुनिया कितनी बदल गई है ...ये सवाल इस फिल्म को देखने से पहले पूछा जाता तो हम कहते .. बहुत ज्यादा...मगर फिल्म देखने के बाद समझ में आता है कि ...बहुत कम बदली है।


हां.. इतने समय में जो कुछ तरक्की हुई है उसे फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। अब घर वैक्यूम क्लीनर से साफ होने लगे हैं बेशक दिमागों में गंदगी भरी पड़ी हो। फल सब्जियां ठंडी रखने के लिए घर में फ्रिज आ गए हैं बेशक शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए आज भी आदमी अपनी बीवियों को छोड़कर किसी दूसरी औरत को धँधे वाली बना रहे हो।
शहर में मोहल्लों में... आज भी तो कई तरह के गैंग हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जैसा फिल्म में दिखाया गया है वैसे बम बनाने के लिए सल्फर और पोटेशियम खाने के डिब्बे में नहीं मंगाना पड़ता..अब बड़े-बड़े खतरनाक हथियार सीधा सप्लाई हो जाते हैं।


जिस तरह शाहिद खान की मौत का बदला लेने के लिए एक सुंदर और शांत बच्चा, सरदार खान बन जाता है और सरदार खान की रंजिशों को देखते हुए उसके बेटे दानिश और फैजल की मानसिक स्थिति अलग-अलग तरह से आकार लेती है.....हो सकता है शायद आज इस हद तक का कुछ न होता हो। मगर आज भी बाप की करनी का असर बच्चे भुगतते हैं फर्क सिर्फ इतना है कि भुगतने के लिए उन्हें महंगे कांवेंट बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया जाता है, एक ही घर में रहकर बच्चे को उस रात का गवाह नहीं बनना पड़ता शायद जब उसकी मां इतनी कमजोर पड़ गई थी कि दादा की उम्र के आदमी के साथ सोने पर मजबूर हो रही थी क्योंकि वो टूट चुकी थी ये सुनकर कि उसका पति यानी बच्चे का बाप किसी दूसरी औऱत के साथ सो रहा है।


गंदी गालियों, बिस्तर के रूमानी, बॉलीवुडिया सीनों से हटकर फिल्माएं गए ठेठ गंवई सीनों और  अधाधुंध मार कुटाई के अलावा इस फिल्म में कई ऐसी खिड़किया हैं जहां से देखने पर अब तक की दुनिया की कई तरह की शक्ल सामने आती है। फिल्में में दिखाया गया सालों का बदलाव एक बार को तो ऐसे लगता है जैसे कोई समय की सुइयों को पीछे घुमाकर हमें पहले की दुनिया दिखा रहा है। 


उस दुनिया में एक शाहिद खान है जो सस्ता अनाज देने के लिए ट्रेन लूट रहा है। उसका बेटा सरदार खान है जो बाप की मौत का बदला ले रहा है...कहके ले रहा है....ये फिल्म की पंचलाइन भी है तेरी कह के लूंगा....शायद ये हीरो का हुनर है कि वो कहके वार कर रहा है। सरदार खान की बीवी है नगमा। जो उसी हद तक गालियां दे सकती है जिस हद तक कोई भी सरदार खान देता है। जो भीड़ भरे रास्ते में उस सरदार खान को मार-मार कर घर ला सकती है जो सरदार खान भरे बाजार में आदमी को बेहिसाब काट डालता है और रौब से आगे चला जाता है। वही औरत नगमा अपने पति को दूसरी औरतों के पास जाने से नहीं रोक पाती। अनकहे तौर पर समझौता कर लेती है। गुरुराती है चिल्लाती है चाकू भी दिखाती है मगर किसी भी हालत में ऐसे आदमी की बेगम बनकर रहना उसे मंजूर है जो कब कहां कौन सी औरत के पास है उसे खुद नहीं पता। बेशक वो घर न आता हो पैसे न भेजता हो उसने दूसरा परिवार बना लिया हो मगर अपने बेवफा शौहर के लिए वो पूरी तरह वफादार रहना चाहती है। एक बंगालन है जो सरदार खान की दूसरी औरत है। पहली औरत नगमा से ज्यादा खूबसूरत ज्यादा कमसीन ज्यादा नकचढ़ी है। जो सरदार खान से पैसे भी लेती है, उसे गालियां भी देती है और अंत में मरवा भी देती है....


