सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

कमजोरी

उस दिन
हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा
काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी
ऐसा कोई ड्रायर होता
.
.
फिर मुझे याद आया
आंसुओं का सूख जाना, एक बीमारी होता है
ड्राई आई सिंड्रोम नाम की एक बीमारी
.
.
मतलब आंसू सूख जाना बीमारी होता है
और
आंसू आते ही रहें
रुकें ही ना...तो
कमजोरी







सोमवार, 30 दिसंबर 2019

थाईलैंड- समंदर को सीने से लगाए खड़ा एक देश


समझ नहीं आता कहां से शुरू किया जाए। 
चार साल पहले पासपोर्ट बनवाने में हुए संघर्ष से।
दो साल पहले देखे गए विदेश यात्रा के सपने से या फिर बिलुकल अभी से जब हम इस सपने को पूरा करके वापस देश लौट आए हैं।

सपनों को जी लेना बहुत खूबसूरत होता है। 

लेकिन इन्हीं सपनों को पूरा करने के पीछे इतनी लंबी एक कहानी होती है...कि बताने का सोचने से पहले ही एक अजीब सी थकान महसूस होने लगती है।

फिर लगता है, चलो छोड़ो, क्या बताना, अब तो हो गया...

लेकिन
...बताना जरूरी होता है...बताने से अहसास होता है कि कुछ लम्हे जो कुछ लम्हों के लिए ही आए थे, लेकिन उन लम्हों को लाने में कितने घंटों, दिनों, महीनों और साल का वक्त लगा...और कितनी मजेदार कोशिशें हुईं...और उन सपनों को पूरा करने के बीच कितनी बार हम लड़े, झगड़े, हंसे, रूठे, रोए और फिर जुट गए उन्हीं कोशिशों में :) 

शुरुआत हुई थी यूरोप यात्रा के प्लान से बीच में आए दुबई और सिंगापुर मगर इन पर भी बात नहीं बनी...और हम हाल ही में होकर आए हैं थाईलैंड।

थाईलैंड, जो बजट, छुट्टियों, पसंद और मौसम के हिसाब से फिलहाल सबसे मुफीद था।पहली बार पासपोर्ट पर स्टैम्प लगने की खुशी जाहिर नहीं की जा सकती, उसे आप सिर्फ एक ट्रेवलर के चेहरे पर देख सकते हैं। नई दिल्ली से बैंकॉक एयरपोर्ट पर पहुंचने के बाद पासपोर्ट पर वीजा स्टैम्प की इस प्रोसेस से गुजरना मुश्किल भरा लगा।  

थाईलैंड के लोग अंग्रेजी भी बहुत कम समझते हैं। वहां लोगों से बात करने में काफी मुश्किल हो रही थी...मदद कर रहे थे, तो सिर्फ साइनबोर्ड्स। उन्हीं की मदद से जब दो-तीन घंटे अलग-अलग लाइनों में लगने के बाद पासपोर्ट पर स्टैम्प लगी, तो उस वक्त ऐसा लगा जैसे हम किसी सपने को पाने की पहली सीढ़ी चढ़ गए हों।


इसके बाद थी बैंकॉक से फुकेट की फ्लाइट और बीते 14 घंटे से भूखे-प्यासे हम।

तो हम भारत के रुपयों को थाईलैंड के बाट में कन्वर्ट करवाकर जो करंसी अपने साथ लाए थे, उसमें से पहला खर्च किया पानी की बोतल पर , जो हमें एयरपोर्ट पर सौ बाट की मिली...और इसके बाद मैं अपने नेचर के मुताबिक अपने माथे पर तरेरे आने से रोक नहीं पाई...वो पानी पी नहीं पाई और बस ये फैसला करके रह गई कि यहां कुछ नहीं खाऊंगी...चाहे भूखी मर जाऊं।

