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रविवार, 2 दिसंबर 2012

दो रूठे हुए मुल्कों की हंसी ठ‌िठोली


21 नवंबर की जिस सुबह पूना की जेल में कसाब ने खुदा से अंतिम माफी मांगी,ठीक उसी दोपहर दिल्ली में प्रगति मैदान के व्यापार मेले में पाकिस्तान के उस्मान रियाज ने कहा,'' हिंदुस्तान के लोग पाकिस्तान के लोगों के मुकाबले ज्यादा जहीन हैं'' एक मुल्क, एक मजहब लेकिन मकसद बदलते हैं तो जिंदगी का रवैय्या भी बदल जाता है। कसाब आतंक का व्यापारी था,उस्मान रियाज रेशमी रूमाल लेकर व्यापार मेले में आया था। एक के पास नफरत की पूंजी और दूसरे के पास महीन कारीगरी की एक ऐसी मिसाल, जिसे चाहने वाले उधर भी हैं और इधर भी। दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में पाकिस्तान के सौदागरों के चेहरे पर एक दर्द था तो उनसे सौदा खरीदने आए कई लोगों पर भी उसी दर्द की छाप थी। दो मुल्कों के एक से दर्द की यह कहानी नई तो नहीं, लेकिन 65 साल पहले दुनिया के भूगोल पर खिंची गई रेखा बीतते वक्त के साथ मिट नहीं रही, और पुख्ता हो रही है-"क्या अलग है, मैडम? एक जैसा कल्चर है। एक जैसी भाषा है। नेताओं ने दूर कर दिया है बस। दोनों मुल्क एक ही हैं, क्या हिंदुस्तान और क्या पाकिस्तान।"पाकिस्तानी से आए रफीक लखानी ने बिभाजन का वक्त तो नहीं देखा, लेकिन बाद की पीड़ा को जरूर महसूस किया है। कुछ दिन पहले ही हिंदुस्तान आए रफीक ने कराची से सटे अपने गांव में लोगों को अपने रिश्तेदारों के लिए रोते देखा है, जो बिभाजन में इधर आ गए। अपने सामानों को वेचते हुए वे व्यापारी जिस गर्मजोशी से मिल रहे थे, उससे कहीं नहीं लगता था कि ये सौदेबाजी ऐसे लोगों के बीच हो रही है, जिनके मुल्कों के बीच लंबे समय से तनाव है। युद्ध हो चुके हैं और जब भी संबंध सामान्य होने की बात आती है, कसाब जैसा आतंक का कोई न कोई सौदागर रंजिश की आग को भड़का देता है। कसाब को हिंदुस्तान में फांसी दी गई तो यह तल्खी और बढ़ गई। ठीक ऐसे वक्त में पाकिस्तान से आए 25 साल के उस्मान रियाज से पूछा था कि यहां के लोगों से मिलकर कैसा लगता है तो जवाब हैरान नहीं, परेशान करने वाला था। "हिंदुस्तान के लोग पाकिस्तान के लोगों के मुकाबले ज्यादा जहीन हैं। अब सवाल अपने ही मन में उठने लगे थे कि आखिर ये कैसे पाकिस्तानी हैं? क्या ये उसी मुल्क से आए हैं, जिसके नाम के साथ
आतंकपर्यायवाची की तरह जुड़ चुका है। अगर उस तरफ अदब की तारीफ अफजाई हो रही थी, तो इस तरफ भी अपनापे का जोर कम असरदार नहीं था। इसका असर 50 की उम्र पार कर चुकी दिल्ली के लाजपत नगर की मीना जैसवाल में नजर आया। मीना ने बताया हर साल यहां जरूर आती हूं। पाकिस्तान की गोटा-पत्ती, नक्काशी, क्रोशिए, काजल और सुरमें का कोई सानी नहीं है।मीना के पति इस बात पर थोड़े खफा से थे। बोले, दिल्ली की चांदनी चौक में क्या नहीं मिलता, लेकिन इन्हें तो लाहौर और कराची के आगे कुछ नहीं भाता।मियां-बीवी की नोंक-झोंक में दो रूठे हुए मुल्क जैसे हंसी-ठिठोली कर रहे थे। फिर मुस्कुराते हुए जब कराची से आए तकरीबन 70 साल के लईक अहमद ने अपनी बात कही तो कई और सरहदें टूटीं। बोले, मैं तो यहीं रामपुर का हूं। विभाजन के बाद सब कराची जाकर बस गए, मगर मिट्टी से रिश्ता थोड़े ही टूटता है।" लेकिन अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द बहुत गहरा होता है। इस वेदना को या तो डाल से टूटा पत्ता समझ सकता है या नीड से बेदखल कोई परिंदा लईक हर साल यहां आते हैं और अपनी मिट्टी के अहसास को साथ लेकर जाते हैं।ब्लूचिस्तान में निकलने वाले एक खास तरह के ओनेक्स पत्थर से बनी चीजों के बीच बैठे थे लईक। पत्थर की खासियत पूछने पर उन्होंने एक फूलदान की तरफ इशारा करते हुए बताया, "इस पत्थर पर जो भी रोशनी पड़ती है वो आर-पार होकर दिखाई देती है। बिल्कुल पारदर्शी पत्थर है, यही इसकी सबसे बड़ी खासियत है।" पत्थर के उस फूलदान से रोशनी कुछ इस तरह आरपार हो रही थी जैसे कह रही हो कि तिरे चिराग अलग हो और मेरे चिराग अलग, मगर उजाला कभी जुदा नहीं होता।यह जगह थी दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे व्यापार मेले का हॉल नंबर 22। हॉल के बाहर बेशक पाकिस्तान के नाम का बोर्ड लगा था, लेकिन यहां कोई सरहद नहीं थी। था तो सिर्फ प्यार, अपनापा और एक चाहत। 

