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मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला...

मां को एक बार कहते सुना था, ‘’जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं, या तो किसी के हो जाओ या किसी को अपना बना लो।‘’ 
 
फिर जब कविताएं पढ़ने का शौक जोश-खरोश से पूरा करने लगी तो मशहूर कवि पाश की एक कविता पढ़ी,
‘’बीच का रास्ता नहीं होता‘’

मां और पाश दोनों की ही बात से साफ है कि हम किसी एक ही तरफ होते हैं या तो ‘’हां ‘’ या तो ‘’ना‘’। या तो डूबना या तो तरना। मगर अफसोस मेरे अनुभव में इन दोनों अजीजों की यह सीख जिंदगी से बहुत मेल नहीं खा पाती। अक्सर ऐसा होता है कि न तो हम किसी को अपना बना पाते हैं पूरी तरह, न किसी के हो पाते हैं पूरी तरह। अक्सर ऐसा होता है कि जिंदगी बीच का ही कोई रास्ता अख्तियार कर लेती है और हम ना-ना करते हुए भी उसी बीच के रास्ते पर अपनी खुशियों की मंजिल बना लेते हैं। अक्सर यह फैसला करना काफी मुश्किल होता है कि हमें किसी एक तरफ जाना है या फिर बीच का ही कोई रास्ता निकालना है।





कई सालों पहले एक शाइर की जिंदगी में भी ऐसा ही मोड़ आया जब उसे किसी एक को चुनना था, या तो वो मतलब की दुनिया के हिसाब से खुद को ढाल ले और मशहूर हो जाए या फिर ऐसी दुनिया को छोड़कर अपनी अलग एक गुमनाम दुनिया बसा ले। अबरार अल्वी चाहते थे कि वह शाइर दुनिया के हिसाब से ढल जाए और गुमनामी की बजाय दुनिया के इस बदलाव को स्वीकार करके मशहूर हो जाए। वो दुनिया जिसने उसकी नज्मों को कूड़ेदान में बिना पढ़े फेंक दिया। वो दुनिया जिसने उसकी बेकारी बेरोजगारी और मुफलिसी को देखा और उसे देखकर पहचानने तक से इनकार कर दिया। और वही दुनिया जिसने तब एकदम से अपना तौर-तरीका ही बदल दिया, जब देखा कि उसी बेकार, बेरोजगार और मुफलिसी से घिरे शाइर की नज्मों को लोग सीने से लगाए फिरते हैं। उसी दुनिया ने उस गुमनाम शाइर को अपना अजीज बताना शुरू कर दिया। उसके नाम के कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए।

अपनी सारी जिंदगी जो शाइर अपनी एक नज्म छपवाने के लिए अखबार और मैग्जीनों के चक्कर काटता रहा हो उसके लिए अपने नाम की किताबों के छपते देखने से बड़ा सुख क्या हो सकता था। लेकिन उसे यह सुख उस दुनिया के हाथों कबूल नहीं था, जिसने बुरे वक्त में उसे लात मारी थी। फैसला करना मुश्किल था,लेकिन जो फैसला लिया गया उसने मेरा ध्यान आज फिर मां और पाश की सीख की तरफ खींच दिया... 
-"जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं, या तो किसी के हो जाओ
या किसी को अपना बना लो।"
 


-"बीच का रास्ता नहीं होता"

शाइर ने बीच का रास्ता नहीं चुना,  उसने परायी और मतलबी दुनिया को तो अपना बना लिया, लेकिन उसका होना किसी भी सूरत में कबूल नहीं किया। उसने कबूल की गुमनामी की अपनी अलग दुनिया बसाना।
.....और इस तरह हिंदी सिनेमा की एक फिल्म ने इतिहास में हमेशा के लिए अपना नाम दर्ज करवा लिया।

प्यासा

निर्देशक-गुरुदत्त
निर्माता-गुरुदत्त
लेखक-अबरार अल्वी
अभिनय-गुरुदत्त, माला सिन्हा, वहीदा रहमान
...

फिल्में देखना या किताबें पढ़ना मेरे लिए एक नई दुनिया का सफर करने की तरह है। क्योंकि मैं अक्सर अपने घुमक्कड़ी के शौक को पूरा नहीं कर पाती इसलिए समय मिलते ही फिल्में देखती हूं या कोई नई किताब पढ़ना शुरू करती हूं। फिलहाल बात सिर्फ फिल्म की। यह शायद मेरी गलती रही कि अब तक मैंने सिर्फ अपने समय की ही फिल्में देखने पर गौर किया। पिछले कुछ वक्त से कुछ अच्छे लोगों की संगत और सोहबत का असर हुआ कि कुछ पुरानी फिल्में देखने लगी। पाकीजा, मुगल-ए-आजम, तीसरी कसम हाल के ही कुछ दिनों में मैंने देखी हैं। पाकीजा में राजकुमार-मीनाकुमारी की अदायगी और डायलॉग लुभाते हैं तो मुगल-ए-आजम की लंबाई के साथ उसके दर्शकों को बांधे रखने की अदा और तीसरी कसम में भोले-भाले प्यार की अधूरी कहानी। लेकिन इन सब फिल्मों में प्यासा को देखने के बाद लगा कि शायद फिल्में देखकर तृप्त होने की मेरी कोशिश प्यासा देखे बिना प्यासी ही रह जाती। 
इस खूबसूरत फिल्म के लिए गुरुदत्त साहब का शुक्रिया..

एक कबूलनामा
मुझे जानने वाले सभी लोग जानते हैं कि मैं शाहरुख खान को
लेकर थोड़ी दीवानी हूं। इसकी कोई खास वजह नहीं है...यूं भी किसी को पसंद या प्यार करने 
की कोई वजह होती नहीं है...लेकिन प्यासा देखने के बाद जो पहली प्रतिक्रिया मेरे लफ्जों में आई वो यही थी कि .... यार ... गुरुदत्त को मैंने आज तक कभी देखा क्यों नहीं था... ;)

शनिवार, 26 जनवरी 2013

''करियर, प्यार और सेक्स'' किसे इनकार करेंगे आप

इनकार (2013)

