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शनिवार, 27 अप्रैल 2013

चुन्नी को लपेटने का फर्क था सिर्फ



बचपन में सजने-संवरने का बहुत शौक था। अक्सर मां की चुन्नी को साड़ी बनाकर पहना करती थी और शीशे के सामने घंटों खुद को देखा करती थी। फिर एक दिन यूं ही चुन्नी छोटी लगने लगी और सिर से लपेट कर नीचे लाते-लाते चुन्नी का बुर्का बनाना आ गया। फिर तो सहेलियों को भी सिखा दिया। उसके बाद अक्सर हमारे घर-घर के खेल में एक सहेली चुन्नी की साड़ी बनाकर पहनती तो एक चुन्नी का बुर्का बनाकर। जब तक घर-घर का खेल रहा, ये सिलसिला यूं ही चलता रहा।
जब खेलने की उम्र चली गई तो इस सिलसिले का सच सामने आया।
सच ये था कि -
चुन्नी एक ही थी।
लपेटने के तरीके दो थे।
दो तरीकों में दो धर्म घर कर बैठे थे,
ये बात घर-घर के उस खेल में कभी महसूस नहीं हुई थी।
आज भी महसूस नहीं होती,
बल्कि आंखों के सामने दिखाई देती है।
न मैंने आजादी की लड़ाई देखी है
न 84 के दंगे।
मैं अभी कुछ ही दिन पहले देख कर आई हूं पाकिस्तान से दिल्ली आए 480 हिंदू परिवारों को।
जो पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते।
कहते हैं - पाकिस्तान में मुसलमान उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं, हिंदुस्तान में रहकर मर जाएंगे, लेकिन पाकिस्तान नहीं जाएंगे।
मैंने अभी-अभी देखी है हिंदु-मुस्लिम दंगों के गवाह और शिकार बने लोगों पर एक फिल्म-फिराक।
और मैं कई मरतबा पड़ी हूं इस बहस में कि क्यों मुझे शाहरुख खान पसंद है।
क्यों मैं तारीफ कर बैठती हूं मुसलमानी लड़कियों की तहजीब और नजाकत की।
क्यों गालिब से लेकर फराज तक की शायरी के ज्यादा से ज्यादा कसीदे मुंहजबानी याद कर लेने की जंग छिड़ी रहती हैं मेरे दिमाग में।
क्यों आखिरकार में हर साल कोशिश करती हूं उर्दू की क्लास में दाखिला लेने की, जो मेरे समय से मेल न खा पाने के कारण हर साल अधूरी रह जाती है।
ये महज इतेफाक है।
ये महज मेरे जज्बात हैं।
ये महज पसंद की बात है।
लेकिन मेरे आसपास के लोग इसे एक विद्रोही रंग दे देते हैं।
कहते हैं या चिढ़ाते हैं,
लेकिन मेरी हर बात पर अपनी यही बात दोहराते हैं कि
-तुम्हें तो मुसलमान ही पसंद हैं। पाकिस्तान चली जाओ।
मानो ये पसंद
पसंद नहीं
गुनाह है।
शुक्र है माहौल इतना भी गर्म नहीं है कि इस बात पर दंगे हो जाएं।
वरना शायद मैं भी कत्ल कर दी गई होती।
वैसे शायद कत्ल होने से ज्यादा खतरनाक होता होगा, कत्ल होते देखना।
जैसा कि पाकिस्तान से दिल्ली के बिजवासन में आए हिंदु लोगों के बीच बैठी एक पांच साल की बच्ची दिव्या भारती ने मुझे बताया था कत्ल का आंखों देखा हाल। उसकी मां उसे चुप रहने का इशारा कर रही थी। जो कत्ल उसने होते देखा था, उसकी वजह भी उसे मालूम थी, ये कत्ल होते देखने से भी ज्यादा खौफनाक था।
क्यों मारा तुम्हारे मामा के बेटे को।
वो मुसलमान था ने इसलिए।
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इस जवाब के बाद सवाल भी दफन होने से पहले ये पूछ रहे थे मुझसे
कि उन्हें कब्र दी जाएगी या उनकी चिता जलाई जाएगी...
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मेरा इतिहास बहुत कमजोर है
शायद गणित भी।
मगर जितनी भी तालीम है
उसे पूरा समझने-बूझने के बाद भी मुझे जाति और धर्म का भेद समझ नहीं आता।
इस बात का दुख मनाने से पहले कि कोई मुसलमान हिंदु को मार रहा है
या कोई हिंदु, एक नहीं हर मुसलमान से नफरत कर रहा है
मुझे इस बात का खौफ ज्यादा है कि
हम सब ही हिंदु मुसलमान से पहले
सिर्फ इन्सान हैं
और सिर्फ इन्सान ही हैं
इसके बाद में भी
ये बात कुछ लोग बिलकुल नहीं समझ रहे हैं।


