गुरुवार, 30 सितंबर 2010

चलो हम काफ़िर ही सही.

मुझे जानने और समझने वाले कुछ लोग अक्सर कहते है कि..हिमानी तू किताबों और कहानिओं की दुनिया में रहती है. तू सच देखकर भी शतुरमुर्ग  की तरह आँख बंद किये हुए है. कहानिओं वाला प्यार , किताबों के विचार ऐसा कुछ भी तो नही है दुनिया में आज फिर क्यों इन ख्यालों में खो कर अपनी जिंदगी के अहम् पल ख़राब कर रही है . छोड़ दे किताबे पढना और ख्वाब गढ़ना, बाहर निकाल. दुनिया को देख और उसकी सचाई को भी. 
ये आज की बात नही है जो भी,    जैसा भी,   जहाँ भी मिला,   उससे मुझे यही मशविरा मिला...और मैं ????  मैं आज तक हू ब हू ..ज्यों की त्यों ..वैसी की वैसी ...और और मशविरे सुनती जा रही हूँ ...और और ख्वाब बुनती जा रही हूँ. ऐसा नही है  कि मैंने कभी बदलने की कोशिश नही की. जब जब जिंदगी ने झटका दिया तब तब मैंने बदलने की प्रतिज्ञा ले डाली है. एक दिन बदली रही दो दिन बदली रही ...मगर बादल हैं आखिर कब तक न बरसेंगे ?  मशविरे की धूप सर पर खड़ी रही और मेरे मन के बादल अपनी जिद पर अड़े रहे. बारिश होती रही. धूप में भी मैं भीगती रही अपने ही पानी से मैंने खुद को पानी पानी कर लिया. कभी देखा है बादलों को खुद को भिगोते हुए..मेरे साथ कुछ ऐसा ही होता रहा..भीगना यूँ भी बहुत भाता है .. तो बारिश कहाँ से आई है ये कभी सोचा ही नही. बहरहाल मेरे बदलने की नाकाम कोशिशे जारी है आज भी ..
मगर....मगर एक सवाल जो ये सब सोचते हुए कोंधा है दिमाग में. मैं किताबों की दुनिया में हूँ , कहानिओं पर यकीं करती हूँ . चाहती हूँ ये कहानियां सच हो. कुछ को सच करने में मैं भी योगदान दे सकूँ ...किताबों में दर्ज मोहब्बतें , मासूमियत, मतवालापन, सपनो को पूरा करने की जिद, मन से मन का मिलना ...अगर ये सब कुछ झूठ है और हमें किताबें पढना छोड़ देना चाहिए. शामिल हो जाना चाहिए भली बुरी सी दो चेहरों वाली इस दुनिया में तो फिर ..शेष क्या बचा... आज कमसकम किताबें तो है ख्याल संजोने और सपने बोने के लिए. आने वाले समय में हम क्या पढ़ाएंगे आने वाली पीढ़ियों को. क्या मिलेगा किताबों में उन्हें नफरत, धोखा, स्वार्थ, हर शख्स एक सामान सा,  हर रिश्ता एक व्यापार सा ...और हर मकसद के पीछे एक राजनितिक षड़यंत्र ..
हम किताबों को छोड़ना चाहते है या किताबों का कलेवर ?? हम इतने  व्यावहारिक हो गए है कि भावनाए  महज एक बेवकूफी के कुछ और मायने ही नही रखती हमारे लिए. हम महफिलों में जाना चाहते है और मधुशाला में भी. हम मोहब्बत भी करना चाहते है और मिलन भी. हमारे मकसद भी हैं और मंजिलों की आरजू भी. ........मगर हम हर काम को शातिरता से करना चाहते है. चालाकी के सारे पैमानों से भी ज्यादा चालाक बनकर . किताबों में जो कल्पना है उसे तो कबिर्स्तान पहुंचा दियाक गया है कब का. सब आँखे खोल कर जी रहे है ..जो आँखों का इस्तेमाल उस कल्पना और कल्पना के कमरों में घूमकर अपने लिए घर बनाने के लिए कर रहे है उन्हें काफ़िर समझा जा रहा है काफ़िर मतलब नास्तिक  होता है लेकिन यहाँ जब श्रधा अपने स्वार्थ के लिए ही बची है तो ऐसे में किताबों की कल्पना में खोया रहने वाला काफ़िर ही हुआ ..................चलो हम काफ़िर ही सही. 