प्रोड्यूसर-प्रकाश झा

डायरेक्टर-सुधीर मिश्रा
अर्जुन रामपाल
चित्रांगदा सिंह

तुम और मेरे जैसे लोग, जो प्यार के अलावा और भी बहुत कुछ चाहते हैं...क्या उनके बीच कुछ मुमकिन है…?... इसका जवाब है ‘’इनकार’’
फिल्म शुरू होती है सेक्सुअल हैरेसमेंट से औऱ खत्म होती है लव कन्फेशन पर। कहानी शुरू होती है बचपन की एक सीख से और खत्म होती है, जवानी के एक सिलसिले पर। कुल मिलाकर देखें तो दो बातें कही जा सकती हैं। या तो कहानी, फिल्म के हिसाब से हल्की थी, या फिल्म ही कहानी पर भारी पड़ गई। इन दो बातों के बावजूद भी इस फिल्म को देखऩे से इनकार नहीं किया जा सकता। सुधीर मिश्रा का डायरेक्शन और अर्जुन-चित्रांगदा की सुपर एक्टिंग के साथ ही फ्रेश कांसेप्ट वाली इस फिल्म को एक बार देखना तो बनता है। अब जब एक बार आप इस फिल्म को देख रहे होते हैं, तो आपको लगता है कि यह फिल्म एक बॉस के अपनी फीमेल एंप्लाई को सेक्सुअल हैरेस करने की कहानी है। यानी ऐसी कहानी, जहां बॉस, एक महिला कर्मी को कॉफी पर मिलने के बहाने होटल में बुलाता है और जबरदस्ती उसके साथ संबंध बनाता है। इस सबके बदले महिला कर्मी को मिलता है प्रमोशन औऱ नौकरी के तयशुदा फायदों से कहीं ज्यादा लाभ। (नोट-हर ऑफिस में बॉस इस तरह की कुछ न कुछ हरकतें जरूर करते हैं वो शारीरिक भी हो सकती हैं, मौखिक भी और ऐसी भी, जिनकी कोई भाषा नहीं है, इसे मद्देनजर रखते हुए हर किसी को अलग-अलग लग सकता है) मगर फिल्म की कहानी में सेक्सुअल हैरेसमेंट का सिर्फ नाम होता है। फिल्म सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस की सुनवाई के तीन दिनों में तीन घंटे पूरा करती है और खत्म होने पर पता चलता है कि जिन लोगों के बीच सेक्सुअल हैरेसमेंट का केस चल रहा होता है, वो दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे, हैं और शायद हमेशा करते रहेंगे। जहां प्यार हो फिर वहां कोई केस या कोई तीसरा कुछ नहीं कर सकता। यहीं पर फिल्म खत्म हो जाती है। इसके बावजूद भी लगभग तीन घंटे तक देखते रहने की कई वजह भी इस फिल्म में है। कहानी की लाइन से हटकर भी फिल्म में औरत और आदमी के बीच की अलग-अलग तरह की भावनात्मक कमजोरियों को बारीकी से दिखाया गया है। आज के समय में यह फिल्म हर उस लड़की और औरत को एक बार जरूर देखनी चाहिए, जो जिदंगी में सच में प्यार के अलावा और भी बहुत कुछ चाहती है। जो सपने देखती है और उन्हें पूरा करना चाहती है। जो एक औरत होकर भी टीम लीडर बनना चाहती है। सदियों से चली आ रही उस सोच को बदलना चाहती है, जिसके मुताबिक औरतों में किसी बड़ी पोजीशन को संभालने की क्षमता ही नहीं होती। बेशक देश और दुनिया में कई औऱतों ने इस मानसिकता को बदला है, लेकिन आज भी कहीं न कहीं अपनी कुछ भावनात्मक कमजोरियों की वजह से औरत को अच्छी-खासी करियर ग्रोथ को पीछे छोड़ शुरू से शुरू करना पड़ता है। देसी-विदेशी खूबसूरत लोकेशंस की बजाए फिल्म का ज्यादातर हिस्सा एक एड कंपनी के कांफ्रेंस रूम में शूट हुआ है। फिर भी इसमें हिंदुस्तान से लेकर न्यूयॉर्क और लंदन तक बिखरे कुछ ऐसे रगं देखे जा सकते हैं, जो देश और वेश दोनों बदलने पर भी एक जैसे रहते हैं। चिंत्रागदा बार-बार यह कहकर कि ‘’उस वक्त मुझे उस पर भरोसा था, इसलिए मैंने उसे जाने दिया’’   औऱत औऱ आदमी के बीच बनने वाले विश्वास की एक बहुत महीन लकीर की तरफ देखने को मजबूर करती हैं, जिसे बार-बार पार किया जाता है और प्यार का मामला, सेक्सुअल हैरेसमेंट में बदल जाता है या फिर जिसे आम भाषा में नफरत और ब्रेकअप कह दिया जाता है। क्योंकि यहां सब कुछ एक बॉस और एंप्लोई में हो रहा है, इसलिए कहानी थोड़ी अलग लगती है, लेकिन शायद सच्चाई हर तरह से कुछ इसी तरह की है कि उस वक्त का भरोसा, वक्त के साथ कमजोर क्यों होता जाता है। एक बात और इस पूरी फिल्म को देखने के बाद समझ आती है। जिस पर चाहें तो हंस भी सकते हैं। ज्यादातर फिल्मों मैं जो मैंने देखा है वो यही रहा है कि हीरो के हीरोइन को आई लव यू बोलने में ही इंटरवल हो जाता है और फिल्म के आखिरी सीन में दोनों एक बिस्तर पर होते हैं और लाइट बंद हो जाती है। इस फिल्म ने सोसाइटी के नए लव कल्चर को सामने रखा है। हीरो और हीरोइन एक-दूसरे के बहुत नजदीक आ जाते है। कई बार दोनों बिस्तर पर साथ होते हैं और बत्ती बुझ जाती है। लेकिन एक बार दोनों एक-दूसरे को आई लव यू नहीं बोलते। उनके बीच में प्यार का इजहार होता है आई लवड यू डैमिड...आई लवड यू जैसी भूतकाल की भाषा में। बस प्यार के इस इजहार के साथ सारी सजा, सारी दफा माफ औऱ फिल्म खत्म। रही बात बॉक्स ऑफिस रेटिंग की तो इसे रेटिंग के हिसाब से जज नहीं किया जा सकता। ये शायद हर तरह की ऑडियंस के लिए बनी भी नहीं है। कुछ फिल्मों को देखने के लिए एक समझ चाहिए होती है और कुछ फिल्में खुद-ब-खुद बहुत कुछ समझा देती हैं। इनकार इन दोनों परिस्थितियों को मिलाकर देखी जाने वाली फिल्म है। इसे देखने के लिए एक समझ चाहिए, अगर यह समझ एक दर्शक के तौर पर आपमें है तो फिल्म खुद-ब-खुद आपको राहुल वर्सेज माया के केस की सुनवाई के जरिये सपने और उनकी सीढ़ी वर्सेज प्यार और सेक्स का फर्क दिखा सकती है। इस फर्क को देखने के साथ ही अगर आप फिल्म देख चुके हैं तो उस फर्क को समझना भी जरूरी है जिसमें फिल्मों के हिट और फ्लॉप होने की वजहें बदल रही हैं। इन दिनों कुछ ऐसी भी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्में आई हैं, जिनमें न स्टोरी है, न कांसेप्ट, न एक्टिंग। उनमें है सुपरस्टार हीरो, बेहतरीन लोकेशन, आइटम नंबर और तड़कते-भड़कते, नचाते-थिरकाते गाने। इस हिसाब से इनकार में एक कहानी है, जो बेशक अपने सब्जेक्ट के साथ पूरा इंसाफ नहीं कर पाई, लेकिन इसमें किरदार हैं, निर्देशन है, अभिनय है। इस सबसे बढ़कर घिसे-पिटे पुराने फार्मुले या सिक्वल नंबर पर बनने वाली फिल्मों से अलग ये एक नए सब्जेक्ट पर बनी फिल्म है। जहां तक म्यूजिक की बात है तो हजारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर मिश्रा के साथ शुरुआत करने वाले और परिणिता जैसी फिल्मों के लिए म्यूजिक अवार्ड जीतने वाले शांतनु मोइत्रा और स्वानंद किरकिरे की टीम का म्यूजिक और लिरिक्स भी इस फिल्म को एक अलग टच देने में कामयाब रहे हैं।






और अंत में
-लड़कों के लिए ध्यान देने वाली एक बात
फ्लर्टेशन जब औरत को पसंद न हो तो वो हैरेसमेंट बन जाता है
-लड़कियों को समझना चाहिए
इनकार करने से पहले ये न सोचें कि कहीं मैं ओवर रिएक्ट तो नहीं कर रही! क्योंकि बाद में इनकार करने पर उसे सचमुच में ओवर रिएक्शन समझकर दरकिनार कर दिया जाता है।

बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

भगवान भी कहेंगे 'ओह माई गॉड'