सरदार खान की जिंदगी का मकसद ...उसकी रंजिश.. कितनी पूरी हुई है.. ये फिल्म का दूसरा भाग बताएगा मगर वक्त सरदार खान के हाथ से बंदूक गिरने के बाद भी उसका जयघोष करता है ...जीया हो बिहार के लाला....फिल्म के आखिर में ये जयघोष फिल्म की शुरुआत में आए उन सपनों की टीस को महसूस करवाता है जब शाहिद खान हमेशा के लिए गांव छोड़कर धनबाद में बसने जा रहा होता है वो गाता है....


एक बगल में चांद होगा एक बगल में रोटियां
एक बगल में नींद होगी एक बगल में लोरियां


अगर आप  बहुत सब्जेकिट्व होकर न देखें तो ये फिल्म आपको बहुत कुछ देखने और महसूस करने की आजादी देती हैं लेकिन अगर आपको सिर्फ वासेपुर के गैंग्स देखने हैं तो इस फिल्म में सिर्फ लूट-खसोट, बंदूक की आवाजें और मां-बहन की गालियां हैं जिसे देखना एक औसत दर्शक को रास नहीं आएगा...फिर भी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस की रेटिंग से ये कहीं आगे है और मनोज वाजपेयी के अभिनय को किसी ऑस्कर की जरूरत नहीं है।


सिर्फ मनोज वाजपेयी ही नहीं फिल्म का हर किरदार कहीं भी किरदार नहीं लगता ....बिल्कुल उसी दुनिया के असली चेहरे लगते हैं जहां कोयले की खदाने बंद तो हो चुकी हैं लेकिन उनकी कालक अब भी लोगों की जिंदगी में इस तरह शामिल है कि सुबह का उजाला भी मटमैला दिखता है.....


अनुराग कश्यप सिनेमा की अपनी एक अलग दुनिया बना रहे हैं जहां सिनेमा .... में सच है..... सिर्फ सच.....कड़वे वाला सच















रविवार, 17 जून 2012

पिता, एक टेंट की तरह होते हैं

मां, एक ब्लैंकेट की तरह होती है। नरम, कोमल और जिसका अहसास ही हर तकलीफ को भुला देता है।


पिता, एक टेंट की तरह होता है। तन कर खड़ा हुआ है। मगर जिसके गिरते ही जिंदगी की सारी सुरक्षा खत्म हो जाती है।


.... ये बातें बहुत पहले कहीं पढ़ी थी मैंने। आज फिर याद हो आईं। हालांकि ये अभी-अभी याद आया है कि ये सब मेरे साथ तब हो रहा है जब बच्चे फादर्स डे मना रहे हैं।


बेमन से घर से निकली थी। पता नहीं था क्यों जा रही हूं, लेकिन जा रही थी। फिल्म देखना एक ऐसा अवसर या कहें कि बहाना होता था जब हम (मैं और मेरे एक करीबी मित्र) मिल लेते थे वरना मिलने की कोई खास वजह नहीं थी।


इस बार सारा प्रोग्राम बिगड़ चुका था। सिंगल थियेटर में फिल्म देखना तय हुआ था,लेकिन मेरे देर से पहुंचने के कारण शो निकल चुका था। कुछ देर एक कॉफी हाउस की तलाश में घूमने के बाद जब गरमी का असर दिखने लगा तो तय हुआ कि कहीं दूसरे शो के लिए चला जाए। दौड़-धूप कर जहां पहुंचे, वहां शो बहुत देर से था। गुस्सा भी था, झुंझलाहट भी मगर कोई ऐसे शब्द नहीं थे हमारे पास कि ये गुस्सा निकाल पाते। हंसी और ठहाकों में सारी बेबसी कहीं बहती जा रही थी। बेबसी..हां बहुत बेबस और बेअदब से मूड में थे दोनों।


खैर इन सारी बातों को पीछे छोड़ एक नए मॉल में जाने का फैसला हुआ। यहां पहुंचकर थोड़ी तसल्ली मिली। सबसे पहला शो कौन सा है....देखने पर पता चला कि फरारी की सवारी। हमारे मित्र शंघाई देख चुके थे मैंने नहीं देखी थी, लेकिन फिर भी काफी थके होने की वजह से यही तय हुआ कि फरारी की सवारी ही देख लेते हैं।


फिल्म शुरू होने से पहले ही हॉल में बच्चों की भीड़ देखकर अंदाजा लग गया था कि हम यहां गलत टाइप की ऑडियंस हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई एडल्ट फिल्म देखने 14 साल का बच्चा पहुंच जाए। लेकिन अब यहां तीन घंटे बैठना था।
....................................