लेकिन अपने नेचर के मुताबिक आकाश टॉयलेट का बहाना लेकर उठे और एयरपोर्ट से ही 180 बाट का सैंडविच लेकर आ गए, जो पानी की तुलना में मुझे काफी सस्ता लगा और भूख पर काबू ना हो पाने के कारण हम दोनों ने उसी सैंडविच से डिनर और ब्रेकफास्ट दोनों कर लिया। इस तरह सैंडविच के सहारे हम फुकेट पहुंचे, क्योंकि फ्लाइट में हमें जो मील सर्व हुआ, उसमें वेजिटेरियन ऑप्शन ही नहीं था।फुकेट एयरपोर्ट पर पहुंचकर जो कैब हमें लेने आने वाली थी, उसे ढूंढने में फिर लैंग्वेज प्रॉब्लम सामने आई। जिस जगह कैब को मिलना था, वहां हमारे नाम का कोई बोर्ड नहीं था। काफी मशक्कत के बाद किसी तरह वहां खड़े लोगों से बात करके मालूम चला कि हमें लेने आने वाला स्टाफ अभी खुद ही एयरपोर्ट नहीं पहुंचा है। मेकमाईट्रिप की ऐसी कृपा हम पर दूसरी बार बरस रही थी... :(

मगर उस वक्त हमारे अंदर गुस्सा करने की भी हिम्मत नहीं थी। कैब ड्राइवर हमें फुकेट एयरपोर्ट से हमारे होटल तक ले गया, तो रास्ते में हमने उससे काफी बातें कीं। वो अंग्रेजी समझता था और थोड़ा बहुत भारत के बारे में भी जानता था। हमने उसे कुछ इंडियन कुकीज खिलाईं, तो उसने भी हमें अपनी एक इच्छा बताई। वो हमारे देश के सिक्किम को देखना चाहता है। उसने कहा, उसके पास फिलहाल इतने पैसे नहीं है, लेकिन अगर पैसे जोड़ पाया, तो सिक्किम घूमने जरूर जाएगा।

उसने इंडियन कुकीज की भी बहुत तारीफ की। हमने भी उससे फुकेट में इंडियन फूड के बारे में पूछा। उसने हमें बताया कि हमारे होटल से 15-20 मिनट दूर हमें अच्छे इंडियन रेस्तरां मिल जाएंगे। लेकिन उस वक्त हम भूखे होने के साथ-साथ बहुत थके हुए भी थे, इसलिए होटल से उम्मीदें लगाकर सीधे वहीं पहुंचना ज्यादा बेहतर लगा।

होटल पहुंचने के बाद जाहिर तौर पर पहला काम था वहां का मेन्यू चेक करके कुछ ऑर्डर देना, ताकि हमारे फ्रेश होने तक कुछ खाने को मिल जाए।

होटल के उस मेन्यू में एक चीज जो अवेलबल थी और समझ आ रही थी, वो थी पास्ता। इंडिया में मैं बहुत अच्छा पास्ता बनाती भी हूं और मुझे खाने में भी अच्छा लगता है...जुबान पर वही स्वाद आया और मुझे लगा कुछ नया ट्राई करने की बजाय इस समय यही ऑर्डर कर देना सही होगा।

लेकिन सारी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए पास्ता के नाम पर मोटे-मोटे नूडल्स आए, जिसमें कुछ अजीब स्मेल थी, जो खराब नहीं थी, लेकिन मेरे लिए नई थी और बर्दाश्त से बाहर भी... मैं वो नूडल्स या पास्ता भी नहीं खा पाईं...उस दिन पहली बार मैंने गार्लिक ब्रेड खाई, जो उन नूडल्स के साथ दी गई थी। और उस दिन से ग्रालिक ब्रेड मेरी फेवरेट चीजों में भी शामिल हो गई। आखिर में इंडिया से लाई गईं कुकीज और नमकीन खाकर ही मैंने पेट भरा।

भूख और थकान के मारे एक अजीब से नेगेटिविटी महसूस हो रही थी। लग ही नहीं रहा था कि घूम भी पाएंगे। मगर हर नई सुबह कुछ नया  लेकर आती है और फुकेट में हमारी पहली सुबह कुछ ऐसी ही थी...बहुत खूबसूरत। सारी भूख औऱ थकान मिटा देने वाली।होटल के बुफे में नॉनवेज के साथ वेज ऑप्शन भी थे। और सुबह तक कहीं न कहीं मैंने खुद को मेंटली प्रिप्येर कर लिया था कि खाने के मामले में कम्प्रोमाइज करना पड़ सकता है।

