शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

सात खून माफ़ और आठवां ...



अच्छी फिल्में सिर्फ फिल्म के लिहाज से ही अच्छी होती हैं जिंदगी के लिहाज से शायद ....
परदे पर हम अपनी दमित इच्छाओ की पूर्ति होते देख रोमांचित और उत्साहित महसूस  करते हैं और फिल्म हिट हो जाती है क्योंकि असल जिंदगी में सात खून माफ़ नही होते...और सात बार शादी करने का जोखिम उठाना .....????
हमारा आज, अभी और इस वक्त का सच ये है कि पत्नियाँ एक पति के साथ सात जन्मों के रिश्ते में बंधने के बाद शायद ७००० बार मरती हैं
बहुत सारे पतियों को लग सकता है कि ये एक तरफ़ा सच है और उनके पक्ष को दरकिनार कर दिया गया है ..तो हाँ...कर दिया है ..क्योंकि उनके पक्ष का प्रतिशत बहुत कम है..खैर इसे मेरी खुन्नस न समझिएगा सिर्फ एक बात लिखी है जो देखी और महसूस की अभी तमाम दुनिया देखना बाकी है और फिर हो सकता है कि विचार भी बदल जाये...
लेकिन विशाल भारद्वाज ने हमारे संकुचित समाज के सामने आंखे फाड़ कर, कान खड़े कर और कुर्सी से चिपक कर देखी जाने वाली एक फिल्म का प्रसार किया है ....जिस फिल्म के ख़त्म होने  के बाद अनजाने ही लोग standing oveation देते नजर आये....क्योंकि सात खून हो जाने के बाद शायद ये देखना किसी को गवारा न था कि प्यारे से शुगर( विवान शाह) का भी खून हो गया है ..साहेब (प्रियंका चोपरा) का वो शुगर जिसका एक बच्चा और बेहद प्यार करने वाली एक पत्नी है इसलिए हर बॉलीवुड फिल्म की तरह इस फिल्म की भी एंडिंग साइड हीरो और साइड हेरोइन के मिलन के साथ हैप्पी हो गई. लेकिन कुछ निराशा, अवसाद, अहसास और सवाल शादी नाम के रिश्ते से जुड़ते भी नजर आये जो कि हमारे देश में सिर्फ एक रिश्ता नही बल्कि भरा पूरा उत्सव है..
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एक तरफ प्यार की तलाश में गुनाह करती औरत( सूजैना, प्रियंका चोपरा) ..और असफल होती सात शादियाँ और दूसरी तरफ बीवी बच्चे के साथ खुशहाल  जिंदगी जीने वाला एक छोटा सा परिवार ( विवान और कोंकना सेन शर्मा)
,क्या लगता है ????
शादी नाम की संस्था सिर्फ शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाई गई एक औपचारिक परम्परा है या एक शादी के साथ भी हमें तन मन और ...धन तीनो का सुख मिल सकता है. फिल्म सिर्फ प्यार की  तलाश में धोखे खा रही एक औरत की कहानी है या ये सच दिखाने वाला एक आईना भी कि हर औरत एक बार अपने पति को मारने के बारे में जरूर सोचती है.
अजीब तरह से बदल रही है यार ये दुनिया
प्यार करने की भी एक निश्चित स्ट्रेटजी हैं यहाँ 
और शादी इस रिश्ते पर तो भयंकर रूप से प्रश्नचिन्ह  लग रहे है 
देखना ये है कि शेष क्या बचेगा 
और सिनेमा की दुनिया में सात खून माफ़ होने के बाद असल जिंदगी का आठवां खून क्या माफ़ हो पायेगा

 