फिल्म शुरू होती है....एक बाप (शरमन जोशी) पूरी तरह अपने बेटे(ऋत्विक) के ‌ल‌िए मां की भूमिका में है। बच्चे के लिए नाश्ता बनाना, स्कूल के लिए तैयार करना और उसके मन की बातें करना। अक्सर ये काम मां किया करती है, मगर इस बच्चे की मां नहीं है। जो पिता है वहीं बहुत कुछ मां सा है। बच्चे की पढ़ाई से लेकर उसके शौक तक हर चीज का ख्याल रखता है। बच्चे का सिर्फ एक ही शौक हैं और एक ही सपना, क्रिकेट। पूरी फिल्म इस सपने को पूरा करने के इर्द-गिर्द घूमती है। क्रिकेट के बीच में फरारी कहां से आती है इसी सस्पेंस के जवाब लिए कुछ देर ये फिल्म बहुत ही स्लो स्पीड के साथ दर्शकों को बांधे रखती है। बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और डायरेक्शन न होने पर भी इस फिल्म में बाप और बच्चे के रिश्ते को दिखाने वाली कई कहानियां हैं।


बेशक हमें ये कायो ((ऋत्विक) ) और उसके पापा रुस्तम(शरमन जोशी) की कहानी लगे। लेकिन इसमें रुस्तम और उसके पापा यानी कायो के दादा (बोमन ईरानी) भी शामिल हैं। ये उन दो बाप-बेटों की भी कहानी हैं जहां बाप अपने सपनों की टूटन को अपने बेटे की जिंदगी में शामिल नहीं होने देना चाहता और उसे क्रिकेटर की बजाए आईटीओ में क्लर्क बना देता है।


फिर इसमें वो दो बाप-बेटे भी शामिल हैं जहां बाप अपना पॉलिटीकल करियर जमाने के लिए बेटे को पूरी जिंदगी बंदूक दिखाकर अपना हुक्म चलाता रहता है। और आखिर में वो बेटा ही बाप पर बंदूक तानकर उसकी पॉलीटिक्स की असलियत सबके सामने लाता है।


तीन घंटे से कम की ‌इस फिल्म में तो तीन तरह के बाप दिखाना काफी है लेकिन असल जिंदगी में इसके अलावा भी कई तरह के बाप होते हैं।
कुछ ऐसे बाप भी हैं जिनके बच्चों ने उनसे सालों से बात नहीं की।
कुछ बाप ऐसे भी हैं जिनका होना ही उनके बच्चों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल है और कुछ ऐसे भी जिनके लिए बच्चे पालना सिर्फ एक सोशल फॉरमेलिटी है।




विधु विनोद चोपड़ा बेशक इस फिल्म के जरिए थ्री इडियट को मिली सफलता के रिकार्ड न तोड़ पाए, लेकिन बेटे के सपनों के लिए की जा रही बाप की जी-तोड़ कोशिशें हम जैसे उन बच्चों को उस भरे हॉल में जरूर तोड़ देती हैं जिन्होंने अपने बाप को मजबूर होते देखा है। बिल्कुल उस बाप की तरह जो बेटे के सपनों के लिए लोन लेना चाहता है, लेकिन उसे कोई लोन नहीं देता, क्योंकि उसकी तनख्वाह इतनी कम है कि उस पर लोन मिल ही नहीं सकता।


नियम कानूनों का पालन करने वाला एक शांत, सीधा-सादा इंसान नियम भी तोड़ता है और उस इंसान की गर्दन भी पकड़ता है जिसकी वजह से उसका बेटा लापता हो गया था। अचानक एक कैरेक्टर में ये शिफ्ट देखना हल्का सा हैरान करता है और ये हैरानी तब खुद ही फना हो जाती है जब याद आता है कि इस वक्त ये इंसान एक बाप है सिर्फ और सिर्फ एक बाप।




न चाहते हुए भी देखी गई ये फिल्म.. खत्म होते-होते मन को‌ फिर से उस चाहत से लबरेज कर देती है जो चाहत बरसों से जमी पड़ी है.. एक ऐसे फ्रिज में जिसका दरवाजा ही नहीं खोला किसी ने। एक पिता को समझने और प्यार करने की चाहत।



