पहला दिन

पहली सुबह हम निकले जेम्स बॉन्ड आईलैंड , बैटमैन केव और साथ में आने वाली बहुत सी खूबसूरत जगहों की सैर पर।

होटल से हमें फेरी स्टॉप तक ले जाने के लिए एक मिनी बस आई। इसके बाद हम फेरी पर सवार होकर पहली बार किसी आईलैंड को देखने जा रहे थे। फेरी का स्टाफ बहुत ही इंटरटेनिंग था। वहां एक बड़े डाइनिंग हॉल जैसे माहौल था। फेरी के चारों तरफ बैठने के लिए बैंच थीं और बीच में एक बड़ी टेबल जिस पर पानी, कॉफी,चाय, कुकीज और कोल़्डड्रिंक की व्यवस्था की गई थी। फेरी पर बैठने के कुछ ही देर बाद सभी लोगों का फोटोज और सेल्फी लेने का सिलसिला शुरू हो गया। फेरी ट्रेवल हमने मुंबई में भी किया था, लेकिन वहां का समंदर और यहां का समंदर जमीन-आसमान का अंतर रखता है।

होटल से हमें फेरी स्टॉप तक ले जाने के लिए एक मिनी बस आई। इसके बाद हम फेरी पर सवार होकर पहली बार किसी आईलैंड को देखने जा रहे थे। फेरी का स्टाफ बहुत ही इंटरटेनिंग था। वहां एक बड़े डाइनिंग हॉल जैसे माहौल था। फेरी के चारों तरफ बैठने के लिए बैंच थीं और बीच में एक बड़ी टेबल जिस पर पानी, कॉफी,चाय, कुकीज और कोल़्डड्रिंक की व्यवस्था की गई थी। फेरी पर बैठने के कुछ ही देर बाद सभी लोगों का फोटोज और सेल्फी लेने का सिलसिला शुरू हो गया। फेरी ट्रेवल हमने मुंबई में भी किया था, लेकिन वहां का समंदर और यहां का समंदर जमीन-आसमान का अंतर रखता है। आप नीले समंदर के बीचों बीच हैं और चारों तरफ आपको हरे-भरे पहाड़ नजर आ रहे हैं। आसमान बिलकुल साफ है। और इसी फेरी राइड के बीच आपको मौका मिलता है, केनोइंग का। 

आपकी फेरी समंदर के बीच में ही एक दूसरी फेरी के सहारे लंगर डालती है और फिर आपको फेरी से एक-एक केनोई पर ट्रांसफर किया जाता है। इसके सहारे आप समंदर को और करीब से महसूस कर पाते हैं और उन जगहों तक पहुंच पाते हैं, जहां से फेरी या बोट के जरिये नहीं जाया जा सकता।जैसे हम केनोइंग करते हुए पहुंचे बैटमैन केव में। यकीन मानिए बहुत डरावना और रोमांचक सीन था। आप एक अंधेरी सी गुफा में पानी के बीचोबीच हैं और गुफा की छत पर हजारों चमकादड़ उलटे लटके हुए हैं। बस कल्पना कीजिए...इसके आगे बताया नहीं जा सकता कुछ।इसके बाद केनोइंग के दूसरे पड़ाव पर हमने की समंदर के बीच बने ऐसे पहाड़ों की सैर जो जानवरों की अलग-अलग शेप्स में ढल गए हैं। 

कोई हाथी जैसी सूंड बाहर निकालकर खड़ा है, तो कोई जिराफ जैसी गर्दन।इसके बाद हम पहुंचे जेम्स बॉन्ड आईलैंड। वही जेम्स बॉन्ड आईलैंड, जहां 1974 में जेम्स बॉन्ड मूवी द मैन विद द गोल्डन गन की शूटिंग हुई थी। तभी से इसे जेम्स बॉन्ड आईलैंड के तौर पर जाना जाता है।सतही तौर पर देखें, तो ये सिर्फ एक लंबा सा पहाड़ है, जो समंदर के बीचों बीच तना खड़ा है, एकदम अकेला। लेकिन इसे देखना अपने आप में जैसे एक पूरे दृश्य और किसी आइकोनिक फिगर को देखना है, बिलकुल इंडिया गेट या गेटवे ऑफ इंडिया की तरह ही। फेरी ने हमें यहां एक घंटे रुकने का मौका दिया और यहां से लौटने के बाद हमें फेरी पर ही मिला लंच।