भगवान से मेरा पहला परिचय तब हुआ था, जब बचपन में मां और नानी.. मुझे उनसे भाई मांगने के लिए कहती थी। शायद यही कारण भी था क‌ि भगवान के बारे में मेरी पहली समझ यही बनी थी कि जो भी चीज आप चाहों, उनसे मांगने पर मिल जाती है। इसके लिए आपको पूजा करनी होती है। कुछ धार्मिक किताबें पढ़नी होती हैं। व्रत रखने होते हैं। मंदिर जाना होता है। प्रसाद चढ़ाना होता है। ज्यादा बड़ी चीज हो तो वैष्णों देवी या गुरुद्वारे की यात्रा भी करनी होती है।अब के मुकाबले देखें तो बचपन जिंदगी का बहुत संतुष्ट पड़ाव था। लेकिन बचपन में जाकर याद करुं... तो उस वक्त भी बहुत सारी चीजें थी, जो चाहिए थी। जिन्हें पाने का रास्ता उन प्रार्थनाओं में दिखता था, जो मैं मां और नानी को सुबह शाम करते देखती थी। और यहीं से मेरी जिंदगी में शुरू हुई भगवान और मेरी कहानी। सबसे पहले शेरावाली माता के रूप में मुझे भगवान की छवि मिली। उनसे मैंने क्लास में फ्सर्ट आने से लेकर मां की सरकारी नौकरी लग जाने तक काफी सारी चीजें मांगी। पापा का एक्सीडेंट हुआ तो वो जल्दी ठीक हो जाएं, ये भी मांगा। मंदिर भी गई। व्रत भी रखे। प्रसाद भी चढ़ाया। वो सब कुछ किया, जो करते हुए देखा और सुना। कुछ चीजें भगवान ने मान लीं,  कुछ नहीं मानी ...। जैसे मैं क्लास में फ्सर्ट आई... पापा ठीक हुए... लेकिन मां की सरकारी नौकरी नहीं लगी। जिदंगी यूं ही चलती रही। कॉलेज में एडमिशन के बाद बाहर का खाना खाने और रुटीन बदलने की वजह से तबियत खराब रहने लगी तो मैं भगवान शिव की भक्ति करने लगी। कहा जाता है कि भगवान  शिव रोग व्याधि को दूर करने वाले हैं। जैसे-जैसे कर्म और फल की समझ आई तो... मुझे कृष्ण भगवान से प्रीति हुई। साईं बाबा और शनि देव पर भी श्रद्धा रही। कई बार जब हालातों ने मुझे कमजोर किया, हरा दिया, तोड़ दिया तो मैंने उन मूर्तियों से लड़ाई भी की, जिन्हें मैं भगवान मानती हूं। खुद को नास्तिक बनाने के लिए कविता भी लिखी और पूजा पाठ छोड़कर ऐसा करने की कोशिश भी की। कई सारे तर्क और वितर्कों में भगवान और अपनी भक्ति को रखकर तोला भी। मगर हमेशा ये विषय ऐसा रहा, जिसमें उलझकर और डरकर मैंने बीच में ही छोड़ दिया। पिछले कुछ दिनों से गीता और सुंदरकांड पढ़ रही हूं तो कुछ और बातें समझ आईं। सुंदरकांड में एक लाइन आती है "भय बिनु प्रीति न होई"। इसका मतलब है कि डर के बिना प्यार भी नहीं होता। इस लाइन को पढ़कर ये नतीजा निकालना काफी आसान हुआ कि भगवान से भी शायद हम डरते हैं, इसलिए उनसे प्यार या प्यार का दिखावा करते हैं।कुल मिलाकर अब तक मैंने कई बार खुद को तर्क के आधार पर भगवान को मानने या न मानने के लिए मजबूर किया, लेकिन शायद आस्था और अंधविश्वास दोनों ही तर्कों से परे होते हैं। जैसे मां-बाप पर विश्वास करने के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं होती, वैसे ही भगवान को मानने के लिए भी उन्हें देखने या परखने की जरूरत नहीं होती। फिर अगर ज्यादा पढ़-लिख लेने पर ऐसी जरूरत महसूस हो भी जाए तो आखिर में नतीजा यही निकलता है कि कहीं कोई है, जो हमारे साथ है, हमसें बातें करता है, हमें समझता है, हमें अहसास दिलाता है कि जो हुआ उसमें कुछ न कुछ अच्छा था। जो देर से मिला, उसके देर होने में ही हमारी भलाई थी। जो नहीं मिला वो हमारा था ही नहीं।..हाल ही में अक्षय कुमार और परेश रावल के प्रोडक्शन और उमेश शुक्ला के निर्देशन में बनी फिल्म ओह माई गॉड की कहानी भी कुछ ऐसे ही तर्कों से शुरू होकर उस शक्ति की सत्ता को स्थापित करते हुए खत्म हो जाती है, ‌ज‌िसे लोग ईश्वर, अल्लाह और गॉड के नाम से जानते हैं। ये फिल्म एक गुजराती नाटक "कांजी वर्सेस कांजी" पर आधारित है। इसके अलावा इसे एक ऑस्ट्रेलियन फिल्म "मैन हू सूड गॉड" की नकल भी बताया जा रहा है। कहानी की प्रेरणा कुछ भी हो,  इस विषय को ऐसे संकीर्ण समाज में सामने लाना ही एक काबिले तारीफ कोशिश है। फिर रोमांस, फैमिली ड्रामा और स्टंट के तड़के से कुछ अलग देखने के लिहाज से भी बॉलीवुड कलेक्शन में ये फिल्म एक खास जगह बना चुकी है। हालांकि रिलीज के काफी दिन बाद मुझे इस फिल्म को देखने का मौका मिला, इसलिए अब ज्यादा कुछ कहना मायने नहीं रखता। पर कुछ बातों का जिक्र करने के लिए समय से पहले या समय के बाद से ज्यादा जरूरी ये होता है कि समय मिलते ही उन पर बात कर ली जाए। ‌एक्ट ऑफ गॉड नाम के जिस कानून को आधार बनाकर फिल्म का ताना-बाना बुना गया है वो कई लोगों के ल‌िए एक नई चीज है। ये देखना भी हैरानी और दिलचस्पी भरा है क‌ि कई लोगों की पॉलिसी का पैसा भगवान के नाम पर बने एक कानून की वजह से अटका पड़ा है। परेश रावल की अदाकारी को किसी भी उपमा की जरूरत नहीं है। लेकिन जहां तक पटकथा की बात है तो वह काफी बेहतरीन हैं क्योंकि धर्म और भक्ति जैसे मुद्दों पर बेजोड़ तर्क सामने लाना भी आसान काम नहीं है। गंगाजल की चिट वाली बोतल में टंकी का पानी भरकर बेचना, किसी भी सामान्य सी मूर्ति को धरती फटने पर निकली हुई बताना, मन्नत के नाम पर अपने बाल चढ़ाना, शिवलिंग पर हर सोमवार को लोटा भर-भर दूध चढ़ाना और उस दूध के नाले के रास्ते गटर में चले जाना ... ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जिनसे हमारा सामना हर रोज होता है, लेकिन हम में से हर कोई इसे नजरअंदाज कर देता है। आम लोगों से लेकर तमाम बुद्धिजीवी और मीडिया तक इस पर स्पेशल रिपोर्ट तैयार कर सनसनी फैलाते हैं। बेशक ये सारी बातें कई बार पहले भी सामने आ चुकी हैं, लेकिन भगवान के खिलाफ मुकदमा दायर करने के दौरान जिस तरह फिल्म में ये सच्चाई सामने आई है उसे देखना ज्यादा चोट करने वाला है। साथ ही भगवान पर कॉपी राइट समझने वाले लोगों को कटघरे में खड़ा करना और आज के समय में लोगों पर चढ़ रहा बाबा और साध्वियों के नाम का बुखार उतारने के ल‌िए भी इस तरह की फिल्में जरूरी हैं। ओमपूरी का छोटा सा रोल भी भगवान को नोटिस भेजने के ल‌िए काफी अहम भूमिका निभाता है। इसके अलावा नेगेटिव शेड में होते हुए भी मिथुन चक्रवर्ती फिल्म के आखिर में एक डॉयलॉग से ही अपनी मौजूदगी की अहमियत को साबित कर देते हैं "ये आस्था श्रद्धा अफीम के नशे की तरह है कांजी। एक बार लत लग गई तो आसानी से नहीं छूटती। ये जो लोग देख रहे हो न these are not god loving people they are god fearing people। आज नहीं तो कल कहीं ये फिर से उन्हीं आश्रमों में न दिख जाएं। निर्भय भव:।
फिर पूरी फिल्म में भगवान का पक्ष सामने रखने के ल‌िए अक्षय कुमार भी अपनी भूमिका पर खरे उतरते हैं। इस फिल्म की सबसे ‌मजेदार बात जो सामने आती है, वह यह है कि भगवान खुद भी अपने दुष्प्रचार से दुखी हैं। अगर वह फिल्म में दिखाई गई कहानी की तरह खुद दुनिया में आ सकते तो अपने मन की बात कुछ इन्हीं शब्दों में कहते-
"मैं तो नहीं हूं इंसानों में
बिकता हूं इन दुकानों में
दुनिया बनाई मैंने हाथों से
मिट्टी से नहीं जज्बातों से
फिर रहा हूं ढूंढता 
मेरे निशां है कहां"