शनिवार, 31 मार्च 2012

बस स्टैंड के वेटिंग रूम में एक घंटा


सूरज उग तो चुका होगा, लेकिन जापान से भारत और भारत में लुधियाना बस स्टैंड तक आते-आते शायद सूरज को देर लग रही थी। कहने को सुबह के पांच बज रहे थे, लेकिन देखने को गुप अंधेरा था जिसे चीरकर देखने पर खुद मुझे चीरकर देखती कुछ आंखें नजर आ रही थी। मैंने शक्ल पर बाहर बजाए बिना पूरी धाक के साथ यहां-वहां घूमना शुरू कर दिया...
यहां-वहां से मतलब, बस स्टैंड पर बाजार भाव से ज्यादा दाम में मिलने वाली दुकानों के आस-पास घूमना शुरू कर दिया। पर दुकानदारों की आंखों में अपना सामान बेचने का लालच था या .....जैसे मेरी ही कीमत लगाकर मुझे खरीदने का..मैं समझ ही नहीं पा रही थी। तेज कदमों से शौचालय की तरफ बढ़ी। बाहर ही काले रंग की एक औरत बैठी थी, जिसकी शक्ल और पहनावे पर बिहार की छाप साफ दिखती थी मगर पंजाब की भाषा और बोली के रंग में वो पूरी तरह रंग चुकी थी...

उसे देखकर मालूम हो गया था कि ये यूपी-बिहार से हर साल हजारों की तादाद में पंजाब आकर बसने वाले लोगों में से एक थी। अंदर जाने से पहले ही बता दिया..दो रुपये लगेंगे। मैंने हामी में सिर हिलाया और अंदर चली गई। बाहर आई तो दीवार पर नजर पड़ी जिस पर लिखा था महिला वेटिंग रूम। शौचायल के बाहर की तरफ एक कमरे में कई सारी कुर्सियां रखी थी। मुझे लगा जब तक सूरज की किरणें सुबह होने का सबूत नहीं देती, तब तक यहीं इंतजार करना सही होगा। मैं वहीं दो कुर्सियां मिलाकर कमर सीधी करके बैठ गई..लेकिन कुछ ही देर बाद देखा कि...

कुछ ही देर बाद देखा कि कमरे के बाहर बैठी औरत से आते-जाते एक-दो आदमी मेरी तरफ इशारा करके पूछ रहे थे..कौन है ये लड़की..कब आई..कितनी देर से बैठी है यहां..जवाब देते वक्त उस औरत की आंखें कहीं और थी सोच कहीं और , और वो जवाब कहीं और से दे रही थी..उसका जवाब यही थी कि हुणे ही आया है...ज्यादा देर नहीं हुआ...इसके बाद उसने जो बोला उससे जवाब देने के उसके लहजे का कारण पता चला...उसकी आंखें कहीं और, और सोच कहीं और इसलिए थी क्योंकि...वो उस लड़की के बारे में सोच रही थी जो अभी कुछ देर पहले यानी मेरे आने से पहले यहां बैठी थी...जो अक्सर इस वेटिंग रूम में आती थी... ऐसे ही समय... जब अंधेरा उजाले के सामने जबरदस्ती सीना तान कर खड़ा हो जाता है...एक नाजायज हक की तरह...उस लड़की का कुछ सामान यहां छूट गया था..औरत छूटे हुए सामान और उस लड़की के बारे में ही सोच रही थी...बोली अभी तो मैंनू कही सी आंटी चाय पी लो तुसी..हुण दीखदी नइ..सामान भी इत्थे छोड़ गया है...अब मेरी आंखें कहीं और थी और सोच कहीं..मैं...


मैं सोच रही थी कि मैं यहां बैठकर कुछ गलत तो नहीं कर रही। वो आदमी वहां से जा चुके थे। औरत खुद ही बात करते हुए मेरी तरफ बढ़ी, बताने लगी...वो तो आता रहता है यहां..काम ही ऐसा है उसका...अभी तो यहीं था, आप देखा था क्या उसको..मैंने कहा नहीं, मैं तो आपके सामने ही आई हूं...
औरत बोली हां सही कह रहे हो मैं यही बोला पाजी नूं...वो पूछ रहा था ...पता नहीं कहा चला गया वो ये सामान यही छोड़ गया...हम जानता है उसको रात का काम करता है..आता रहता है यहां...वो औरत बार-बार कह रह थी..रात का काम करता है..दो-तीन दिन पर आता रहता है यहां...फिर बोली एक आदमी का पांच सौ रुपये लेता है...मैं...मैंने...मैंने पूछा..