जैसी कि उम्मीद थी लंच में वेजिटेरियन ऑप्शंस में सिर्फ फ्राइड राइस और अनियन रिंग्स ही थे। हमने वही खाकर पेट पूजा की और वापसी में थकान के चलते समंदर के बीच से उठती ठंडी हवाओं में कब नींद आ गई, पता नहीं चला। सुबह आठ बजे से शुरु हुआ हमारा ये सफर शाम साढ़े पांच बजे खत्म हुआ और हम वापस अपने होटल पहुंच गए।

कुछ देर आराम करने के बाद हमें करना था डिनर का इंतजाम, जिसके लिए होटल के मेन्यू पर डिपेंड नहीं रहा जा सकता था। कुछ देर आराम करने के बाद करीब आठ बजे हम डिनर के लिए निकल पड़े।

अब हमें एक्सप्लोर करना था हमारे होटल के काफी नजदीक स्थित पटोंग बीच और बांग्ला स्ट्रीट, जो दुनिया भर में मशहूर है। हम यहां सुस्ताने के मूड में सिर्फ खाना खाकर लौटने के लिए पहुंचे थे, लेकिन शांत से शहर से गुजरने के बाद जैसे एक नई सी दुनिया में हमारा स्वागत हुआ।

ओपन क्लब्स में पोल डांस करती बेहद लंबी-ऊंची डांसर्स, हर तरफ रोशनी और रंगों से नहाया हुआ माहौल। सड़क के दोनों तरफ बने शॉपिंग स्टोर्स और इतनी चहल-पहल जैसे दिन अभी निकला हो और हर कोई पूरी ऊर्जा से लबरेज काम में जुटा हो।हालांकि हमारा ध्यान अगले ही पल उस चकाचौंध से ज्यादा इंडियन वेज फूड वाला रेस्तरां ढूंढने पर गया, तो हमने उसी के बारे में पूछताछ शुरू की। वहां हमें मिला बॉम्बे फूड रेस्तरां। ये रेस्तरां जैसे अपने घर की तरह बांहें फैलाएं हमारा फेवरेट खाना सजाए स्वागत कर रहा था। यहां हर तरह का इंडियन फूड बिलकुल इंडियन अंदाज में परोसा जाता है। बस कहने की देर है, और आपका ऑर्डर हाजिर। पूरे दो दिन बाद दाल, रोटी और सब्जी खाकर जैसे दिल और पेट दोनों खुश हो गए।


दूसरा दिन

दूसरे दिन हमें जाना था फी-फी आईलैंड, जो फुकेट के सबसे पॉपुलर टूरिस्ट स्पॉट्स में से एक है और दुनिया भर में मशहूर भी। ये थाईलैंड में मौजूद सभी आईलैंड्स का शाहरुख खान यानी सुपरस्टार है। इसकी खूबसूरती पहली ही नजर में जैसे दीवाना कर देती है। समंदर का नीला-हरा रंग और उसके बीच में बने पहाड़.... यहां पहुंचते हुए दिखने वाले नजारों के लिए कोई शब्द या परिभाषा मुझे तो नहीं सूझी...कुछ देर तस्वीरें खींचने के बाद मन हुआ जैसे हर एक दृश्य को बस चुपचाप हमेशा के लिए अपने भीतर जज्ब कर लिया जाए। फी-फी आईलैंड पहुंचकर स्वीमिंग, स्नॉरक्लिंग का मौका भी मिलता है और अगर आप ये नहीं करना चाहता, तो दिल खोलकर इस आईलैंड पर मौज मस्ती कर सकते हैं। यहां पानी के बीच दूर तक बिना किसी खतरे के जाकर स्विमिंग और वाटर स्पोर्ट्स का मजा लिया जा सकता है। 