बुधवार, 29 सितंबर 2010

एक नूर से सब जग उपज्या



मुझे कल गाजिअबाद अपने घर आना है, लेकिन नही आ पाऊँगी शायद, कारण अयोध्या मुद्दे पर फैसला आने वाला  है. पता नही क्या फैसला होगा.फैसले के बाद क्या होगा. दंगे, शांति, सुलह या एक नए रस्ते की तलाश या फिर हमारी कल्पनाओ से परे कुछ. सब आपस में बतिया रहे है क्या होना चाहिए  ???
सब अपने अपने ख्याल जता रहे है , यहाँ किसी ने कहा की मेरे ख्याल से वहां एक स्कूल बना दिया जाना चाहिए. उसमे हिन्दू मुस्लिम दोनों के बच्चे पढ़ सकेंगे. दूसरी आवाज आई बेशक बाकी जगह कुछ भी हो रहा हो लेकिन इस वजह से कई दिनों  से घर में बेरोजगार बैठे यु पी के कुछ होम गार्ड  काम पाकर राहत  महसूस कर रहे है. बातों के बीच से टी वी पर नजर दौड़ाई तो अवध और अयोध्या से  भाईचारे की मिसाल पेश करती कहानिया दिखाई जा रही थी. जैसे वहां तो लोग हिन्दू मुस्लिम और कौम नाम की बातों को जानते ही नही है. सिर्फ अयोध्या और अवध ही क्यों देश भर में ऐसी कई मिसाले है जहाँ लोगों ने हिन्दू मुस्लिम के बीच की खाई को पाट कर अपनी अलग पहचान बनाई है.
हम आपस में बात करते हुए भी लोगो से यही सुनते है कि क्या रखा है मंदिर और मस्जिद में. कोई  कबूतर से पूछे कि कौमी एकता क्या है कभी मंदिर पे बैठा होगा कभी मस्जिद पे. ऐसे मिस्रो और मिसालों की कमी नही है जो हमें ऐसी सोच से दूर रहने के लिए कहते है जहाँ दो धर्मो के बीच दुश्मनी पनपे उनमे कोई भी बैर हो ...जहाँ तहां सून रही हूँ अधिकतर लोग चाहते है कि मामला सुलझ जाये और फिर जो आग बुझ सी गई है उसे अब चिंगारी दिखा कर राख लेने का क्या मतलब. 
पूरा देश डर के सायें में है और मुद्दा सिर्फ इतना है कि एक जगह पर मंदिर बनाया जाये या मस्जिद. मेरा एक मासूम सा सुझाव है अगर कोई पढ़ ले तो एक ऐसा निर्माण किया जाये जहाँ भगवान् के नाम का हर चिन्ह मौजूद हो. ईसामसीह, राम, कृष्ण, खुदा की इबादत, गुरबानी.
सवाल ये भी है कि जब कोई हम आप मैं चाहते ही नही कि कोई विवाद हो दंगा हो तो कौन लोग हैं हमारे ही बीच से जो खा म खा चिंगारियां भड़का  रहे है. क्या राजनीती  की लौ में तेल डालने के लिए महानुभाव देश को जला डालना चाहते है .
सवाल बहुत सारे है जवाब शायद एक कि

 एक नूर से सब जग उपज्या.............


 

शनिवार, 25 सितंबर 2010

ताकि छोटा न हो शब्दों का आंचल

शब्दों से हमारा रिश्ता बहुत ख़ास होता है . लेकिन इस रिश्ते का महत्व तब तक एक रहस्य बना रहता है जब तक की कोई ऐसी परिस्थिति न आन पड़े कि  हमारे पास भावनाए हो और शब्द न मिले. वो एक अनमना सा पल जब अचानक शब्द गले तक पहुँच कर फिसल जाये जुबान तक आ ही न पाए. कितनी तकलीफ से भर जाता है मन ,  मन की बात कहने को जुबान व्याकुल सी हो जाती है लेकिन दिमाग है कि एक भूलभुलैया में खो जाता है . शब्दों की भुलभुलिया . जहाँ अपनी भावनाओ को सही शब्द दे पाना एक मुश्किल से भरा फैसला होता है.