वो औरत एक लड़की के बारे में बात कर रही थी। एक आदमी के पांच सौ रुपये लेने वाली लड़की के बारे में, जो हर दो-तीन दिन बाद ऐसे ही अंधेरे जैसे उजाले के वक्त इस वेटिंग रूम में आती थी। उसकी बातों को सुनने के बाद मैं जो समझ रही थी उसे समझना चाहती नहीं थी, इसलिए मैंने उस औरत से पूछा क्या काम करती है वो लड़की...उसने जिस क्रियात्मक तरीके से उसके काम का ब्यौरा दिया वो...मेरे लिए ऐसा था जैसा मैंने बिल्कुल उम्मीद नहीं थी की और...पता नहीं शायद उसके बाद कहने के लिए सवाल बचे थे या पूछने की हिम्मत ही जवाब दे चुकी थी। मैं उसके हर ब्यौरे को झुकलाना चाहती थी.. मैंने औरत से पूछा आपको कैसे पता..कहने लगी ...

मैंने अपनी समझ को नकारने के लिए उस औरत से पूछा- आपको कैसे पता कि वो लड़की क्या काम करती है..वो बोली हमको चाय पिलाती है..दिल की बहुत साफ है, खुद बताया उसने...सिर्फ एक घर है यहां, बाप नहीं है...एक भाई है जो कुछ काम नहीं कर सकता बीमार रहता है..घर का खर्च चलाने के लिए धंधे का काम करने लगी है। हमको बताती है रोती भी है। मजबूरी में करती है। पर ऐसा करना नहीं चाहिए हम भी तो यहां रात भर ड्यूटी देता है फिर सुबह फैक्ट्री में भी काम करता है, शरीर ही जो बेच दिया तो फिर क्या बाकी रहा..करना नहीं चाहिए...पर बेचारा मजबूरी में करने लगी होगी...मैं सुनने से पहले ही समझ चुकी थी ये बात और अब दोबारा सुनने के बाद अपने कानों की सन्नाहट में गरम सरसों का तेल डाल लेना चाहती थी...अब उजाले ने अंधेरे को हटाकर अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी लेकिन मैं अपनी जगह पर सुन्न हो चुकी थी...
बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई, अब भी जैसे अंधेरे की चादर में उजाला पैबंद की तरह था, मैं यहां से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। ये अलग बात है कि अब वो जगह उस तरह महफूज नहीं लग रही थी जैसा सोचकर मैं वहां रुक गई थी। उस औरत के पास बताने के लिए अभी कुछ और भी बाकी थी...बोली हम तो बेटा यहां बहुत लड़कियों की जिंदगी बचाया है। कई दफा भाग-भाग कर आ जाती हैं किसी लड़का-वड़का के साथ। हम प्यार से नाम और घर का पूछता है। इतलाह भी कर देता है मां-बाप को उनके। कई को घर भी पहुंचवाया। अब उनके मां-बाप पैर छूकर जाता है हमारे। मैं सोच रही थी कि एक बस स्टैंड के वेटिंग रूम में मैं वेट कर रही हूं या जिंदगी के कई गहरे रंग मेरा वेट कर रहे थे...और जैसे आते ही बिखरने लगे..एक एक करके ..मैं सिमटती जा रही थी वो रंग बिखरते ही जा रहे थे...
अब वो औरत अपनी जगह पर जाकर बैठ चुकी थी। मैं अपनी जगह पर सीधे होकर बैठ गयी थी। सामान सीधा कर दिया और वहां से बाहर निकलने को तैयार होने लगी। रोका उस औरत ने, कहने लगी अभी बैठ जाओ, इतना उजाला नहीं हुआ सात-एक बजे तक निकलना, कुछ ठीक नहीं है माहौल का...मैंने उसकी बात को अनसुना कर दिया। मैं बाहर निकल आई। धीरे-धीरे बस स्टैंड से बाहर निकलने लगी। एक-एक कदम के साथ सवालों का एक-एक कांबोपैक था। अब मुझे अंधेरे और उजाले के फर्क की परवाह नहीं थी। मैं ऑटो में बैठ गई थी, लेकिन मैं स्तब्ध थी।