इसके बीच सी-फेसिंग रेस्तरां में ही लंच की भी व्यवस्था है। पास ही मार्केट भी है, जैसे यहां के सोविनियर प्रोडक्ट खरीदे जा सकते हैं। दूसरा दिन पूरी तरह फी-फी आईलैंड के नाम रहा और डिनर के लिए हम फिर बांग्ला स्ट्रीट ही पहुंचे। यहां खाना खाने के बाद हमें नजर आई क्रिसमस डेकोरेशन और लाइव म्यूजिक परफॉर्मेंस...जो कि काफी खूबसूरत थी। तीसरे दिन हमें फुकेट से क्राबी जाना था, इसलिए हम समय से  होटल लौट आए...

एक बात बताना शायद मैं भूल गई...अगर आप टूर पैकेज पर आए हैं, तब तो आपके लिए कार बुक होती हैं। लेकिन अगर आप बिना पैकेज यहां आते हैं, तो थाईलैंड में लाइफलाइन का काम करती हैं स्कूटी। यहां 24 घंटे के लिए 200 बाट पर स्कूटी किराए पर मिल जाती है। फिर आप पूरा शहर नाप सकते हैं। इसके अलावा यहां बाइक टैक्सी भी हर चौराहे पर खड़ी मिल जाती है। यहां हेलमेट लगाने या तीन लोगों के टू-व्हीलर पर साथ ना बैठने जैसे कोई नियम नहीं हैं। हमने बाइक टैक्सी की मदद से ही पटोंग बीच और बांग्ला स्ट्रीट एक्सप्लोर की।


तीसरा दिन

सुबह 7 बजे ही हमें क्राबी के लिए निकलना था...हम वहां लॉन्ग टेल बोट से पहुंचे और 12 बजे होटल में चेकइन किया। अच्छी बात ये रही कि क्राबी में हमारा होटल आओ नांग बीच के बिलकुल सामने था और होटल के सामने इंडियन रेस्तरां के एक से बढ़कर एक विकल्प। यहां आकर ना भूखा रहना पड़ा ना ही वेज फूड ढूंढने की मशक्कत करनी पड़ी। इतना ही नहीं, यहां हमें मिला गोविंदा रेस्तरां, जो कृष्ण भक्त चलाते हैं। 

यहां का वातावरण और खाना इतना अनोखा और अद्भुत था कि बिना खाने की जरूरत के भी हम यहां जाकर बैठ जाते थे। इस रेस्तरां में दाखिल होने के लिए आपको चप्पल जूते बाहर निकालने होते हैं। यहां बुफे सिस्टम भी है और आप अपनी पसंद से कुछ ऑर्डर भी कर सकते हैं। नीचे बैठकर खाना खाने की ट्रेडीशनल व्यवस्था भी है और टेबल चेयर के साथ मॉर्डन अरेंजमेंट भी। पहले दिन हमने आओनांग बीच एक्सप्लोर किया और आसपास की मार्केट देखी।


चौथा दिन

चौथे दिन हमें सुबह आठ बजे ही पोडा आईलैंड के लिए निकलना था। फिर एक बार हम स्पीडबोट में सवार होकर निकल पड़े और अब जो नजारे रास्ते में थे, वो फी-फी आईलैंड से भी ज्यादा अद्भुत थे। यहां स्पीडबोट में जाने से पहले ही आपके चप्पल जूते जमा करवा लिए जाते हैं। 

थाईलैंड को जितना घूमा, वहां एक बात सामने आई कि पर्यावरण संरक्षण और साफ-सफाई को लेकर काफी जागरुकता है। पोडा आईलैंड की व्हाइट सैंड में आप जमकर मस्ती कर सकते हैं। यहां कई तरह की वाटर एक्टिविटीज करने का भी मौका मिलता है और फिर सनबाथ का ऑप्शन तो है ही। यहां सनस्क्रीन और टॉवल लेकर जाना बहुत जरूरी है, वरना आपको मेरी तरह टैनिंग भी हो सकती है।

