मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

जिनका है अंदाजे बयाँ और

गुलजार की बनवाई हुई ग़ालिब की तस्वीर
ग़ालिब की हवेली में ८० साल से रह रहे फखरुद्दीन बाबा
दोपहर की  अंगड़ाई। दुकानों पर मसरुफ लोग। सभी गलियों सी तंग  गली। तारीखी इमारतें, पुराने खंडहरात। कुछ  दीवारों पर इश्तहार तो कुछ पर पान की पीक की छींटे। इसी सिलसिलें में शामिल एक  दीवार पर, कुछ तस्वीर, एक नाम ‘मिर्जा असदुल्लाह खान गालिब’।  बल्लीमारान की ये गली कासिम  जान ऐसे लगती है मानो ‘पुरानी दिल्ली कितनी  बदली’ विषय पर छिड़ी बहस में शामिल एक पेचीदा दलील हो। जो चीख-चीख कर  नहीं, बेहद खामोशी से ये कह  रही है की  ये दिल्ली गालिब की  वही दिल्ली है जिसका  अंदाजे-बयां आज भी कुछ  और है। गालिब ने बल्लीमारान की इस हवेली में 1860 से 1869 तक का  वक्त बिताया। जो उनकी  जिंदगी का आखिरी वक्त था। इस हवेली ने गालिब की शेरो-शायरी की  महफिल भी देखी है और ये हवेली उनकी तन्हाई के आलम की  भी गवाह है। फर्क  सिर्फ इतना है की अब ये हैरिटेज बिल्डिंग बन गई है। कुछ  लोग विदेशों से इसके  दरो-दीवार पर सिर्फ गालिब की  रूह को  महसूस ·रने चले आते हैं। तो कुछ  अक्सर आते-जाते भी इसे अनजान सा बना जाते हैं। लेकिन  पिछले 80 सालों से यहां रह रहे फखरुद्दीन बाबा कहते हैं आप अभी क्यों आई हैं 27 दिसंबर को  आना। 27 दिसंबर यानि मिर्जा गालिब का जन्मदिन। तब आप जान पाएंगी की यहां कुछ  नहीं बदला। वही महफिलें हैं, वही नफासत। वही अदब और वही शायरी जिसे गालिब गुनगुनाते थे। दिल्ली के सौ साल से भी बहुत पुरानी है पुरानी दिल्ली की  ये हवेली। दिलचस्प ये है की  गालिब के  इतने ·रीब रहने वाले बाबा को  शायरी से कोई  लगाव नहीं है। लेकिन  गालिब से दिल की  ऐसी लगन है की
जब वालिद मियां ने हवेली छोड़ साउथ दिल्ली में कोठी  बनाने के  लिए कहा तो नाराज हो गए। बताते हैं, शायरी में मेरी यूं भी कोई दिलचस्पी नहीं रही मगर उस शायर के किस्से  दिल खुश कर  देते हैं जिसने बर्फी और जलेबी दोनों को  मिठाई बताकर  हिंदू और मुस्लमान दोनों को  भाई बना दिया था। ये भाईचारा आज भी यहां सांसें लेता है।



रविवार, 18 दिसंबर 2011

एक जरुरी कवि


सुबह सुबह दफ्तर से फ़ोन आया अदम गोंडवी नही रहे. उनके लिए कुछ खास सामग्री इकठा करनी थी. ख़ास पेज के लिए. साहित्य मेरे लिए सांसों की तरह है और ये नाम बिलकुल अनजान. ये बात मेरे बॉस को भी शायद ठीक नही लगी जब उन्होंने मुझसे पूछा-जानती हो न अदम जी को, आज उन्ही पर काम करना है.. और मैंने अन्म्नाते हुए कहा, जान लुंगी सर जल्दी पहुँचती हू दफ्तर. लेकिन अनमनी से न मेरे भीतर कुल्बुका रही थी. कलाकार हैं या कवि. कौन है ये. मैं कैसे नही जानती इन्हें. कहाँ सूना है इनका नाम. एक दोस्त को फोन किया उन्होंने तुरंत एक ही बार में अदम जी का पूरा परिचय उनके अल्फाज मेरे सामने रख दिए और मेरी सोई हुई स्मृति अचानक जगी, बहुत साल पहले एक वाद विवाद प्रतियोगिता में मैंने शुरुआत ही इन पंक्तियों से की थी ...

 मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत

वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की ,संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी

ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया

सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार

होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की. 



तब नही जानती थी कि किनके अल्फाजों को अपने पक्ष का हथियार बना रही हूँ...आज जानें क्यों उनके जाने पर ऐसे लग रहा है कि कोई अपना बिना मिले ही चला गया. अफ़सोस भी है और अपनी अन्जानियत का गहरा अहसास और आघात भी. एक मित्र या कहूँ कि वरिष्ठ मित्र और  आलोचक हैं मेरे जो अक्सर मेरी कवितायेँ पढ़कर  कहते है -ये क्या लिखती रहती हो चाँद, सूरज, आसमान और धरती. प्यार इश्क और फूल पत्ते, एक ऐसे कविता लिखो जो जरुरी हो तुम्हारे लिए नही सबके लिए आम इंसान और देश दुनिया के लिए. लेकिन आज उनकी ये बात मुझे फी याद आई और लगा एक जरुरी कवि चला गया जिसकी हर कविता जरुरी थी और हमारे लोगों कि जरुरत भी..
ये साल तमाम बड़े नाम हमें अलविदा कह चुके हैं सिलसिलेवार
मैं तो किसी के नीजी जीवन में शामिल नही थी
न ही किसी कि बहुत बड़ी प्रशंसक
मकबूल फ़िदा हुसैन के जाने पर लगा इन्हें क़तर जाने की बजाय इनकी कदर होनी चाहिए थी देश में ही
भूपेन हजारिका गए तो लगा कि एक समाज कि जलती हुई लौ से घी ख़त्म हो गया
देव साहब की जिन्दादिली और उनकी दिनचर्या से हमेशा अपनी सोच के अंधेरों में घिरा होने पर प्रेरणा ली है मैंने तो उनका जाना मेरे लिए मेरी एक उम्मीद का टूटना था
लेकिन अदम जी तो एक अनजान बनकर मेरे आस पास अपने शब्दों के रूप में  रहे और जाते जाते इतना परिचित कर गए कि मैं बेहद शर्मिंदगी महसूस कर रही हूँ कि इतने जरुरी कवि को नही जानती थी मैं और कविता लिखती हूँ
क्या मैं लिख पाऊँगी कभी कोई जरुरी कविता ?
 

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...