दुनिया में वेश्याएं होती हैं, जनरल नॉलेज की तरह मैं ये बात जानती थी, मानना नहीं चाहती थी। मुझे ये मिथकीय चरित्र लगते थे। मैं कभी नहीं मान पाती थी कि एक औऱत अपना शरीर बेच सकती है, पैसों के लिए। लेकिन इस दफा मैंने सच में उस लड़की को देखा था जो अपना शरीर बेचकर आ रही थी। मैं स्तब्ध न होती अगर वो लड़की अपना सामान लेने वापस उस वेटिंग रूम में न आई होती और मैंने उसे अपनी आंखों से न देखा होता, अगर मेरे मन के मिथकीय चरित्र से परदा न हटा होता... जींस-टीशर्ट पहने बेहद शरीफ घर की दिख रही थी वो लड़की। कोई लीपापोती नहीं थी उसके चेहरे पर। जैसे नाक की सीध में दो दिशाओं में बंटा था उसका चेहरा नाक की सीधी तरफ मासूमियत और बांयी तरफ मजबूरी...इशारा करके बताया उस औरत ने यही है वो लड़की...। उसकी बॉडी लैंग्वेज में कहीं से ये नहीं झलक रहा था कि वो एक ऐसा काम करती है जिसे सोचना भी....।

सोमवार, 12 मार्च 2012

दो दुनिया

उनके पास एक वजह थी
बेवजह वक्त बरबाद करने की।
हमें हर वजह को भुलाकर
एक वक्त को हासिल करना था
उनके रास्तों पर मंजिलें खड़ी हुई थी
हमें खड़े खड़े रेलगाड़ी का सफर तय करना था
उन्होंने देखी नहीं होगी अपनी हथेली कभी
हमें हर वक्त हाथ की रेखाओं से लड़ना था
उनके लिए थे समुद्र के किनारों पर लगे हुए मेले   
हमें कुछ बनते ही गढ़ वाली गंगा में स्नान करना था
हम चबा रहे थे चाहतों को च्वीइंगम की तरह
और निगल रहे थे हर मजबूरी को
और उन्हें खाने से पहले उसकी खुशबू को          
चखना था
हमारे दरम्यान कोई दूरी नहीं थी मीलों की
इसी दुनिया में
उनकी बहुमंजिला इमारत के सामने हमारा
एक कमरे वाला किराये का घर था।

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

पुरुष प्रधान कविता



नाबालिग लड़की से बलात्कार
पत्नी पर, शराबी पति का अत्याचार
बेटी के प्यार पर, बाप का प्रहार
ऐसी तमाम खबरों को लिखने 
और पढ़ने के बावजूद भी
मैं अपनी रचनात्मकता की फेहरिस्त में
जोड़ना चाहती हूं
एक पुरुष प्रधान कविता,
एक धारावाहिक
या ऐसी कहानी
जो पुरुष के अहसास और अनुभव बयां करे
लेकिन सांचों में ठिठके
इस तबके की तारीफ अफजाई के लिए
मुझे लंबा इंतजार करना होगा
या फिर जल्द ही
किसी आदमी को पुराने सांचों को तोड़
बाहर निकलना होगा
मिसाल बनना होगा
ताकि मेरी रचनात्मकता को
एक तथ्य मिल सके
और महिला समाज को एक उम्मीद

बुधवार, 4 जनवरी 2012

जब दो वक़्त मिलते हैं

वक़्त वक़्त की बहुत सी बातें है
शाम के एक ख़ास वक़्त पर
माँ कहती है
धुप बत्ती करो
संध्या समय है
उस वक़्त वो बाल नहीं सवारने देती
दर्पण में नहीं निहारने देती
ये  उनका एक अंध विशवास लगता है
पर जब माँ कहती है
दो वक़्त मिल रहे हैं इस वक़्त
दरिया भी रुक जाता है ...
तो ये मुझे
अपना एक
अनछुआ अहसास लगता है
जैसे वक़्त के रुक जाने की कल्पना से
मन सिहर जाता है
वक़्त आगे बढ़ने लगता है
तो जी घबराता है
.
.
ये माँ कैसी बातें करती है
कि इस वक़्त
एक वक़्त
दूसरे वक़्त
से मिल जाता है
जैसे सुबह को शाम
अपने आगोश में ले लेती हो
या सूरज की  देह
चाँद बनकर निकलती हो
दरिया कितना खुशनसीब है
जो वो रुक पाता है
ये देखने के लिए
मेरा तो सारा वक़्त ही
उस वक़्त की कल्पना करने में निकल जाता है