पांचवा दिन 

पांचवें दिन हमारी वापसी थी और हम थाईलैंड की खूबसूरत और यहां मिली खूबसूरत यादों को अलविदा कहकर 18 घंटे लंबे सफर पर निकल पड़े दिल्ली वापस आने के लिए।


[ बहुत कुछ लिख देने के बाद भी काफी कुछ छूट जाता है, अगर आप भी कभी फुकेट या क्राबी जाने का प्लान करें और कुछ जानकारी चाहिए हो, तो मुझसे फेसबुक पर कॉन्टेक्ट कर सकते हैं- https://www.facebook.com/himani.diwan ]


मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

कोट और पुतली की प्रेम कहानी


एक शहर का नाम है कोट और नजदीक में एक गांव है, जिसका नाम है पुतली। 

अक्सर आस-पास रहते हुए आपस में काफी अंतर होते हुए भी साथ चलने और साथ होने की इतनी आदत हो जाती है कि उस अंतर को खत्म करके एक हो जाने का अहसास हर पल दिलो-दिमाग में हावी होने लगता है।
शायद कोट और पुतली के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा और वो एक होकर कोटपुतली बन गए।
शायद ये लवस्टोरीज को लेकर मेरा अतिरेक ही है कि मैंने अपनी कल्पना से ये कहानी गढ़ दी है...मुझे गढ़ते हुए अच्छा लगा और उम्मीद पाल चुकी हूं कि पढ़ने वालों को पढ़ते हुए अच्छा लगेगा...इसके आगे की कहानी ये है कि कोटपुतली दिल्ली से 175 किमी दूर है, गुड़गांव से 128 किमी, जयपुर से 105 किमी और अलवर से 70 किमी। कोटपुतली की लवस्टोरी जो मैंने अपने मन से गढ़ दी है उसे आप अपनी आंखों से देख सकते हैं वहां जाकर जहां मेरी इमेजिनेशन में कोट और पुतली की शादी हुई थी। उस जगह का नाम है जस्ट देसी। 
Just Desi एक ठौर है दिल्ली से जयपुर जाते वक्त सुस्ताने के लिए। शहर की आपाधापी के बीच खुद को एक 

ऐसा मौका देने के लिए जो कम से कम एक महीने के लिए आपको तरोताजा रख सकता है। यहां आपको खेतों की रौनक मिलेगी और चाहे तो एक-दो हाथ बुआई-कटाई में लगाकर खेती को समझ भी सकते हैं। ताजा और एकदम ऑर्गेनिक सब्जियां लेकर भी आ सकते हैं।

प्रकृति अपने आप में जादुई होती है और मिट्टी को आकार लेते देखना भी मुझे उस जादू का ही एक हिस्सा लगता है। यहां आप ये जादू सिर्फ होते हुए ही नहीं देखते खुद वो जादू कर भी सकते हैं। यहां क्ले मॉडलिंग का एक कॉर्नर बना है, जहां आप अपनी पसंद के बर्तन बना सकते हैं...ये बर्तन अपने घर ले जाकर हमेशा के लिए यादों को भी सहेज सकते हैं।
अगर आपको लगता है कि चक्की पीसने का कनेक्शन सिर्फ जेल जाने से है, तो आप गलत हैं। एक जमाने में
जब हर घर में चक्की होती थी और महिलाएं अनाज हर रोज उसी चक्की पर पीसा करती थीं...वो जमाना जस्ट
देसी में फिर से जी उठता है, यहां बने चक्की कॉर्नर के साथ। बच्चों को उस जमाने की झलक दिखाने का ये अच्छा तरीका हो सकता है।

फिर चूल्हे की रोटी और बिना मशीन के दूध से मक्खन निकालने का तरीका, सूरज की परछाई से समय देखने की  ट्रिक जिस तरह आपके बच्चे यहां देखेंगे, शायद वो शहरों में देखने को ना ही मिले। 
ये ठौर मेन सड़क पर है, लेकिन इसके लिए सीढ़ियां उतरकर एक नई दुनिया में जाना पड़ता है, ये दुनिया सड़क पर तेज रफ्तार से जाती गाड़ियों से शायद नजर ना आए, इसलिए जीपीएस ऑन करके सही पते तक पहुंचना सही रहता है। मगर ज्यों-ज्यों आप सीढ़ियां उतरकर उस दुनिया में जाते हैं, उसके बाद के पल हमेशा के लिए यादगार बन जाते हैं।