इसके अलावा एक शिक्षा जो इस फिल्म की कहानी से मुझे मिलती है और हम सबको मिलनी चाहिए... वो ये है कि किसी भी धर्म के प्रति अंधभक्ति शुरू करने, उसके नाम पर कर्मकांड करने और नियम बनाने से पहले अगर हम सिर्फ एक बार उस धर्म से जुड़े मुख्य ग्रंथ को पढ़ लें तो कई वहम और अंधविश्वास तो पहले ही दूर हो जाएंगे। हिंदू धर्म हो या इस्लाम इन्हें मानने वाले आधे से ज्यादा लोगों ने न तो गीता पढ़ी होगी न ही कुरान। फिर भी ये लोग धर्म के नाम पर अपने परसेप्सेशन के आधार पर कुछ बातों और नियमों को आधार बनाकर युद्ध जैसे हालात पैदा कर देते हैं।


और आखिर में 

गोंविदा आला रे में सोनाक्षी और प्रभुदेवा के लाजवाब डांस को भी नहीं भुलाया जा सकता है।

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

प्रेम प्रेम सब करें प्रेम करे न कोय....बर्फी की खामोशी के सुर


'वास्त‌व‌िक प्रेम मौन होता है'। अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ में ये लाइन पढ़ने के बाद मैं फूली नहीं समाई थी। आत्ममुग्ध नाम का अगर कोई शब्द होता है, तो मैं आत्ममुग्ध हो गई थी। मुझे लगा कि मैंने भी वास्तविक प्रेम किया है। मुझे ऐसा इसलिए लगा था, क्योंकि तीसरी क्लास में मुझे अपनी क्लास का एक लड़का बहुत अच्छा लगता था। जिसे मैंने ये बात कभी बताई ही नहीं। अब तक नहीं बताई, कई दफा सामने होने के बाद भी नहीं बताई। मैं चुप रही और एक बड़े लेखक के मशहूर उपन्यास में ये बात पढ़ने के बाद वो अच्छा लगना..... मुझे प्रेम की तरह लगा और अपनी ये चुप्पी.... उसी महान मौन की तरह, जो प्रेम के वास्तविक होने का सबूत होता है। हालां‌क‌ि उपन्यास पढ़ने के बाद से लेकर अब तक उस फूले न समाने वाली फील‌िंग में कई सारे छेद हो चुके थे,  क्योंक‌ि जब क‌िताबों से बाहर की दुनिया देखी तो हर तरफ प्रेम-प्रेम का शोर ही दिखाई दिया, मौन कहीं नहीं। लेकिन मेरे मौन की इस कहानी में एक क्लाइमेक्स आया, हाल ही में......अभी एक दिन पहले। मुझे अचानक महसूस हुआ क‌ि वो सारे छेद भरने लगे हैं (माफ करना यहां मैं ब‌िंब बनाते हुए शायद अत‌िवादी हो रही हूं) जानते हैं ऐसा कब और क्यों हुआ.......................ये तब हुआ जब मैंने बर्फी देखी। बर्फी ......यानी अनुराग बासु की हाल ही में आई एक फ‌िल्म ज‌िसे ‌‌‌‌ प्रियंका चोपड़ा और रणबीर कपूर ने अपने शानदार नहीं जानदार अभ‌िनय से सजाया नहीं जमाया है और उनके साथ इलेना डीक्रूज के नरेशन ने कहानी को बेहतरीन फ्लो दिया है। 'बचपन से ही मेरे लिए प्यार का मतलब था किसी के साथ हर पल जीना और साथ में ही मर जाना' , जब इलेना इस लाइन के साथ कहानी की शुरुआत करती हैं तो लगता है कि ये कहानी श्रेया(इलेना) और बर्फी (रणबीर) की है जो एक दूसरे से प्यार करते थे और किसी वजह से साथ-साथ नहीं रह पाए। फिर जब बर्फी की पहली झलक मिलती है तो न जाने क्यों चार्ली चैप्लिन की छवि दिमाग में आने लगती है। अब जब चार्ली चै‌प्लिन की छवि दिमाग में आ गई हो तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि रणबीर की अदाकारी में कुछ खास बात रही होगी। रॉकस्टार में उनकी आवाज की कहानी के बाद बर्फी में उनकी खामोशी की दास्तां को सुनना, देखना और महसूस करना उनके अभिनय के कई रंगों का साक्षी होने जैसा है। (बेशक मुझे निजी तौर पर रणबीर बहुत ज्यादा पसंद नहीं हैं)। काफी देर तक फिल्म में रणबीर और इलेन के परिवार, उनका मिलना, प्रेम करना और बिछड़ना देखते हुए ये सवाल उठता रहता है कि फिल्म में प्रियंका का क्या रोल होगा? क्या प्रियंका कोई साइड रोल प्ले कर रही हैं? रणबीर, इलेन के साथ हैं तो प्रियंका किसके साथ होंगी। बिल्कुल एक आम दर्शक की तरह ये सारे सवाल सामने आ ही रहे थे कि फिल्म में एक तसवीर के साथ ‌प्रियंका का नाम सामने आता है-झिलमिल। दार्जिलिंग के बेहद अमीर आदमी की नाती जिसे ऑटिस्टिक होने की वजह से उसके मां-बाप अनाथालय भेज देते हैं, लेकिन उसके नाना पूरी जायदाद उसके ही नाम करके मर जाते हैं और फिर शुरू होती है झिलमिल की असली कहानी। जिस तरह से झिलमिल का ‌रोल लिखा गया है बिल्कुल उसी तरह ‌इस फिल्म में बेहद सादगी के साथ प्रियंका के खूबसूरत फीचर्स का इस्तेमाल भी हुआ है। इसके‌ लिए मेकअप आर्टिस्ट को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। सच मानिए तो मेरे लिए फिल्म का असली मतलब तभी शुरू होता है जब ‌फिल्म में झिलमिल की एंट्री होती है। हालांकि काफी देर तक झिलमिल फिल्म के एक अलग हिस्से के रूप में ही रहती है। लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, कहानी की पूरी बागडोर उस अलग हुए हिस्से पर ही आ जाती है। बर्फी के पिता की बीमारी, पैसों की तंगी में बर्फी का झिलमिल को किडनैप करना और फिर झिलमिल के पिता का उसे किडनैप करवाना और इस सस्पेंस, कॉमेडी और थ्रिल के बीच ‌धीरे से, चुपके से कहीं झिलमिल और बर्फी की लव स्टोरी की शुरू होना बिल्कुल मौन की तरह देखने वाले को धीरे-धीरे अपनी तरफ खींचने लगता है। इस बीच में रणबीर की खामोशी को म्यूजिक बीट्स के जरिए जिस तरह दिलों में उतारा गया है उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। झिलमिल और बर्फी की प्रेम कहानी दो लोगों की एक ऐसी कहानी है जो बोल और सुन नहीं सकते। इस मजबूरी की मिट्टी पर प्रेम को पनपाने के लिए जिस तरह के बिंब दिखाए गए हैं उन्हें बेहतरीन क्रिएटिविटी की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक दूसरे को शीशे से परछाई बनाकर बुलाना, हाथ की कनी उंगली में उंगली डालकर एक दूसरे की नजदीकी को महसूस करना, दूसरे लोगों से अलग होते हुए भी एक आम जिंदगी जीने की सारी कोशिशों को अंजाम देना। जो झिलमिल टॉयलेट जाने से पहले नाड़ा बर्फी से खुलवाती है वो प्यार में होकर साड़ी बांधने की प्रेक्टिस करने लगती है, जो झिलमिल हर काम के लिए नौकरों पर निर्भर थी वो दिल से पति मान चुके बर्फी के लिए खाना बनाती है और खाने खाते हुए उसे एक आम देहाती औरत की तरह पंखे से हवा करती है। इन सारे छोटे-छोटे दृश्यों ने मिलकर कई बार कहानी के भीतर पैदा हो रहे सीलेपन को दर्शक की आंखों तक पहुंचाया और फिर अचानक ही बर्फी की खामोश कॉमेडी से होंठो पर सरका दिया। इस बीच इलेना का नरेशन कहानी में जारी रहा और साथ ही उसकी अपनी कहानी भी। बेशक कहानी में लव ट्राइंगल था, लेकिन यहां असल प्यार वहीं नजर आया जहां लोग सामान्य नहीं थे यानी झिलमिल और बर्फी। इलेना जो सामान्य लड़की थी औरबर्फी से प्यार करती थी कभी उस प्यार को चुन नहीं पाई। क्योंकि चुनने से पहले उसने काफी सोचा, मां को बताया, मां से पूछा और मां(रूपा गांगुली) ने एक आदर्श भारतीय नारी की तरह उसे अपने नक्शे कदम पर चलने के ल‌िए कहा। अपने नक्शे कदम यानी एक अच्छे खासे शरीर और पैसे वाले आदमी से शादी करने के ल‌िए। मां को मंजूर था कि जिस तरह वो बुढ़ापे तक अपने प्रेमी को ‌छुप-छुप कर देखती हैं उसके ख्याल पालती है उसकी बेटी भी इस तरह जिंदगी जी लेगी, लेकिन लोगों को दिखाने के ल‌िए, सो कॉल्ड सामान्य जिंदगी जीने के लिए उसे एक सामान्य ‌इनसान से ही शादी करनी चाहिए। यही होता भी है, लेकिन मां और बेटी की कहानी में एक टिवस्ट ये है कि इलेना छिप-छिप कर नहीं पूरी हिम्मत के साथ शादी के छह साल बाद अपने प्यार को चुनती हैं, लेकिन छह साल असामान्य कहे जाने वाले लोगों के लिए सामान्य नहीं होते। तब तक बर्फी झिलमिल का हो चुका होता है और जिस ख्वाहिश को मन में पाले हुए इलेना बड़ी होती हैं ('बचपन से ही मेरे लिए प्यार का मतलब था किसी के साथ हर पल जीना और साथ में ही मर जाना') वो ख्वाहिश झिलमिल और बर्फी की प्रेम कहानी में आकर पूरी होती है, बस जहां इलेना होना चाहती थी वहां झिलमिल होती है जिसने कभी कुछ नहीं सोचा था बस किया था, प्रेम। उसने होने के बाद किया था या करने के बाद हो गया था ये हम सब सामान्य कहे जाने वाले लोगों के अपने अपने सेंस ऑफ ह्यूमर पर निर्भर करता है। फिल्म पूरी तरह दर्शक को बांधे रहती है और अंत में शायद उन सारे सामान्य लोगों को शर्म‌िंदा कर जाती है जो हर वक्त प्रेम प्रेम का राग अलापते रहते हैं।

