शनिवार, 31 मार्च 2012

बस स्टैंड के वेटिंग रूम में एक घंटा


सूरज उग तो चुका होगा, लेकिन जापान से भारत और भारत में लुधियाना बस स्टैंड तक आते-आते शायद सूरज को देर लग रही थी। कहने को सुबह के पांच बज रहे थे, लेकिन देखने को गुप अंधेरा था जिसे चीरकर देखने पर खुद मुझे चीरकर देखती कुछ आंखें नजर आ रही थी। मैंने शक्ल पर बाहर बजाए बिना पूरी धाक के साथ यहां-वहां घूमना शुरू कर दिया...
यहां-वहां से मतलब, बस स्टैंड पर बाजार भाव से ज्यादा दाम में मिलने वाली दुकानों के आस-पास घूमना शुरू कर दिया। पर दुकानदारों की आंखों में अपना सामान बेचने का लालच था या .....जैसे मेरी ही कीमत लगाकर मुझे खरीदने का..मैं समझ ही नहीं पा रही थी। तेज कदमों से शौचालय की तरफ बढ़ी। बाहर ही काले रंग की एक औरत बैठी थी, जिसकी शक्ल और पहनावे पर बिहार की छाप साफ दिखती थी मगर पंजाब की भाषा और बोली के रंग में वो पूरी तरह रंग चुकी थी...

उसे देखकर मालूम हो गया था कि ये यूपी-बिहार से हर साल हजारों की तादाद में पंजाब आकर बसने वाले लोगों में से एक थी। अंदर जाने से पहले ही बता दिया..दो रुपये लगेंगे। मैंने हामी में सिर हिलाया और अंदर चली गई। बाहर आई तो दीवार पर नजर पड़ी जिस पर लिखा था महिला वेटिंग रूम। शौचायल के बाहर की तरफ एक कमरे में कई सारी कुर्सियां रखी थी। मुझे लगा जब तक सूरज की किरणें सुबह होने का सबूत नहीं देती, तब तक यहीं इंतजार करना सही होगा। मैं वहीं दो कुर्सियां मिलाकर कमर सीधी करके बैठ गई..लेकिन कुछ ही देर बाद देखा कि...

कुछ ही देर बाद देखा कि कमरे के बाहर बैठी औरत से आते-जाते एक-दो आदमी मेरी तरफ इशारा करके पूछ रहे थे..कौन है ये लड़की..कब आई..कितनी देर से बैठी है यहां..जवाब देते वक्त उस औरत की आंखें कहीं और थी सोच कहीं और , और वो जवाब कहीं और से दे रही थी..उसका जवाब यही थी कि हुणे ही आया है...ज्यादा देर नहीं हुआ...इसके बाद उसने जो बोला उससे जवाब देने के उसके लहजे का कारण पता चला...उसकी आंखें कहीं और, और सोच कहीं और इसलिए थी क्योंकि...वो उस लड़की के बारे में सोच रही थी जो अभी कुछ देर पहले यानी मेरे आने से पहले यहां बैठी थी...जो अक्सर इस वेटिंग रूम में आती थी... ऐसे ही समय... जब अंधेरा उजाले के सामने जबरदस्ती सीना तान कर खड़ा हो जाता है...एक नाजायज हक की तरह...उस लड़की का कुछ सामान यहां छूट गया था..औरत छूटे हुए सामान और उस लड़की के बारे में ही सोच रही थी...बोली अभी तो मैंनू कही सी आंटी चाय पी लो तुसी..हुण दीखदी नइ..सामान भी इत्थे छोड़ गया है...अब मेरी आंखें कहीं और थी और सोच कहीं..मैं...


मैं सोच रही थी कि मैं यहां बैठकर कुछ गलत तो नहीं कर रही। वो आदमी वहां से जा चुके थे। औरत खुद ही बात करते हुए मेरी तरफ बढ़ी, बताने लगी...वो तो आता रहता है यहां..काम ही ऐसा है उसका...अभी तो यहीं था, आप देखा था क्या उसको..मैंने कहा नहीं, मैं तो आपके सामने ही आई हूं...
औरत बोली हां सही कह रहे हो मैं यही बोला पाजी नूं...वो पूछ रहा था ...पता नहीं कहा चला गया वो ये सामान यही छोड़ गया...हम जानता है उसको रात का काम करता है..आता रहता है यहां...वो औरत बार-बार कह रह थी..रात का काम करता है..दो-तीन दिन पर आता रहता है यहां...फिर बोली एक आदमी का पांच सौ रुपये लेता है...मैं...मैंने...मैंने पूछा..