ऐसे समय में जब नौकरी से छुट्टी मिलने का झंझट हो और एक ऑफ में ही दुनिया समेटनी पड़े, तब इस ठौर का 
रूख करके दुनिया बदलने का अनुभव लिया जा सकता है।








गुरुवार, 15 जून 2017

फिल्में सिर्फ देखें ही नहीं, बचाना भी सीखें



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फिल्में देखने का शौक है, तो उन्हें बचाने का शौक भी पालना होगा, वरना बचेंगी नहीं फिल्में। पहली बोलती फिल्म आलमआरा का एक भी प्रिंट उपलब्ध नहीं हैं।

शुक्रवार, 2 जून 2017

मैं, वो, ये सब

वो नहीं चाहता क‌ि
मैं उसे चाहूं
तो मैं उसे चाहूं कैसे

मैं खुद को भी चाहूं
तो उससे अलग कैसे रहूं
मैं रहती हूं अब
मैं, वो हूं जैसे

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

मैं एफर्टलेस हो जाना चाहती हूं


तुम्हें पाने की इतनी प्रार्थनाएं की हैं।
इतने मंद‌िरों की घंट‌ियां बजाई हैं।
इतने व्रत रखे हैं।
आधी-आधी रात में उठकर इतने-इतने ख्वाब बुने हैं
इतनी-इतनी कव‌िताएं ल‌िखी हैं, तुमसे मिले बिना क‌ि 
अब तुम्हारे मिल जाने पर
मैं बिलकुल एफर्टलेस हो जाना चाहती हूं।

मैं चाहती हूं क‌ि तुम्हें पुकारूं भी ना
और तुम आ जाओ।

मैं चाहती हूं क‌ि तुमसे कहूं भी ना 
और तुम समझ जाओ।

मैं चाहती हूं क‌ि तुम सुन भी न पाओ
और मी टू भी कह दो।

मैं चाहती हूं क‌ि मेरी जरूरत का अहसास 
मुझसे पहले तुम तक पहुंचे।

मैं चाहती हूं क‌ि हिचक‌ियां तुम्हें पानी की कमी से नहीं 
मेरे याद करने पर ही आएं।

मैं चाहती हूं क‌ि मेरे दिल में गहराते जा रहे सन्नाटों को पहचानो तुम
और उन्हें मिटाने के ल‌िए हर रोज गिटार की धुन पर एक नया गीत सुनाओ।

मैं चाहती हूं क‌ि तुम ये समझो क‌ि तुम्हारा मेरे पास होना
आसमान के जमीन से मिल जाने जैसा जादुई है मेरे ल‌िए
मैं चाहती हूं क‌ि तुम ये जादू मुझे हर रोज द‌िखाओ।

तुम कह सकते हो क‌ि तुम्हारे भी अपने एफर्ट्स रहे हैं 
मगर मैं फ‌िर भी यही कहूंगी क‌ि तुम हमेशा से एफर्टलेस थे
अब मैं 
तुम हो जाना 
चाहती हूं। 

सोमवार, 16 जनवरी 2017

नरेश सक्सेना की तीन जरूरी कव‌िताएं

बहते हुए पानी ने
पत्थरों पर निशान छोड़े हैं
अजीब बात है
पत्थरों ने पानी पर

कोई निशान नहीं छोड़ा।

॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰

दीमकों को
पढ़ना नहीं आता
वे चाट जाती हैं
पूरी
क़िताब
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰

हवा के चलने से
बादल कुछ इधर-उधर होते हें
लेकिन कोई असर नहीं पड़ता
उस लगातार काले पड़ते जा रहे आकाश पर
मुझे याद आता है बचपन में घर के सामने तारों से लटका
एक मरे हुए पक्षी का काला शरीर
मेरे साथ ही साथ बड़ा हो गया है मेरा डर
मरा हुआ वह काला पक्षी आकाश हो गया

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...