ये बातें मैं किसी प्रेम प्रसंग या किसे कहानी के वश में होकर नही लिख रही हूँ, बल्कि पिछले कुछ दिनों से एक अखबार के दफ्तर में काम करते हुए, हुआ एक अनुभव है , जहाँ शब्दों के लिए शब्दों के ही बीच में हर रोज एक  जंग सी होती है. सभी के सुझाये गए शब्दों की अपनी एक वजह है. उनकी बोली, उनका परिवेश,उनकी पढाई .....और फिर हर शब्द के साथ काम करने वाली उनकी निजी सोच. मगर उस एक वक़्त जरुरत होती है हर तरह से फिट एक अदद शब्द की. शब्द मिलने के बाद उसकी लिखावट पर चर्चा. कहीं छोटा उ कही बड़ी ई. हालाँकि हर अखबार की अपनी एक स्टाइल शीट होती है लेकिन फिर भी हिंदी के अख़बारों में भाषा गत शुद्धता को लेकर बहुत सारा विरोधाभास है ....पढाई के दिनों में हमें अच्छी अंग्रेजी के लिए द हिन्दू पढने को कहा जाता था लेकिन वही हिंदी को लेकर हम अपनी अशुधता को दूर कर सके उसके लिए किसी एक भी अखबार का नाम ध्यान नही आता . ख़बरों की अपनी अलग पहचान के साथ अखबार या चैनल की पहचान उसकी भाषागत शैली के साथ भी जुडी है.मीडिया में हर बढ़ते दिन के साथ नए नए प्रयोग हो रहे है अलग तरह के कोलुम्न्स ले आउट लेकिन भाषा को लेकर सिर्फ एक निजी सोच और समझ  है वास्तव में सही क्या है इसका फैसला एक बड़ी बहस का बाद भी न निकले शायद. कुछ आगे बढ़कर कहीं कहीं तो हिंदी लिखने के साथ भी अजीब गरीब आसान नुस्खे अपनाये जा रहे है. एक तर्क ये होता है की वही लिखना है जो पाठक  को समझ में आये. लेकिन समझाने का ये कौन सा तरीका है की शब्द की बनावट ही अपने हिसाब से तय कर ली जाये. और फिर आम भाषा बोलचाल की भाषा और अखबार और चैनल की भाषा में कुछ तो फर्क होता है न . मुझे लगता है कि यंग इंडिया का मीडिया बनने से पहले शायद इंडिया का मीडिया बनना ज्यादा जरुरी है क्योंकि यंग इंडिया भी इंडिया को खोना नही चाहता वो अपने जुगाड़ करना अच्छे से जानता है उसके लिए इंडिया की भाषा, संस्कृति को idiotik  बनाना सही नही होगा.
शब्द भी बाकी चींजों कि तरह हमारी अनमोल धरोहर है उस एहसास से ही मन मायूस हो जाता है कि कहीं कोई शब्द खो गया है
प्रोयोगों के इस दौर में झांक के देखेंगे तो एक गहरी खाई है जिसमे बहुत सारे शब्द गिरा दिए गए है उन्हें वापिस लाने की कोशिश करनी चाहिए .............ये कोशिश कामयाब होना भी निहायत जरुरी है ताकि शब्दों के आंचल में हमेशा हमारी भावनाओ की बयाँ करने के लिए जगह रहे