Moral of the Story for Me

  • सबसे पहली और जरूरी बात ये कि जिन लोगों को सामान्य कहा जाता है वही सबसे ज्यादा असामान्य हैं।
  • दूसरी बात ये कि आज के समय में अनुकूल माहौल न होने की वजह से प्रेम डायनासोर की तरह लुप्त हो सकता है। इस पर पाश का एक शेर भी आपके साथ बांटा जा सकता है जो मुझे भी किसी ने सुनाया था 'जिंदगी  ने जिन्हें बनिया बना दिया वो क्या इश्क फरमाएंगे'।
  • फिर ऑटिज्म जैसी बीमारी पर एक गरीब बाप को पूरी शिद्दत से अपने बच्चे को पालना और पूरी तरह से समृद्ध परिवार के लोगों को अपनी फूल सी बच्ची को समाज और सामाजिकता के चक्कर में अनाथालय भेज देना जैसे आधी भावनाओं का कत्ल अमीर होते ही हो जाता है। 
  • जाते-जाते इस फिल्म ने मेरी यादाश्त के एक और कोने पर रोशनी डाली और मुझे ख्याल आया संजीव कुमार और जया बहादुड़ी अभिनीत फिल्म कोशिश का जो एक गूंगे बहरे प्रेमी जोड़े की कहानी थी। काफी छोटी थी मैं जब टीवी पर ये फिल्म देखी थी। तब शायद बहुत सारे अहसासों की परिभाषा भी पता नहीं था लेकिन तब भी बिन बोली भावनाओं को देखना मुझे बहुत अच्छा लगा था। इस लिहाज से बेशक बर्फी बॉलीवुड का कोई नया अजूबा नहीं है, लेकिन संवेदनाओं का एक नया प्लेटफार्म जरूर है उन लोगों के लिए जो "कोशिश" तक नहीं पहुंच सकते "बर्फी " के स्वाद से ही समझ सकें शायद।
  • और सबसे आखिरी में - 'प्रेम के बारे में सोचना नहीं चाह‌िए..उसे सिर्फ करना चाह‌िए।'


शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

गाली, गोली और गैंग्स ऑफ सो मैनी रियल्टीज(2)

यार तू देखिओ इसका तीसरा पार्ट भी आएगा। 
...अबे तुझे कैसे पता
यार मैं कह रहा हूं न..
अभी रामाधीर सिंह का बेटा जिंदा है..
और डेफिनेट भी तो है...
अब वो राज करेगा वासेपुर में
..अबे हां यार ...तीसरे पार्ट में और भी मजा आएगा
अब डेफिनेट बताएगा...
.
.
.
गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट-2 देखने के बाद लौटते हुए ऑटो में तीन 14-15 बरस के लड़कों की बातचीत  कुछ इसी तरह की थी। अब इसके बाद और वो भी फिल्म रिलीज होने के इतने दिन बाद समीक्षा लिखने का कोई बहुत ज्यादा औचित्य नहीं लगता। मगर ये फिल्म का ही असर है कि कह के लेना जरूरी लगता है...तो सोचा कुछ कह दिया जाए....