dnt just obey boss



सिर्फ घोटालों ही नहीं तमाम तरह के मोह और माया जालों में फंसे धंसे देश के बेदाग़ छवि वाले प्रधानमन्त्री कह रहे है कि मैं जॉब कर रहा हूँ. ये बात सुनकर एकबारगी तो प्रधानमन्त्री जैसे बड़े से पद की महिमा बेहद छोटी नजर आती है लेकिन वहीँ दूसरी दफा सोचने पर कीचड़ में कमल की तरह खिलते मनमोहन सिंह दिखाई देते है जो असल मायनो में पार्टी प्रधान के दिशानिर्देशों पर शिद्दत से काम कर रहे है बिलकुल जॉब के शाब्दिक अर्थ को चरितार्थ करते हुए ...just obey boss . लेकिन उनके पद की गरिमा और गुंजाईश को नौकरी नुमा घेरे में कैद करना उस मिशन के साथ नाइंसाफी है जिसके  आधार पर इस पद की अवधारणा बनाई गई थी. 
बात सिर्फ प्रधानमन्त्री के ब्यान पर टिप्पड़ी करने की नहीं है बल्कि ये भी है कि अगर हम सब लोग अपने काम को सिर्फ जॉब मानकर करें जिम्मेदारी और जवाबदेही समझकर नहीं तो क्या इस विकासशील देश के विकास का पहिया चल पायेगा ...जो सोच पहले से ही  संकुचित है अगर उसे नौकरी समझकर सीमित भी कर लिया गया तो 
किसी कंपनी में बतौर प्रशिक्षु शुरुआत करने वाली कोई महिला उसी कंपनी के सर्वोच्च पद पर पहुँच पाएगी...
क्या एक टी  वी प्रोग्राम से शुरुआत करने वाला व्यक्ति एक पुरे न्यूज़ चैनल को स्थापित कर पाता..
पेट्रोल पम्प  पर काम करने वाल एक अदना सा कर्मचारी aदेश के नामी अमीरों में शामिल होता 
ऐसे कई सवाल है जो मंत्री जी के एक जवाब पर खड़े हो गए हैं 

 

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

पहले से ज्यादा जवां लगती है हर बार ये दिल्ली



लुधियाना में बैठकर दिल्ली की बात. बहुत नाइंसाफी है जनाब. हाँ है तो. लेकिन क्या करें कमबख्त दूरियों ने दिल में दिल्ली को और भी गहरे घुसा दिया है. चार दिन की छुट्टी के बाद लुधियाना लौटी हूँ तो दिल्ली में कई नए बने फ्लाई ओवर, पहले से कुछ ज्यादा फैशन परस्त हो गए लोगों और प्रेम के उन्माद में नियम तोड़ते( दरसल मेट्रो में अब महिलायों के लिए अलग से सीट अरक्षित कर दी गई है ऐसे में जो लोग जोड़े से मेट्रों में सफ़र करते है उनके लिए खासी परेशानी होती है जैसा की मुझे उस वक्त महसूस हुआ, मेट्रो कर्मचारी ने लड़के से वुमन कम्पार्टमेंट से जाने के लिए कहाँ तो वह उस कर्मचारी से ही झगड़ने लगा उसके साथ उसकी महिला मित्र ने अन्य महिला यात्रिओं के विरोध करने पर उनके साथ भी गलत तरह से बात की , मामला सिर्फ इतना था की वेह दोनों साथ खड़े होना चाहते थे और एक नियम उसमे बढा बन रहा था )  युवाओं के साथ पहले से कहीं ज्यादा जवां लगती दिल्ली कुछ भी सही लेकिन कुछ लिखने को मजबूर कर रही है. जैसे न जाने कितना कुछ समेटे है ये अपने गर्भ  में. जैसे किसी देवता के वरदान से मिले खजाने में धन ख़त्म ही नही होता उसी तरह दिल्ली के बारे में लिखने के लिए इतना कुछ है कि उसमे कुछ नया लिखने की शर्त कोई मायने ही नही रखती. अहसास तो शख्स बदलने के साथ खुद ब खुद नए हो ही  जाते है न . जैसे मेरा दिल्ली से नॉएडा जाने के लिए ३३ नंबर की बस पकड़ने और गंतव्य तक पहुँचने का अहसास आज भी मेरे चेहरे पर मुस्कान ला देता है नही मुस्कान नही बड़ी सी हंसी. अगर आप इस बस से परिचित है और ये सब पढ़ रहे है तो अब तक मुस्कराहट आप के होटों को भी छु कर गुजर चुकी होगी अगर नही जानते तो माजरा ये है कि इस बस में सीट  तो दूर की बात है सांस लेने के लिए स्पेस मिलना भी मुश्किल होता है. अब शायद इस नंबर की बसों की संख्या बढा दी गई है तो कुछ सहूलियत हो लेकिन उस समय ३३ नंबर की बस में सफर करना और सुरक्षित लौटना जिंदगी की तमाम आपाधापियों के बीच जगह बना चुकी एक बड़ी चुनौती होतीं थी. मगर ये दिल्ली है और बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती है. इस शहर में आना भी बड़ी बात है रहना भी बड़ी बात है और अपनी जगह बनाना भी बड़ी बात है. और हाँ इस शहर का होकर भी इसे छोड़ जाना और फिर लौटकर अपना अस्तित्व बसाना ये सिर्फ बात ही बड़ी नही है ये काम भी बहुत बड़ा है ........आखिर बड़ा शहर है और हम छोटे लोग है वक़्त से भी और कद से भी ...हा हा हा. और फिर बड़ा बनने की न सही लेकिन बड़ा होने की ख्वाइशें अभी बाकी है ....

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...