रविवार, 14 अगस्त 2011

इस आजादी पर

घुमकड़ी का अपना अलग मजा है आप अकेले होकर भी एक नए शहर में एक नई जगह पर अकेले नही होते क्योंकि वहां बहुत कुछ होता है आपके जानने समझने, देखने और महसूस करने के लिए... दिल्ली की दुनिया में रहकर पंजाब मेरे लिए सिर्फ फिल्मों में दिखने वाली एक ऐसी जगह थी जहाँ बेहद खूबसूरत सरसों के खेत होते है ..इससे ज्यादा कभी मैंने सोचा ही नही शायद ....या जरुरत ही नही पड़ी सोचने की
लेकिन जरूरतों से जुस्तजू के दरम्यान एक रात में ही मेरे रहने का ठिकाना बदला और ६ सितम्बर २०१० को मैं लुधियाना आ गई ....फिर एक सिलसिला शुरू हुआ घुमकड़ी के उस शौक को पूरा करने का जो दिल्ली में रहते हुए सिर्फ कनाट प्लेस, लाजपत नगर, साकेत या मंडी हाउस तक सीमित था...हालाँकि मैं अपना ये शौक बहुत बेहतरी से तो पूरा नही कर पाई ..लेकिन एक छोटी से अनजानी सी अनसोची सी यात्रा हुई ..