‌‌स‌िनेमा के इतिहास में ये फ‌‌िल्म ‌क‌ितना याद की जाएगी इस बारे में तो शायद वक्त ही बताएगा मगर ‌‌‌बॉलीवुड में ‌फ‌िल्मों के ‌‌स‌िक्वल की जब भी बात होगी तो गैंग्स ऑफ वासेपुर का ‌ज‌िक्र जरूर ‌क‌िया जाएगा। बॉलीवुड में, ‌फ‌िर हेरा-फेरी के बाद गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 ही ऐसी ‌फ‌िल्म लगती है जो सच में स‌िक्वल के मायनों पर खरी उतरती है। ‌‌स‌िक्वल यानी जो पहली कहानी को पूरा करे ...और गैंग्स इस परख को पूरा करती है

सरदार खान को ‌क‌िसने मारा? 
बंगालन ने ‌क‌िसे फोन ‌करके सरदार खान के बारे में बताया?
दान‌िश और फैजल में से कौन लेगा सरदार खान की मौत का बदला?
रामाधीर  क्या सेकेंड पार्ट में भी एक शांत शात‌िर नेता बना रहेगा या उसका खून भी खौल जाएगा और वो भी कह के लेने की ‌ह‌िम्मत जुटा पाएगा ?
गोली-गाली और बदले की इस लड़ाई के बीच कैसे ‌ख‌िलेगी मौसीना और फैजल की प्योर देहाती फ्लेवर से लैस प्रेम कहानी? 
नगमा खातून के रोल में ऋचा चड्डा बूढ़ी उम्र के साथ कैसे करेगी इंसाफ और फैजल के तौर पर नवाजुद्दीन ‌स‌िदद्की मनोज वाजपेयी की तुलना में ‌क‌ितना बेहतरी से ‌फ‌िल्म को संभाल पाएंगे?

इन सारे सवालों के जवाब बेहद धुआंधाड़ और चुटीले अंदाज में गैंग्स के पार्ट- 2 ने द‌िए। इसके अलावा एक टाइमलाइन की तरह ‌ज‌िस तरह इस फ‌िल्म में साल दर साल झारखंड और ‌ब‌िहार में लोहे और कोयले के काले धँधे की कलई खोली है उसे देखते हुए ही शायद असल में भी कोयले की धांधली पर कैग की ‌नई ‌रिपोर्ट सामने आ गई है। 

इस तरह के काले धंधों की राजनीत‌ि को ‌फ‌िल्म के ज‌‌रिए समझाने की सोचना और ऐसा करके ‌द‌िखाना एक ब़डा रिस्क है। इस ‌रिस्क को उठाकर अनुराग कश्यप ने क‌ितना गेन कमाया है ये तो इस ‌फ‌िल्म की चर्चा से ही मालूम हो जाता है।

इस ‌फ‌िल्म में एक आम दर्शक के ‌ह‌िसाब से तमाम ऐसी बाते हैं ज‌ो उसे ये फ‌िल्म न देखने की सलाह देती ‌द‌िखती हैं, मगर ‌फ‌िल्म रिलीज के एक हफ्ते बाद भी  इस ‌फ‌िल्म को देखने के ‌ल‌िए थ‌‌ियेटर में जुटी भीड़ इस बात का सबूत देती है क‌ि उन सारे सलाह-मशवरों को पीछे छोड़कर प‌‌ब्ल‌िक ने ये देखने में ‌द‌िलचस्पी द‌िखाई है ‌क‌ि आख‌िर तमाम आलोचनाओं के बावजूद इतनी गाल‌ियों और गोल‌ियों को फ‌‌िल्म में रखने की वजह क्या थी।
और जहां तक मुझे लगता है दर्शकों को वो वजह दिखाई भी दी और समझ भी आई।

बेशक ये फिल्म का सेकेंड पार्ट हो लेकिन इसके फसर्ट दर्शकों की भी कमी नहीं थी, ऐसे दर्शक जो जल्द से जल्द अब पहला पार्ट देखने की योजना बना रहे थे।

कहानी, अदाकारी और गाली-गोली को समझने के बाद इस फिल्म में एक और बेहतरीन चीज है। ऐसी चीज जो दर्शकों को गोली के अधाधुंध धमाकों के बाद भी सीट पर बैठे बैठे गर्दन मटकाने और शब्दों की समझ न होने के बाद भी गुनगुनाने का मौका देती है। वो चीज है इसका म्यूजिक ...
...सैंय्या काला रे...से लेकर फ्रस्टरेटियाओ नहीं मोडा तक स्नेहा खानवल्कर ने बॉलीवुड में गीतों का एक नया ट्रेंड शुरु किया है ...जहां हीरो-हीरोइन के पेड़ के आगे-पीछे घूमने या हाथ पैर हिलाकर अजीबो-गरीब डांस करने की जरूरत नहीं है। 
ये ऐसे गीत हैं जो सच में जिंदगी से जुड़ते हैं... असल जिंदगी में शायद ऐसे गीत सदियों से पत्नी और प्रेमिकाओं की जुबां पर रहे होंगे जिन्हें गुनगुना भर देना काफी है....

और फिर इस बार इस क्राइम थ्रिलर में जो एक औऱ सबसे अच्छी बात नजर आती है पहले पार्ट के मुकाबले  वो है इसमें इस्तेमाल किए गए ह्यूमर्स डॉयलॉग और हालात... जिनमें मर्डर के सीन में भी दर्शक हंसने पर मजबूर हो जाता है...

और आखिर में इस बात की चर्चा करना भी जरूरी है कि 180 रुपये खर्च करने के बाद दर्शक को मिलता क्या है..

1.
पहले पार्ट से उठे सवालों का जवाब
2.
झारखंड और बिहार में कोयला और लोहा माफिया की राजनीति का ब्योरा
3.
नायक की छवि से बिल्कुल भी मेल न खाने वाले नवाजुद्दीन सिद्दकी जैसे अभिनेता में एक उभरते नायक को देखना
4.
तीसरी बात में बाकी के सारे कलाकारों को शामिल कर भी यही कहा जा सकता है कि इस फिल्म के जरिए ये बात फिर से साबित हुई कि शाहरुख,सलमान और कैटरीना के अलावा और भी चीजें हैं जो फिल्म चला सकती हैं...और जिन्हें देखना दर्शक पसंद भी करते हैं...
5.
हटके म्यूजिक का मजा 
6.
एक शिक्षा- सिर्फ सिनेमा देखने से ही नहीं (फिल्म में रामाधीर का एक डायलॉग भी इसी तरह है)  दूसरी औरत का लालच पालने से भी लोग चूतिया बनते रहे हैं इस देश में.....

रविवार, 24 जून 2012

गाली, गोली और ....गैंग ऑफ सो मेनी रियल्टीज



न लूट खसोट करने वाले गुंडों के गैंग पहली बार पर्दे पर दिख रहे थे, न ही मार-धाड़ वाली फिल्म देखना कोई नई बात थी। 
न गालियां अजनबी थीं, न आदमी की वो जात... जो वो अक्सर दूसरी औऱतों के सामने दिखाते नजर आते हैं। मगर इन सब जानी पहचानी चीजों को एक बड़े से कमरे में सौ लोगों के बीच देखना बहुत अजीब था। 
शायद खुद से आंखें मिलाने जैसा या फिर उस दुनिया से आंखें चुराने जैसा, जिसका हिस्सा हम आज भी थे...। 


ये फिल्म 1940 के जिन हालातों से शुरू होकर आज में लौटती है...उस बीच में दुनिया कितनी बदल गई है ...ये सवाल इस फिल्म को देखने से पहले पूछा जाता तो हम कहते .. बहुत ज्यादा...मगर फिल्म देखने के बाद समझ में आता है कि ...बहुत कम बदली है।


हां.. इतने समय में जो कुछ तरक्की हुई है उसे फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। अब घर वैक्यूम क्लीनर से साफ होने लगे हैं बेशक दिमागों में गंदगी भरी पड़ी हो। फल सब्जियां ठंडी रखने के लिए घर में फ्रिज आ गए हैं बेशक शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए आज भी आदमी अपनी बीवियों को छोड़कर किसी दूसरी औरत को धँधे वाली बना रहे हो।
शहर में मोहल्लों में... आज भी तो कई तरह के गैंग हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जैसा फिल्म में दिखाया गया है वैसे बम बनाने के लिए सल्फर और पोटेशियम खाने के डिब्बे में नहीं मंगाना पड़ता..अब बड़े-बड़े खतरनाक हथियार सीधा सप्लाई हो जाते हैं।