गुरुवार, 4 अगस्त 2011

उसका खेत और मेरा दिल

 (सावन का महीना है मगर इस बार जुलाई में मानसून मुंह बनाये बैठा है
न तन भीग पाया न मन , हम कवि दिल लोगों को बारिश कुछ ज्यादा ही पसंद होती है , मुझे बहुत पसंद है मेरे लिए शायद antiseptic की तरह  है. खैर दिल दे जरा हटकर देखा तो वो खेत दिखाई दिए जो बारिश के इन्तजार में है वो किसान जिसके लिए शायद ये बारिश antiseptic नही बल्कि अमृत की तरह थी जीवनदायी आखिर लुधिअना में आज काफी दिन बाद सुबह का स्वागत बरखा ने किया है)


मेरी नजरें भी थी आसमान तरफ
वो भी देख रहा था
बनते बिगड़ते बादलों को
मेरी रूह भी थी उदास और प्यासी
 वो भी बेचैन था सूखे से
हम दोनों रो रहे थे
और चाहते थे
कि
काश ये
आकाश भी रो दे
हमारे आंसुओं को धो दे
मैं  नही खा पा रही थी कुछ भी, कुछ दिनों से
और
उसके घर नही बना था कुछ, बहुत दिनों से
बहुत  दिनों से हमारे दिन थे सीले सीले
और रातें गीली गीली
पर हम भीग नही पाये थे
जीत नही पाए थे
अपनी उम्मीदों से
 उसका खेत ख़ाली था
और मेरा दिल 

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

मैं लिखना चाहती हूँ

 (मेरे लिए जिंदगी में लिखना बहुत जरुरी है ..उतना ही जितना कि जीना- खाना-पीना
जिन दिनों नहीं लिख पाती वो दिन बेचैन होते हैं और रातें करवट करवट
लेकिन कई बार हमारे लिखने का विषय बिलकुल rigid  हो जाता है यानि हम एक ही दुनिया के इर्द गिर्द घूमते रहते है
सावन, साजन, मोहब्बत, मंजिले....ये कुछ ही सब कुछ नही हैं
अगर हम शब्दों को जोड़कर किसी बात को बेहतरी से कहने का हुनर रखते है
तो क्यों न कुछ ऐसा कहें जिससे एक दिशा मिले हमें भी पढने वाले को भी
कुछ ऐसा ही करने की कोशिश थी मगर फिर ये कविता बन गई ...)

मैं लिखना चाहती हूँ
कुछ ऐसे लेख जो जुड़े हो देश, दुनिया और समाज से
कुछ ऐसी कवितायेँ
जिनमे न हो बारिश, फूल, भवरे, रास्ते, मंजिले और तुम्हारा जिक्र
जिनमे हो भूख, तड़प, समानता, संघर्ष और क्रांति की बातें
..
..
.
आज भी जब में लिख रही हूँ कुछ
तो चाहती हूँ कि
लिखूं
एक मीडिया मुग़ल का अंत (रुपेर्द मर्डोक के अखबार न्यूज़ ऑफ़  द वर्ल्ड के  बारे में )
समाज सेवी अन्ना और अड़ियल सरकार के बीच चल रहा द्वन्द
कुछ कर नही सकती मगर कहूँ कुछ
उन बम धमाकों के बारे में जो आतंकियों के लिए थे
महज जन्मदिन के पटाखे
मगर उनसे बेडोल हो गई थी कई जिंदगियां
और भरा पूरा
हँसता खेलता
अपनी चमक से
सारी दुनिया को रोशन करता
एक शहर
मैं लिखना चाह रही हूँ बहुत दिनों से
पद्नाभ्स्वामी मंदिर के खजाने
और
उस खजाने को खोलने की याचिका डालने वाले
व्यक्ति की मौत से
पनपे अंधविश्वास
और अथाह दौलत
के इस्तेमाल के बारे में कुछ
जब पीने अखबार में देखी मर्लिन मुनरो की मूर्ति की तस्वीर
जिस पर टिकी हैं सारी दुनिया की निगाहें
और जिस ड्रेस के कारण ही
कहा जाता है कि
हो गया था उसका तलाक
हां मैं लिखना चाह रही थी बहुत कुछ इस महंगाई के मौसम
में टाटा के ३२ हजार का घर बनाने के प्रोजेक्ट के बारे में कुछ
देखो न
कितना कुछ था मेरे पास लिखने के लिए
और मैं बस लिखती रही
तुम्हे
तुम्हारे इन्तजार को
हर बार आने वाली इस सुखी सी बहार को