वो औरत एक लड़की के बारे में बात कर रही थी। एक आदमी के पांच सौ रुपये लेने वाली लड़की के बारे में, जो हर दो-तीन दिन बाद ऐसे ही अंधेरे जैसे उजाले के वक्त इस वेटिंग रूम में आती थी। उसकी बातों को सुनने के बाद मैं जो समझ रही थी उसे समझना चाहती नहीं थी, इसलिए मैंने उस औरत से पूछा क्या काम करती है वो लड़की...उसने जिस क्रियात्मक तरीके से उसके काम का ब्यौरा दिया वो...मेरे लिए ऐसा था जैसा मैंने बिल्कुल उम्मीद नहीं थी की और...पता नहीं शायद उसके बाद कहने के लिए सवाल बचे थे या पूछने की हिम्मत ही जवाब दे चुकी थी। मैं उसके हर ब्यौरे को झुकलाना चाहती थी.. मैंने औरत से पूछा आपको कैसे पता..कहने लगी ...

मैंने अपनी समझ को नकारने के लिए उस औरत से पूछा- आपको कैसे पता कि वो लड़की क्या काम करती है..वो बोली हमको चाय पिलाती है..दिल की बहुत साफ है, खुद बताया उसने...सिर्फ एक घर है यहां, बाप नहीं है...एक भाई है जो कुछ काम नहीं कर सकता बीमार रहता है..घर का खर्च चलाने के लिए धंधे का काम करने लगी है। हमको बताती है रोती भी है। मजबूरी में करती है। पर ऐसा करना नहीं चाहिए हम भी तो यहां रात भर ड्यूटी देता है फिर सुबह फैक्ट्री में भी काम करता है, शरीर ही जो बेच दिया तो फिर क्या बाकी रहा..करना नहीं चाहिए...पर बेचारा मजबूरी में करने लगी होगी...मैं सुनने से पहले ही समझ चुकी थी ये बात और अब दोबारा सुनने के बाद अपने कानों की सन्नाहट में गरम सरसों का तेल डाल लेना चाहती थी...अब उजाले ने अंधेरे को हटाकर अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी लेकिन मैं अपनी जगह पर सुन्न हो चुकी थी...
बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई, अब भी जैसे अंधेरे की चादर में उजाला पैबंद की तरह था, मैं यहां से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। ये अलग बात है कि अब वो जगह उस तरह महफूज नहीं लग रही थी जैसा सोचकर मैं वहां रुक गई थी। उस औरत के पास बताने के लिए अभी कुछ और भी बाकी थी...बोली हम तो बेटा यहां बहुत लड़कियों की जिंदगी बचाया है। कई दफा भाग-भाग कर आ जाती हैं किसी लड़का-वड़का के साथ। हम प्यार से नाम और घर का पूछता है। इतलाह भी कर देता है मां-बाप को उनके। कई को घर भी पहुंचवाया। अब उनके मां-बाप पैर छूकर जाता है हमारे। मैं सोच रही थी कि एक बस स्टैंड के वेटिंग रूम में मैं वेट कर रही हूं या जिंदगी के कई गहरे रंग मेरा वेट कर रहे थे...और जैसे आते ही बिखरने लगे..एक एक करके ..मैं सिमटती जा रही थी वो रंग बिखरते ही जा रहे थे...
अब वो औरत अपनी जगह पर जाकर बैठ चुकी थी। मैं अपनी जगह पर सीधे होकर बैठ गयी थी। सामान सीधा कर दिया और वहां से बाहर निकलने को तैयार होने लगी। रोका उस औरत ने, कहने लगी अभी बैठ जाओ, इतना उजाला नहीं हुआ सात-एक बजे तक निकलना, कुछ ठीक नहीं है माहौल का...मैंने उसकी बात को अनसुना कर दिया। मैं बाहर निकल आई। धीरे-धीरे बस स्टैंड से बाहर निकलने लगी। एक-एक कदम के साथ सवालों का एक-एक कांबोपैक था। अब मुझे अंधेरे और उजाले के फर्क की परवाह नहीं थी। मैं ऑटो में बैठ गई थी, लेकिन मैं स्तब्ध थी।