जिस तरह शाहिद खान की मौत का बदला लेने के लिए एक सुंदर और शांत बच्चा, सरदार खान बन जाता है और सरदार खान की रंजिशों को देखते हुए उसके बेटे दानिश और फैजल की मानसिक स्थिति अलग-अलग तरह से आकार लेती है.....हो सकता है शायद आज इस हद तक का कुछ न होता हो। मगर आज भी बाप की करनी का असर बच्चे भुगतते हैं फर्क सिर्फ इतना है कि भुगतने के लिए उन्हें महंगे कांवेंट बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया जाता है, एक ही घर में रहकर बच्चे को उस रात का गवाह नहीं बनना पड़ता शायद जब उसकी मां इतनी कमजोर पड़ गई थी कि दादा की उम्र के आदमी के साथ सोने पर मजबूर हो रही थी क्योंकि वो टूट चुकी थी ये सुनकर कि उसका पति यानी बच्चे का बाप किसी दूसरी औऱत के साथ सो रहा है।


गंदी गालियों, बिस्तर के रूमानी, बॉलीवुडिया सीनों से हटकर फिल्माएं गए ठेठ गंवई सीनों और  अधाधुंध मार कुटाई के अलावा इस फिल्म में कई ऐसी खिड़किया हैं जहां से देखने पर अब तक की दुनिया की कई तरह की शक्ल सामने आती है। फिल्में में दिखाया गया सालों का बदलाव एक बार को तो ऐसे लगता है जैसे कोई समय की सुइयों को पीछे घुमाकर हमें पहले की दुनिया दिखा रहा है। 


उस दुनिया में एक शाहिद खान है जो सस्ता अनाज देने के लिए ट्रेन लूट रहा है। उसका बेटा सरदार खान है जो बाप की मौत का बदला ले रहा है...कहके ले रहा है....ये फिल्म की पंचलाइन भी है तेरी कह के लूंगा....शायद ये हीरो का हुनर है कि वो कहके वार कर रहा है। सरदार खान की बीवी है नगमा। जो उसी हद तक गालियां दे सकती है जिस हद तक कोई भी सरदार खान देता है। जो भीड़ भरे रास्ते में उस सरदार खान को मार-मार कर घर ला सकती है जो सरदार खान भरे बाजार में आदमी को बेहिसाब काट डालता है और रौब से आगे चला जाता है। वही औरत नगमा अपने पति को दूसरी औरतों के पास जाने से नहीं रोक पाती। अनकहे तौर पर समझौता कर लेती है। गुरुराती है चिल्लाती है चाकू भी दिखाती है मगर किसी भी हालत में ऐसे आदमी की बेगम बनकर रहना उसे मंजूर है जो कब कहां कौन सी औरत के पास है उसे खुद नहीं पता। बेशक वो घर न आता हो पैसे न भेजता हो उसने दूसरा परिवार बना लिया हो मगर अपने बेवफा शौहर के लिए वो पूरी तरह वफादार रहना चाहती है। एक बंगालन है जो सरदार खान की दूसरी औरत है। पहली औरत नगमा से ज्यादा खूबसूरत ज्यादा कमसीन ज्यादा नकचढ़ी है। जो सरदार खान से पैसे भी लेती है, उसे गालियां भी देती है और अंत में मरवा भी देती है....


सरदार खान की जिंदगी का मकसद ...उसकी रंजिश.. कितनी पूरी हुई है.. ये फिल्म का दूसरा भाग बताएगा मगर वक्त सरदार खान के हाथ से बंदूक गिरने के बाद भी उसका जयघोष करता है ...जीया हो बिहार के लाला....फिल्म के आखिर में ये जयघोष फिल्म की शुरुआत में आए उन सपनों की टीस को महसूस करवाता है जब शाहिद खान हमेशा के लिए गांव छोड़कर धनबाद में बसने जा रहा होता है वो गाता है....


एक बगल में चांद होगा एक बगल में रोटियां
एक बगल में नींद होगी एक बगल में लोरियां


अगर आप  बहुत सब्जेकिट्व होकर न देखें तो ये फिल्म आपको बहुत कुछ देखने और महसूस करने की आजादी देती हैं लेकिन अगर आपको सिर्फ वासेपुर के गैंग्स देखने हैं तो इस फिल्म में सिर्फ लूट-खसोट, बंदूक की आवाजें और मां-बहन की गालियां हैं जिसे देखना एक औसत दर्शक को रास नहीं आएगा...फिर भी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस की रेटिंग से ये कहीं आगे है और मनोज वाजपेयी के अभिनय को किसी ऑस्कर की जरूरत नहीं है।


सिर्फ मनोज वाजपेयी ही नहीं फिल्म का हर किरदार कहीं भी किरदार नहीं लगता ....बिल्कुल उसी दुनिया के असली चेहरे लगते हैं जहां कोयले की खदाने बंद तो हो चुकी हैं लेकिन उनकी कालक अब भी लोगों की जिंदगी में इस तरह शामिल है कि सुबह का उजाला भी मटमैला दिखता है.....


अनुराग कश्यप सिनेमा की अपनी एक अलग दुनिया बना रहे हैं जहां सिनेमा .... में सच है..... सिर्फ सच.....कड़वे वाला सच















रविवार, 17 जून 2012

पिता, एक टेंट की तरह होते हैं

मां, एक ब्लैंकेट की तरह होती है। नरम, कोमल और जिसका अहसास ही हर तकलीफ को भुला देता है।


पिता, एक टेंट की तरह होता है। तन कर खड़ा हुआ है। मगर जिसके गिरते ही जिंदगी की सारी सुरक्षा खत्म हो जाती है।


.... ये बातें बहुत पहले कहीं पढ़ी थी मैंने। आज फिर याद हो आईं। हालांकि ये अभी-अभी याद आया है कि ये सब मेरे साथ तब हो रहा है जब बच्चे फादर्स डे मना रहे हैं।


बेमन से घर से निकली थी। पता नहीं था क्यों जा रही हूं, लेकिन जा रही थी। फिल्म देखना एक ऐसा अवसर या कहें कि बहाना होता था जब हम (मैं और मेरे एक करीबी मित्र) मिल लेते थे वरना मिलने की कोई खास वजह नहीं थी।


इस बार सारा प्रोग्राम बिगड़ चुका था। सिंगल थियेटर में फिल्म देखना तय हुआ था,लेकिन मेरे देर से पहुंचने के कारण शो निकल चुका था। कुछ देर एक कॉफी हाउस की तलाश में घूमने के बाद जब गरमी का असर दिखने लगा तो तय हुआ कि कहीं दूसरे शो के लिए चला जाए। दौड़-धूप कर जहां पहुंचे, वहां शो बहुत देर से था। गुस्सा भी था, झुंझलाहट भी मगर कोई ऐसे शब्द नहीं थे हमारे पास कि ये गुस्सा निकाल पाते। हंसी और ठहाकों में सारी बेबसी कहीं बहती जा रही थी। बेबसी..हां बहुत बेबस और बेअदब से मूड में थे दोनों।


खैर इन सारी बातों को पीछे छोड़ एक नए मॉल में जाने का फैसला हुआ। यहां पहुंचकर थोड़ी तसल्ली मिली। सबसे पहला शो कौन सा है....देखने पर पता चला कि फरारी की सवारी। हमारे मित्र शंघाई देख चुके थे मैंने नहीं देखी थी, लेकिन फिर भी काफी थके होने की वजह से यही तय हुआ कि फरारी की सवारी ही देख लेते हैं।