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

बारिश, धरती, आसमान मैं और तुम ..मेरे प्रिये

(एक ऐसे समाज में जहाँ लड़के नौकरी करने वाली लड़कियां ढून्ढ रहे है
और लड़कियों का अपने कर्रिएर के लिए शादी बच्चे यहाँ तक कि कई बार प्रेम को भी दरकिनार कर देना आम हो गया है
ये कविता उस औरत कि बात को बयाँ करने के लिए है जो अपने पति से बहुत प्यार करती है और .... उसके प्यार के साथ ही अपने सपनो को सतरंगी बनाना चाहती है जो इक्कीसवी सदी में रहकर भी सिर्फ अपने लिए नही जी रही...अपनों के लिए जी रही है
ये उसका नारीत्व भी हो सकता है और उसकी आदत भी जिसे वो आज के आधुनिक युग में justify  कर पाती है )




आज फिर आई बारिश
दरवाजे पर हुई जोरों से आवाज
बहुत दिनों बाद अनमनी सी नींद
जल्दी खुल गई आज
मगर मैंने दरवाजा नही खोला
नही देखा बाहर
झांककर
किस तरह पेड़ हरे भरे हो गए है
बूंदों का स्पर्श पाकर
किस तरह हवा के सर्द झोंकों से
पंछी घोंसलों में अलिगनबद हो गए है
किस तरह धरती भीग रही है
चुपचाप एक शांत अहसास के साथ
अहसास जो कह रहा है
कि दूरिया हमेशा फासले नही होते
और नजदीकियां हमेशा करीब होने का प्रमाण पत्र नही दे सकती
जब आसमान धरती को ये अहसास दे सकता है
जब बूंदे पत्तो को चूम सकती है
पंछी आजाद गगन को छोड़ अपने घरोंदे  में
रम सकते है
तो तुम क्यों नही हो सकते मेरे सबसे करीब
हमेशा नजरों के सामने होकर भी
क्यों मैं हमेशा कहती हूँ तुमसे आधी बात
और छुपा लेती हूँ आधी
बताने की चाहत रखते हुए भी
क्यों मुझे लगता है कि मेरे जीवनसाथी
तुम नही समझोगे इस बात को
सुनोगे तो नही दोगे फिर मेरा साथ
तुम रूठ जाओगे मुझसे
मन्वाओगे अपनी जिद
थोप दोगे अपना निर्णय
चादर, परदे बच्चों का स्कूल सब कुछ तुम कहते गए
मैं रजामंद होती गई
मेरी पसंद का सवाल ही नही उठा
मैं खो गई तुम्हारी दलीलों
और दुनिया  की मुझसे जयादा समझ होने के तर्क में
मगर मेरे प्रिये अब जब मैं
फिर से रंगना चाहती हूँ अपनी
जिंदगी को अपने रंग में
वो रंग
जिस पर तुम्हारे प्यार की छाया
और मेरी उम्र की धूप ने
डाल दिया था पर्दा
तो दिल से तुम्हे बताकर
तुम्हारी तस्वीर से ढेरों बातें करके
अपनी आखों से तुमसे सबकुछ कहकर
और होठों को सीकर
भर दिया है नौकरी के लिए आवेदन पत्र
इस उम्मीद के साथ की तुम इसे सिर्फ मेरा नही समझोगे
हमारा समझ कर स्वीकार करोगे
और तुम्हारी सहमति के साथ मैं
महसूस कर सकूंगी
आसमान और धरा की दूरियों के बीच पनपते
हमेशा करीब होने के अहसास को
और
पी सकूंगी तुम्हारे प्यार की
वो बूँद जिसका मैंने  चातक की तरह
इन्तजार किया है
हर सावन को स्वाति नक्षत्र  मानकर

मंगलवार, 24 मई 2011

पगडंडी


 झीलों के किसी शहर में
तुम्हारे साथ रहना
समुंदर के किनारे
नंगे पाँव हाथों में हाथ डाले घंटों टहलना
पहाड़ों की हसीं वादियों में
जोर से तुम्हारा नाम पुकारना
और कभी शाम ढले
फूलों के एक बगीचें में तुम्हारे साथ
बैठकर
घर लौटते पक्षियों को देखना
तुम्हारे लिए तुम्हारे साथ
प्रक्रति के इस हर एक रूप को साक्षी मानकर
मैं चाहती हूँ
तुम्हे प्रेम करना
पर क्या तुम...
क्या तुम चाहोगे ?
मेरे साथ इन बहारों के बीच
अचानक आ गए
पतझड़ में
किसी  पगडंडी पर चलना


कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...