दुनिया में वेश्याएं होती हैं, जनरल नॉलेज की तरह मैं ये बात जानती थी, मानना नहीं चाहती थी। मुझे ये मिथकीय चरित्र लगते थे। मैं कभी नहीं मान पाती थी कि एक औऱत अपना शरीर बेच सकती है, पैसों के लिए। लेकिन इस दफा मैंने सच में उस लड़की को देखा था जो अपना शरीर बेचकर आ रही थी। मैं स्तब्ध न होती अगर वो लड़की अपना सामान लेने वापस उस वेटिंग रूम में न आई होती और मैंने उसे अपनी आंखों से न देखा होता, अगर मेरे मन के मिथकीय चरित्र से परदा न हटा होता... जींस-टीशर्ट पहने बेहद शरीफ घर की दिख रही थी वो लड़की। कोई लीपापोती नहीं थी उसके चेहरे पर। जैसे नाक की सीध में दो दिशाओं में बंटा था उसका चेहरा नाक की सीधी तरफ मासूमियत और बांयी तरफ मजबूरी...इशारा करके बताया उस औरत ने यही है वो लड़की...। उसकी बॉडी लैंग्वेज में कहीं से ये नहीं झलक रहा था कि वो एक ऐसा काम करती है जिसे सोचना भी....।

शनिवार, 24 मार्च 2012

प्रेम का अनुवाद

प्रेम का अनुवाद देह होता है
किसी ने कहा था
मैंने कहा
जिस प्रेम का अनुवाद देह है
वो प्रेम से कुछ अलग है
प्रेम से कुछ कम है
उसने कहा
ये तुम्हारा भ्रम है
मैंने कहा
तुम्हारी भाषा ही कमजोर है
जिस तरह पूजा के बाद मिलने वाले
जल का अनुवाद पानी नहीं हो सकता
उसी तरह
प्रेम का अनुवाद देह नहीं बन सकती
तुम्हीं सोचो, तुम्ही बताओ
क्या तुम्हें सिर्फ मिटती हुई वो दूरियां याद हैं
जिनके बाद दो शरीर एक दूसरे में सिमटते गए थे
.
.
एक-दूसरे के शरीर से कोसों दूर भी
लगातार पलती-बढ़ती हुई
उन नजदीकियों को तुमने कौन सी जगह दी है
अपनी स्मृति में
अपनी यादों में
क्या सबसे निचले माले पर बिठा दिया है
उन पलों को
जिनके होने से बचा हुआ है
आज भी
प्रेम का असितत्व
देह से बिल्कुल अलग
बहुत दूर भी

रविवार, 18 मार्च 2012

तुम और मैं

तुमसे दूर जाने की कई वजह थी मेरे पास
फिर भी
मैं तुम्हारे सबसे नजदीक रहना चाहती थी
तुम हर बार
मेरे दिल पर दस्तक देकर
दुत्कार रहे थे मुझे
मैं हर बार
तुम्हारा दर्द सहलाना चाहती थी
तुम चाह रहे थे
सब कुछ छिपाना
मैं चाह रही थी जताना
तुम पहले ही
निगल चुके थे
सारी भावनाएं
मैं अब
दांतों तले
हर एक अहसास को
चबा रही थी
तुम
एक अहम शख्सियत बनना चाहते थे
मेरी जिंदगी में
मैं
तुम्हें अपनी दुनिया का
सबसे खास शख्स बनाना चाहती थी
तुम अच्छी तरह जान चुके थे मुझे
कई तरह परख चुकने के बाद
मुझे डर था तुम्हें खोने का
हर परख से पहले
तुम मुझे सिखाकर
खुद भूल गए थे प्यार करना
मैं अब भी सीखे जा रही थी