फिल्म शुरू होने से पहले ही हॉल में बच्चों की भीड़ देखकर अंदाजा लग गया था कि हम यहां गलत टाइप की ऑडियंस हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई एडल्ट फिल्म देखने 14 साल का बच्चा पहुंच जाए। लेकिन अब यहां तीन घंटे बैठना था।
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फिल्म शुरू होती है....एक बाप (शरमन जोशी) पूरी तरह अपने बेटे(ऋत्विक) के ‌ल‌िए मां की भूमिका में है। बच्चे के लिए नाश्ता बनाना, स्कूल के लिए तैयार करना और उसके मन की बातें करना। अक्सर ये काम मां किया करती है, मगर इस बच्चे की मां नहीं है। जो पिता है वहीं बहुत कुछ मां सा है। बच्चे की पढ़ाई से लेकर उसके शौक तक हर चीज का ख्याल रखता है। बच्चे का सिर्फ एक ही शौक हैं और एक ही सपना, क्रिकेट। पूरी फिल्म इस सपने को पूरा करने के इर्द-गिर्द घूमती है। क्रिकेट के बीच में फरारी कहां से आती है इसी सस्पेंस के जवाब लिए कुछ देर ये फिल्म बहुत ही स्लो स्पीड के साथ दर्शकों को बांधे रखती है। बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और डायरेक्शन न होने पर भी इस फिल्म में बाप और बच्चे के रिश्ते को दिखाने वाली कई कहानियां हैं।


बेशक हमें ये कायो ((ऋत्विक) ) और उसके पापा रुस्तम(शरमन जोशी) की कहानी लगे। लेकिन इसमें रुस्तम और उसके पापा यानी कायो के दादा (बोमन ईरानी) भी शामिल हैं। ये उन दो बाप-बेटों की भी कहानी हैं जहां बाप अपने सपनों की टूटन को अपने बेटे की जिंदगी में शामिल नहीं होने देना चाहता और उसे क्रिकेटर की बजाए आईटीओ में क्लर्क बना देता है।


फिर इसमें वो दो बाप-बेटे भी शामिल हैं जहां बाप अपना पॉलिटीकल करियर जमाने के लिए बेटे को पूरी जिंदगी बंदूक दिखाकर अपना हुक्म चलाता रहता है। और आखिर में वो बेटा ही बाप पर बंदूक तानकर उसकी पॉलीटिक्स की असलियत सबके सामने लाता है।


तीन घंटे से कम की ‌इस फिल्म में तो तीन तरह के बाप दिखाना काफी है लेकिन असल जिंदगी में इसके अलावा भी कई तरह के बाप होते हैं।
कुछ ऐसे बाप भी हैं जिनके बच्चों ने उनसे सालों से बात नहीं की।
कुछ बाप ऐसे भी हैं जिनका होना ही उनके बच्चों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल है और कुछ ऐसे भी जिनके लिए बच्चे पालना सिर्फ एक सोशल फॉरमेलिटी है।




विधु विनोद चोपड़ा बेशक इस फिल्म के जरिए थ्री इडियट को मिली सफलता के रिकार्ड न तोड़ पाए, लेकिन बेटे के सपनों के लिए की जा रही बाप की जी-तोड़ कोशिशें हम जैसे उन बच्चों को उस भरे हॉल में जरूर तोड़ देती हैं जिन्होंने अपने बाप को मजबूर होते देखा है। बिल्कुल उस बाप की तरह जो बेटे के सपनों के लिए लोन लेना चाहता है, लेकिन उसे कोई लोन नहीं देता, क्योंकि उसकी तनख्वाह इतनी कम है कि उस पर लोन मिल ही नहीं सकता।


नियम कानूनों का पालन करने वाला एक शांत, सीधा-सादा इंसान नियम भी तोड़ता है और उस इंसान की गर्दन भी पकड़ता है जिसकी वजह से उसका बेटा लापता हो गया था। अचानक एक कैरेक्टर में ये शिफ्ट देखना हल्का सा हैरान करता है और ये हैरानी तब खुद ही फना हो जाती है जब याद आता है कि इस वक्त ये इंसान एक बाप है सिर्फ और सिर्फ एक बाप।




न चाहते हुए भी देखी गई ये फिल्म.. खत्म होते-होते मन को‌ फिर से उस चाहत से लबरेज कर देती है जो चाहत बरसों से जमी पड़ी है.. एक ऐसे फ्रिज में जिसका दरवाजा ही नहीं खोला किसी ने। एक पिता को समझने और प्यार करने की चाहत।



















शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

सात खून माफ़ और आठवां ...



अच्छी फिल्में सिर्फ फिल्म के लिहाज से ही अच्छी होती हैं जिंदगी के लिहाज से शायद ....
परदे पर हम अपनी दमित इच्छाओ की पूर्ति होते देख रोमांचित और उत्साहित महसूस  करते हैं और फिल्म हिट हो जाती है क्योंकि असल जिंदगी में सात खून माफ़ नही होते...और सात बार शादी करने का जोखिम उठाना .....????
हमारा आज, अभी और इस वक्त का सच ये है कि पत्नियाँ एक पति के साथ सात जन्मों के रिश्ते में बंधने के बाद शायद ७००० बार मरती हैं
बहुत सारे पतियों को लग सकता है कि ये एक तरफ़ा सच है और उनके पक्ष को दरकिनार कर दिया गया है ..तो हाँ...कर दिया है ..क्योंकि उनके पक्ष का प्रतिशत बहुत कम है..खैर इसे मेरी खुन्नस न समझिएगा सिर्फ एक बात लिखी है जो देखी और महसूस की अभी तमाम दुनिया देखना बाकी है और फिर हो सकता है कि विचार भी बदल जाये...
लेकिन विशाल भारद्वाज ने हमारे संकुचित समाज के सामने आंखे फाड़ कर, कान खड़े कर और कुर्सी से चिपक कर देखी जाने वाली एक फिल्म का प्रसार किया है ....जिस फिल्म के ख़त्म होने  के बाद अनजाने ही लोग standing oveation देते नजर आये....क्योंकि सात खून हो जाने के बाद शायद ये देखना किसी को गवारा न था कि प्यारे से शुगर( विवान शाह) का भी खून हो गया है ..साहेब (प्रियंका चोपरा) का वो शुगर जिसका एक बच्चा और बेहद प्यार करने वाली एक पत्नी है इसलिए हर बॉलीवुड फिल्म की तरह इस फिल्म की भी एंडिंग साइड हीरो और साइड हेरोइन के मिलन के साथ हैप्पी हो गई. लेकिन कुछ निराशा, अवसाद, अहसास और सवाल शादी नाम के रिश्ते से जुड़ते भी नजर आये जो कि हमारे देश में सिर्फ एक रिश्ता नही बल्कि भरा पूरा उत्सव है..
................
एक तरफ प्यार की तलाश में गुनाह करती औरत( सूजैना, प्रियंका चोपरा) ..और असफल होती सात शादियाँ और दूसरी तरफ बीवी बच्चे के साथ खुशहाल  जिंदगी जीने वाला एक छोटा सा परिवार ( विवान और कोंकना सेन शर्मा)
,क्या लगता है ????
शादी नाम की संस्था सिर्फ शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाई गई एक औपचारिक परम्परा है या एक शादी के साथ भी हमें तन मन और ...धन तीनो का सुख मिल सकता है. फिल्म सिर्फ प्यार की  तलाश में धोखे खा रही एक औरत की कहानी है या ये सच दिखाने वाला एक आईना भी कि हर औरत एक बार अपने पति को मारने के बारे में जरूर सोचती है.
अजीब तरह से बदल रही है यार ये दुनिया
प्यार करने की भी एक निश्चित स्ट्रेटजी हैं यहाँ 
और शादी इस रिश्ते पर तो भयंकर रूप से प्रश्नचिन्ह  लग रहे है 
देखना ये है कि शेष क्या बचेगा 
और सिनेमा की दुनिया में सात खून माफ़ होने के बाद असल जिंदगी का आठवां खून क्या माफ़ हो पायेगा

 

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...