21 नवंबर
की जिस सुबह पूना की जेल में
कसाब ने खुदा से अंतिम माफी
मांगी,ठीक
उसी दोपहर दिल्ली में प्रगति
मैदान के व्यापार मेले में
पाकिस्तान के उस्मान रियाज
ने कहा,''
हिंदुस्तान
के लोग पाकिस्तान के लोगों
के मुकाबले ज्यादा जहीन हैं’।''
एक
मुल्क,
एक
मजहब लेकिन मकसद बदलते हैं
तो जिंदगी का रवैय्या भी बदल
जाता है। कसाब आतंक का व्यापारी
था,उस्मान
रियाज रेशमी रूमाल लेकर व्यापार
मेले में आया था। एक के पास
नफरत की पूंजी और दूसरे के पास
महीन कारीगरी की एक ऐसी मिसाल,
जिसे
चाहने वाले उधर भी हैं और इधर
भी। दिल्ली में आयोजित
अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले
में पाकिस्तान के सौदागरों
के चेहरे पर एक दर्द था तो उनसे
सौदा खरीदने आए कई लोगों पर
भी उसी दर्द की छाप थी। दो
मुल्कों के एक से दर्द की यह
कहानी नई तो नहीं,
लेकिन
65
साल
पहले दुनिया के भूगोल पर खिंची
गई रेखा बीतते वक्त के साथ मिट
नहीं रही,
और
पुख्ता हो रही है-"क्या
अलग है,
मैडम?
एक
जैसा कल्चर है। एक जैसी भाषा
है। नेताओं ने दूर कर दिया है
बस। दोनों मुल्क एक ही हैं,
क्या
हिंदुस्तान और क्या पाकिस्तान।"’
पाकिस्तानी
से आए रफीक लखानी ने बिभाजन
का वक्त तो नहीं देखा,
लेकिन
बाद की पीड़ा को जरूर महसूस
किया है। कुछ दिन पहले ही
हिंदुस्तान आए रफीक ने कराची
से सटे अपने गांव में लोगों
को अपने रिश्तेदारों के लिए
रोते देखा है,
जो
बिभाजन में इधर आ गए। अपने
सामानों को वेचते हुए वे
व्यापारी जिस गर्मजोशी से
मिल रहे थे,
उससे
कहीं नहीं लगता था कि ये सौदेबाजी
ऐसे लोगों के बीच हो रही है,
जिनके
मुल्कों के बीच लंबे समय से
तनाव है। युद्ध हो चुके हैं
और जब भी संबंध सामान्य होने
की बात आती है,
कसाब
जैसा आतंक का कोई न कोई सौदागर
रंजिश की आग को भड़का देता है।
कसाब को हिंदुस्तान में फांसी
दी गई तो यह तल्खी और बढ़ गई।
ठीक ऐसे
वक्त में पाकिस्तान से आए 25
साल
के उस्मान रियाज से पूछा था
कि यहां के लोगों से मिलकर
कैसा लगता है तो जवाब हैरान
नहीं,
परेशान
करने वाला था। "हिंदुस्तान
के लोग पाकिस्तान के लोगों
के मुकाबले ज्यादा जहीन हैं’।
अब सवाल अपने ही मन में उठने
लगे थे कि आखिर ये कैसे पाकिस्तानी
हैं? क्या
ये उसी मुल्क से आए हैं,
जिसके
नाम के साथ
‘आतंक’
पर्यायवाची
की तरह जुड़ चुका है। अगर उस
तरफ अदब की तारीफ अफजाई हो रही
थी, तो
इस तरफ भी अपनापे का जोर कम
असरदार नहीं था। इसका असर 50
की
उम्र पार कर चुकी दिल्ली के
लाजपत
नगर की मीना
जैसवाल में नजर आया। मीना ने
बताया ‘हर
साल यहां जरूर आती हूं। पाकिस्तान
की गोटा-पत्ती,
नक्काशी,
क्रोशिए,
काजल
और सुरमें का कोई सानी नहीं
है।’
मीना के
पति इस बात पर थोड़े खफा से
थे। बोले,
‘दिल्ली
की चांदनी चौक में क्या नहीं
मिलता,
लेकिन
इन्हें तो लाहौर और कराची के
आगे कुछ नहीं भाता।’
मियां-बीवी
की नोंक-झोंक
में दो रूठे हुए मुल्क जैसे
हंसी-ठिठोली
कर रहे थे। फिर मुस्कुराते
हुए जब कराची से आए तकरीबन 70
साल
के लईक अहमद ने अपनी बात कही
तो कई और सरहदें टूटीं। बोले,
‘मैं
तो यहीं रामपुर का हूं। विभाजन
के बाद सब कराची जाकर बस गए,
मगर
मिट्टी से रिश्ता थोड़े ही
टूटता है।"
लेकिन
अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द
बहुत गहरा होता है। इस वेदना
को या तो डाल से टूटा पत्ता
समझ सकता है या नीड से बेदखल
कोई परिंदा।
लईक हर साल
यहां आते हैं और अपनी मिट्टी
के अहसास को साथ लेकर जाते
हैं।’
ब्लूचिस्तान
में निकलने वाले एक खास तरह
के ओनेक्स पत्थर से बनी चीजों
के बीच बैठे थे लईक। पत्थर की
खासियत पूछने पर उन्होंने एक
फूलदान की तरफ इशारा करते हुए
बताया,
"इस
पत्थर पर जो भी रोशनी पड़ती
है वो आर-पार
होकर दिखाई देती है। बिल्कुल
पारदर्शी पत्थर है,
यही
इसकी सबसे बड़ी खासियत है।"
पत्थर
के उस फूलदान से रोशनी कुछ इस
तरह आरपार हो रही थी जैसे कह
रही हो कि ‘तिरे
चिराग अलग हो और मेरे चिराग
अलग, मगर
उजाला कभी जुदा नहीं होता।’
यह जगह थी
दिल्ली के प्रगति मैदान में
चल रहे व्यापार मेले का हॉल
नंबर 22।
हॉल के बाहर बेशक पाकिस्तान
के नाम का बोर्ड लगा था,
लेकिन
यहां कोई सरहद नहीं थी। था तो
सिर्फ प्यार,
अपनापा
और एक चाहत।
1 टिप्पणी:
काश नफ़रतों की सरहदें भी टूट जायें।
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