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

अंग्रेजी से चल रहा है एक्स्ट्रा marrital affair

उसका आयोजन ख़बरों में छाया हुआ है. कहीं एक दिवस. कहीं सप्ताह .कहीं पूरा पखवाडा. कोई एक शब्द कह रहा है. कोई कई वाक्य, और कोई दे रहा है पूरा भाषण. १४ सितम्बर हिंदी दिवस है. हिंदी हमारी ये, हिंदी हमारी वो. हिंदी के लिए हमें ये करना चाहिए, हिंदी के लिए हमें वो करना चाहिए. 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे'. पूरा साल क्या होता है हम जानते है.
अभी कुछ दिन पहले जो हुआ वो बताती हूँ
एक बच्चे से बात कर रही थी मेरा सवाल हिंदी में था उसका जवाब अंग्रेजी में सवाल था , कौन सी क्लास में पढ़ते हो?  जवाब दिया फिफ्थ ए.
बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ? जवाब दिया 
आई वांट  बिकेम मैथ्स टीचर. 
सुनकर हंसी आ गई और साथ ही आई एक सोच भी. क्या पढ़ रहे है बच्चे ?? कैसे बढ़ रहे है बच्चे ?? न हिंदी बोलना चाहते है न अंग्रेजी बोल पाते है. उर्दू और संस्कृत की तो भनक तक नही है उन्हें. शायद ही वो जानते हो कि ये भी दो भाषाएँ है. बच्चे प्रेमचंद को नही जानते उनकी कहानी ईदगाह को पढ़ भी ले तो वो चीमटा  क्या होता है , ये ही नही समझ पाएंगे. वो नही समझ पाते जब उनसे कहा जाता है कि पुनजब में धान उगाया जाता है उन्हें बताना पड़ता है कि धान मेंस राईस होता है यानि चावल.
एक समय था जब हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद  करते थे अब बच्चों को हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करके बताना पड़ता है. वो अपने आस पास के शब्द ही नही समझते. उनकी सेब शब्द को सुनने समझने कि शक्ति उतनी नही है जितना वो एप्पल को समझते है. बच्चों की बात तो ये है कि वेह स्कूल में अंग्रेजी बोलने कि जबरदस्त बाध्यता से बंधे है और घर का देसी माहौल उन्हें उस सीखे पढ़े को उस तरह अप्लाई नही करने देता जिस तरह वो सीख रहे है. नतीजा टूटी फूटी अंग्रेजी और आधी अधूरी हिंदी.
अब अगर बात अपनी, यानि हर रोज हिंदी लिखने पढने वालों,  हिंदी की रोटी खाने वाले लोगों की करें तो सुकून और कम हो जाता है
हर दिन शब्दों में उलझना, उन्हें समझना.  एक अजनबी की तरह तमाम शब्दों से रोज मुलाकात होती है.  कुछ शब्द ऐसे जो समझ आते है लिखावट में नासमझी हो जाती है . कुछ लिखे देते है लेकिन वो शब्द कहीं सुने हुए नही लगते. हर दिन की  अलग कहानी है. 
आखिर इस कहानी की वजह क्या है,पढाई का कमजोर ढांचा या पढने में हमारी कमजोरी?????
एक वजह तो भाषा गत बाध्यता भी है हम अंग्रेजी से कुछ ज्यादा ही प्यार कर रहे है हिंदी से शादी हुई  और अब ये एक्स्ट्रा मरिटल अफ्फैर अंग्रेजी के साथ कुछ ज्यादा ही लम्बा हो रहा है और ज्यादा ही संजीदा भी. 
अब हम मनाते रहे हिंदी दिवस. हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाडा एक दिन जब ये हिंदी रूठ कर उन अग्रेजों के देश चली जाएगी तब शायद उसकी कीमत पता चलेगी.ये धमकी नही है न हीमैन धमकी देने की हैसियत रखती हूँ शायद क्योंकि मैंने भी अंग्रेजी सीखी है बोली है पढाई है पर इतना कहना काफी होगा की हिंदी भाषाओँ में मेरा पहला प्यार है.


शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

दिल का कचरा



बेशर्म ख्वाब 
बेअदब ख्वाइशें
बगावती ख्याल 
ख़ाली से इस दिल में 
कितना कचरा भरा है 

हकीकी से रु ब रु 
हुक्म की तामील करता 
हदों में रहता 
हर शख्स 
उपरोक्त कचरे से दूर
कितना साफ़ सुथरा दिखता है 

आदतों में शुमार अदब 
तहजीब से लदा 
तरकीबों से अलहदा 
ये हुस्न मुझे मगर 
नागँवार लगता है 

अब चाहती हूँ इस जिस्म में भी नूर हो 
शर्मों ह्या की इस चाशनी में 
शरारत का तड़का 
तवे सी रोटी के सुरूर में तंदूरी नान सा गुरूर हो 

दिल में थोडा कचरा होना भी 
जीने के लिए जरूरी है 



कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...