सोमवार, 12 मार्च 2012

दो दुनिया

उनके पास एक वजह थी
बेवजह वक्त बरबाद करने की।
हमें हर वजह को भुलाकर
एक वक्त को हासिल करना था
उनके रास्तों पर मंजिलें खड़ी हुई थी
हमें खड़े खड़े रेलगाड़ी का सफर तय करना था
उन्होंने देखी नहीं होगी अपनी हथेली कभी
हमें हर वक्त हाथ की रेखाओं से लड़ना था
उनके लिए थे समुद्र के किनारों पर लगे हुए मेले   
हमें कुछ बनते ही गढ़ वाली गंगा में स्नान करना था
हम चबा रहे थे चाहतों को च्वीइंगम की तरह
और निगल रहे थे हर मजबूरी को
और उन्हें खाने से पहले उसकी खुशबू को          
चखना था
हमारे दरम्यान कोई दूरी नहीं थी मीलों की
इसी दुनिया में
उनकी बहुमंजिला इमारत के सामने हमारा
एक कमरे वाला किराये का घर था।

शनिवार, 10 मार्च 2012

अपनी तरह जीना भी दुश्वार

बहुत कुछ कहना होता है तो खामोशी एक बेहतर विकल्प लगता है। लेकिन साथ ये भी लगता है कि कभी कभी विकल्पों को नजरअंदाज कर आगे बढ़ना अच्छा होता है। खामोशी को तोड़ देना अच्छा होता है। हालांकि इस वक्त कुछ कहने की शुरुआत करना मेरे लिए मुशिकल है। इस खामोशी को तोड़ना मुश्किल है। क्योंकि ये खामोशी बातों का ऐसा ज्वार भाटा लिए बैठी है जो कब आएगा, कब जाएगा कुछ पता नहीं है। इस आने-जाने के बीच में कितना कुछ बह जाएगा, कितना कुछ रह जाएगा ये सवाल भी लगातार डरा रहा है। अब इस पल, मैं इन सबसे पार पाकर लिखना शुरू कर रही हूं।
जैसे बिना कुछ सोचे-समझे खाली हाथ, आधी रात घर छोड़ते वक्त महसूस होता होगा वैसा ही इस वक्त मुझे महसूस हो रहा है। इस तरह शब्दों की दुनिया में... भावनाओं के समुद्र के साथ... रेगिस्तानी धरती की तरह... निशब्द होकर कदम रखना... भी तो बिल्कुल ऐसा ही है। ये अलग बात है कि मैं घर छोड़कर वापस आ चुकी हूं। लेकिन मन ने शायद अब भी घर को ही नहीं मुझे भी कहीं बीच में ही छोड़ा हुआ है। ये एक ऐसी जगह है जहां हर वक्त मेरे सामने दो विरोधाभासी विकल्प हैं।
चांद की चांदनी चुनूं या सूरज का प्रकाश
बारिशों का मौसम मांगूं या समुद्र वाले शहर का साथ
मंदिर-गुरुद्वारे जाउं या बस मन से कर लूं अरदास
इंतजार करूं या खुद ही चली जाऊं उसके पास
सीमाओं में बंधी रहूं उसूलों के साथ या छोड़ दूं हर बंधन की लाज

ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब भी मेरे पास हैं और इनसे जुड़े नए सवाल भी। अब परेशानी ये कि जवाब की दुनिया चुन लूं या सवालों की दहलीज पर ही खड़ी रहूं। कहते हैं कि सब कुछ हमारे हाथ में होता है जिंदगी की उलझनें भी रास्ते भी मंजिलें भी। हम जो चाहें वो कर सकते हैं। किताबों में पढ़ी ये बातें सिर्फ किताबी हैं या असल जिंदगी से भी इनका सरोकार है....फिर किसी से ये भी सुना कि कुछ सही गलत नहीं होता हमारी सोच उसे सही गलत बनाती है। लेकिन अगर मैं ये सोचती हूं कि रात के वक्त एक पुरुष मित्र के साथ एक कमरे में रुकना सही नहीं है और मेरे आसपास की दुनिया में तकरीबन हर शख्स इसे सही ठहरा चुका है तो सही गलत की इस लड़ाई में मैं कहां खड़ी हूं...दकियानुसी दुनिया में या ईमानदार सच्चाई के साथ जो अपने पैदा करने वालों को धोखा नहीं देना चाहती। ये मेरी इच्छाओं का खून हो रहा है या एक बेटी की मर्यादा का पालन। फिर मर्यादा, ये शब्द मेरे जेहन में कहां से आया..किसने सिखाया, किसी ने भी नहीं। किसी ने नहीं कहा कि मेरी इज्जत की रक्षा करना। जिन्हें कहना था वो शायद खुद इज्जत को बरी करके आगे बढ़ चुके थे जिंदगी में लेकिन मैं पीछे निकलती जा रही थी, मर्यादा के मोह में। नहीं जानती ये मर्यादा मेरी थी या उनकी जो कितने मेरे थे ये भी मुझे नहीं पता। अगर मुझे उनके अपना होने पर शक था तो मैं ये विश्वास भी कैसे कर सकती थी कि जिसके लिए मैं मर्यादा तोड़ूगी वो मेरा असपना ही होगा। औऱ इन सबसें आगे निकलकर जिंदगी का एक कड़वा सच ये है कि कोई अपना पराया नहीं होता। कुछ पलों के लिए हम कुछ लोगों की जरूरत होती है। पैदा करने के लिए मां की, प्यार पाने के लिए पति या प्रेमी की और आदर-सम्मान पाने के लिए औलाद की। क्या ये जिंदगी, समाज और दुनिया इतनी ही निरीह होती जा रही है जितना इन हालातों से महसूस हो रहा है। या जैसे मैं सोचती हूं वैसे भी जीया जा सकता है। जो लोग बंधन तोड़ चुके हैं उनके काफी आगे निकल जाने से परेशानी होती है। जो बंधनों में हैं उनके अब तक यूं जकड़े होने से चिढ़ होने लगती है। लेकिन आखिर में सब अपनी तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं। मुझे भी अपनी तरह जीना होगा। अपनी तरह......हिमानी की तरह  






शुक्रवार, 2 मार्च 2012

लिखना.छपना और बिकना

एक मशहूर किस्सा सुना था, किसी लेखक के बारे में-जब उनसे किसी ने पूछा कि जनाब आप करते क्या हैं, उन्होंने कहा मैं लिखता हूं। इस पर उस व्यक्ति ने कहा- लिखते तो हैं, ठीक है, लेकिन करते क्या हैं। सीधी बात ये है कि उस व्यक्ति की नजर में लिखना कुछ नहीं है। ये बेशक एक सुना सुनाया किस्सा है, लेकिन लिखने से जुड़ा एक बड़ा सवाल भी, कि लिखना, खासतौर पर हिंदी भाषा का लेखक होना कितने मायने रखता है हिंदी समाज में। किताब मेला जाने के दौरान इन सवालों से सीधा सामना हुआ।