फिरोजपुर
का गाँव हुसैनीवाला, पाकिस्तान की सरहद से सटा...मेरी हमेशा से पाकिस्तान जाने की इच्छा रही है .....वजह है ये जानना कि आखिर कौन सी ऐसी खाई है जिसने एक देश को दो बना दिया और दो पड़ोसियों को कभी एक होने नही दिया..लेकिन जिदगी की दूसरी  और जरूरतों और दबावों के आगे ये इच्छा जरा साइड पर ही रहती थी ...दरसल मैं फिरोजपुर अखबार के लिए एक स्टोरी करने गई थी ...कुछ पता नही था कि जहाँ जाना है वो जगह कितनी दूर है , वहां जाने का साधन क्या है और हा रात से पहले घर भी लौटना था...मुझे मुहार जमशेर नाम के एक गाँव में जाना था जो फिरोजपुर से भी १२० किलोमीटर दूर था और दोपहर के  3 :३० बजे फिरोजपुर से इस गाँव के लिए निकलने का मतलब था वापसी में देरी और असुरक्षा... इसलिए एक जानने वाले से पूछा  कि यहाँ सरहद पर बना कौन सा गाँव सबसे नजदीक है ..तब उसने हुस्सैनिवाला के बारे में बताया.. तब नही सोचा था कि आज मेरी वो साइड की हुई इच्छा यूँ पूरी होने वाली है.. गाँव पहुंचकर वहां बने बोर्डर के बारे में पता चला तो सोचा कि यहाँ देखते है क्या होता है ..बस फिर रास्ता ही सब कुछ जानता  था और हम निरे अजनबी एक मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे ...जब पहुंचे तो दिखी
दो सरहदे...एक तरफ पाकिस्तान ....एक तरफ हिन्दुस्तान
एक तरफ पाकिस्तान के लोग ..दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के
इधर हमारे सिपाही ..उधर उनके
एक दूसरे के आगे पैर ठोकते हुए ...
एक दूसरे को अकड़ दिखाते हुए ..
अपने अपने झंडे को ऊँचा उठाते हुए ..
वहां से पाकिस्तान जिंदाबाद  के नारे लगा रहे कुछ लोग
तो यहाँ से हिन्दुस्तान की जयकार करते  नौजवान
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एक साथ बहुत से सवाल उमड़ घुमड़ आये ये सब देख कर कि
ये सब क्यों हो रहा है ?
किसने बनवाया होगा ये बोर्डर ?
जब दुश्मनी है तो ये ठोक बजाने का दिखावा क्यों ?
 क्या मिल जाता है एक दूसरे के झंडे को निचा दिखाकर ?
क्या कभी मन नही करता होगा आपस में आम लोगों की तरह हसने बोलने का ?
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जब वहां एक सिपाही से इन सवालों के जवाब लेना चाहा तो उसने कहा हमें मीडिया वालों से बिना इजाजत बात करने की परमिशन नही है
जब तक वहां सेरेमनी चलती रही सिर्फ दुश्मनी दिखाई दी
जब वो सेरेमनी ख़त्म हुई और हम लोग बाहर आने लगे तब किसी को बातें करते सूना .." ये लोग सिर्फ आधे घंटे की इस सरेमोनी में ही ये ठोक बजाते है रात को साथ बैठकर दारु पीते है ..
फिर देखा की सीढियों से उतरते हुए पाकिस्तान के कुछ बच्चे हमें हाथ हिलाकर बाय कर रहे है
कुछ मुस्कुरा रहे हैं
कुछ नजरों में निगाहे डालकर कुछ ढूँढना चाह रहे है
ये वो बातें है जिन्हें लिखकर बयाँ नही किया जा सकता
हां आप चाहे तो पढ़कर महसूस जरुर कर सकते हैं ...
ये चिंदी चिंदी से एक दो पल जब आँखों के आगे दुबारा तैरते है तो लगता है यहाँ मैं रीट्रीट सेरेमनी नही
रीथिंक टू रीबिल्ड सरेमोनी देखने आई थी
यानि दुबारा से ये सोचना की हमें क्या बनाना है
दो दुश्मन देश??
दो दोस्त??
एक टुटा हुआ एक रूठा हुआ देश??
या फिर अगर हम ये सारी सरहदे ही मिटा दें !!!!! सिर्फ बातों में नही सच में ...सच में जाये और वो लोहे की तारें काट आये किसी औजार से
अब मिट जाना चाहिए इन सरहदों का अस्तित्व...हम दोनों देशवासी तो facebook पर कब से एक दूसरे के दोस्त हैं
हमारा दिल कब से धड़क रहा है विभाजन में अपने पीछे छुट चुके परिवारों के लिए

हम कहाँ चाहते है अब लड़ना झगड़ना हम तो चाहते है पाकिस्तान के खूबसूरत शहरों में जाकर छुट्टियाँ बिताना ...(इस आजादी दिवस पर पहली बार बेहद गुलाम अनुभव कर रही हूँ मैं खुद को)



कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...