मेले में ढेरों किताबें थी। कुछ पुरानी फेमस किताबें, नए कवर के साथ और कुछ नई किताबें नए लेखकों के साथ। कई किताबों के लोकापर्ण हो रहे थे। कुल मिलाकर माहौल ये था कि कई लोग छपने की कतार में हैं। कई लिखने की तैयारी में। और कई लिखकर तैय़ार खड़े हैं बिकने के इंतजार में। और जो बिक रहे हैं लगातार, धड़ाधड़, वो शायद दूसरा या तीसरा जन्म भी ले चुके होंगे अब तक। तमाम नामी गिरामी प्रकाशनों और लेखकों से इतर कई किताबें यूं हीं थी किताब मेले में। कवर पर नाम और कलर होने के बावजूद भी भीड़ भरी स्टॉलों की गहमा गहमी के बीच लोग अलटते पलटते और फिर निकल पड़ते। अगर इन किताबों की कद्र भी तब होगी, जब इन्हें लिखने वाला मर चुका होगा तो लिखना तो बेकाम ही रह जाएगा और लेखक गुमनाम ही। यहां से फिर वो सवाल खड़ा होता है कि ऐसे समाज में जहां लिखना आपकी पुख्ता पहचान नहीं है। जब आप लिखते हैं तो ये कोई खास काम नहीं है, आपकी पहचान उस खास काम से है, जो लिखना नहीं है। ऐसे में आप ऐसा क्या लिखेंगे कि वो आपकी पहचान बन जाए।
कुछ ऐसा जो समाज के संस्कारों के खिलाफ हो, जिस पर तुरंत विवाद शुरू हो जाए और हर कोई ये देखना चाहे कि भई ऐसा क्या लिख दिया। 
या फिर कुछ ऐसा भी लिखा जा सकता है जिस पर आज तक न लिखा गया हो
ये दोनों ही काम आम नहीं हैं। कुछ भी रचनात्मक लिखने से पहले प्रायोजन तय नहीं किया जा सकता। और ये चमत्कार सरीखा भी नहीं है कि ऐसा हो जो आज तक न हुआ हो। सवालों के इस शोरगुल के बीच भी हिंदी की लेखकीय दुनिया में एक अजीब सा सन्नाटा है लिखने को लेकर। लोग आवाज को सुनना नहीं चाहते उन्हें सिर्फ शांति की तलाश है। एक ऐसी शांति जो हर आवाज को दबा देना चाहती है। इस पर विडंबना ये है कि वो खरीदते उसे ही है जिसके आने से शोर हो। पता नहीं इस विडंबना से पार पाने में कितना वक्त लगेगा। 

सिर्फ किताब मेले के दौरान ही नहीं, इन दिनों लगातार इस अनुभव से गुजरना हो रहा है क‌ि हिंदी मीडिया और लेखन की दुनिया में ब्रांडिंग, मार्केट‌िंग, प्रोफेशेनलिज्म का अभाव है। अंग्रेजी अखबार की खबर एकदम पुख्ता और विश्वसनीय हो सकती है लेकिन ह‌िंदी अखबार की खबर सिर्फ खबर है जिसकी प्रमाणिकता अंग्रेजी से ही सिद्ध हो सकती है। हिंदी में काम करने वाले लोगों को नकल करने का चसका है उनका खुद की कल्पना और रचना का धरातल लगातार ‌सिकुड़ता जा रहा है। लिखने वाले भी अंग्रेजी में ही छपना चाहते हैं, पढ़ने वाले भी समझ आए या न आए अंग्रेजी में ही पढ़ना चाहते हैं। एक अजीब सा भेदभाव नजर आता है ह‌िंदी के साथ। जैसे किसी के अपने ही घर में उसे सब परिवार वाले प्यार तो करते हों लेकिन इजहार करने
में सकुचाते हों।

हाल ही में एक प्रतिष्ठित मैग्जीन के संपादक और ह‌िंदी के लेखक से हिंदी लेखन की दुनिया में लेखक के लिखने, छपने और बिकने को लेकर एक चैंट‌िंग कांफ्रेस‌िंग हुई। इस बातचीत में
उन्होंने ह‌िंदी लेखन की इस स्थित‌ि का कारण कुछ इस तरह बताया-
दुरुस्त मार्केट‌िंग योजना की कमी
प्रकाशकों का अड़‌ियल रवैया
जोड़-जुगाड़ की राजनीत‌ि
और हिंदी के पाठकों में खरीदने की क्षमता का अभाव।

मेरी बातः  लिखना मेरे ल‌िए एक शौक और एक नशे से ज्यादा एक बेइंतहा मोहब्बत और बेहद जरूरी जरूरत की तरह है। इसल‌िए मैं ये चाहती हूं क‌ि हिंदी लेखन की दुनिया एक नई सोच के साथ समृद्ध हो जहां लिखने को समझने वाले और प्रासंगिक लिखने वाले लोग आएं ताकि लिखना यूं ही न रहे एक अच्छा काम बन सके। यहां मेरे ल‌िए सबसे बड़ा सवाल ये है क‌ि
मैं इस दिशा में कितना बेहतर प्रयास कर पाती हूं और आने वाली चुनौतियों से कितना अच्छे से मुकाबला कर पाती हूं।













कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...