काश कि इन लोगों की यादाश्त खो जाए और ये फिर से सिर्फ और सिर्फ इन्सान हो जाएं। 

बुधवार, 29 सितंबर 2010

एक नूर से सब जग उपज्या



मुझे कल गाजिअबाद अपने घर आना है, लेकिन नही आ पाऊँगी शायद, कारण अयोध्या मुद्दे पर फैसला आने वाला  है. पता नही क्या फैसला होगा.फैसले के बाद क्या होगा. दंगे, शांति, सुलह या एक नए रस्ते की तलाश या फिर हमारी कल्पनाओ से परे कुछ. सब आपस में बतिया रहे है क्या होना चाहिए  ???
सब अपने अपने ख्याल जता रहे है , यहाँ किसी ने कहा की मेरे ख्याल से वहां एक स्कूल बना दिया जाना चाहिए. उसमे हिन्दू मुस्लिम दोनों के बच्चे पढ़ सकेंगे. दूसरी आवाज आई बेशक बाकी जगह कुछ भी हो रहा हो लेकिन इस वजह से कई दिनों  से घर में बेरोजगार बैठे यु पी के कुछ होम गार्ड  काम पाकर राहत  महसूस कर रहे है. बातों के बीच से टी वी पर नजर दौड़ाई तो अवध और अयोध्या से  भाईचारे की मिसाल पेश करती कहानिया दिखाई जा रही थी. जैसे वहां तो लोग हिन्दू मुस्लिम और कौम नाम की बातों को जानते ही नही है. सिर्फ अयोध्या और अवध ही क्यों देश भर में ऐसी कई मिसाले है जहाँ लोगों ने हिन्दू मुस्लिम के बीच की खाई को पाट कर अपनी अलग पहचान बनाई है.
हम आपस में बात करते हुए भी लोगो से यही सुनते है कि क्या रखा है मंदिर और मस्जिद में. कोई  कबूतर से पूछे कि कौमी एकता क्या है कभी मंदिर पे बैठा होगा कभी मस्जिद पे. ऐसे मिस्रो और मिसालों की कमी नही है जो हमें ऐसी सोच से दूर रहने के लिए कहते है जहाँ दो धर्मो के बीच दुश्मनी पनपे उनमे कोई भी बैर हो ...जहाँ तहां सून रही हूँ अधिकतर लोग चाहते है कि मामला सुलझ जाये और फिर जो आग बुझ सी गई है उसे अब चिंगारी दिखा कर राख लेने का क्या मतलब. 
पूरा देश डर के सायें में है और मुद्दा सिर्फ इतना है कि एक जगह पर मंदिर बनाया जाये या मस्जिद. मेरा एक मासूम सा सुझाव है अगर कोई पढ़ ले तो एक ऐसा निर्माण किया जाये जहाँ भगवान् के नाम का हर चिन्ह मौजूद हो. ईसामसीह, राम, कृष्ण, खुदा की इबादत, गुरबानी.
सवाल ये भी है कि जब कोई हम आप मैं चाहते ही नही कि कोई विवाद हो दंगा हो तो कौन लोग हैं हमारे ही बीच से जो खा म खा चिंगारियां भड़का  रहे है. क्या राजनीती  की लौ में तेल डालने के लिए महानुभाव देश को जला डालना चाहते है .
सवाल बहुत सारे है जवाब शायद एक कि

 एक नूर से सब जग उपज्या.............


 

रविवार, 18 जुलाई 2010

जाति संग सब सून

जीने के लिए क्या ज्यादा जरुरी है
पानी या शराब?
रोटी या कबाब?
पैसा या व्यापार?
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जाति या समाज?
नही जानती कि जाति के मामले में मेरी जानकारी का स्तर क्या है? मैंने वर्णव्यवस्था को कितना समझा है? मैं समाज के विभिन्न धर्मो और वर्गो के बारे में कितना जानती हूं? लेकिन इसके बावजूद भी ये सब कुछ ठीक से न समझने को कहीं न कहीं मैं अपना सौभाग्य मानती हूं। ये आधा-अधूरा ज्ञान मुझे पूरा हक देता है हर किसी से बात करने का, हर किसी के साथ खाना खाने का और वो सब कुछ करने का जो समाज में रहते हुए आम व्यवहार में हम एक दूसरे के साथ करते हैं। काश कि कोई भी न जानता होता इस वर्ण व्यवस्था के बारे में । इस बारे में कि फलाना इंसान दलित है और फलाना ऊंची जाति का है। ये एक निरी कल्पना है जिसका साकार होना निरा मुश्किल भी है। लेकिन जाति के नाम पर जो कुछ समाज में होता आया है और हो रहा है उसकी कल्पना करना भी तो निहायत कठिन है। कल की ही खबर है कि उत्तर प्रदेश के कन्नौज में मीड डे मील में दलित महिला के खाना बनाने को लेकर वहां के लोगों ने हंगामा किया। और अब फिर वही सवाल कि जीने के लिए जाति ज्यादा जरुरी है या बराबरी का समाज। ये जात वो बिरादरी। इसके साथ खाना ,उसके साथ मत घूमना। इसका झूठा मत खाना, उसके बर्तन भी मत छूना। अपने आस-पास के लोगों से हर वक्त इस तरह की दूरियां बनाने में न जाने कितना दिमाग और वक्त खर्च कर देते हैं लोग। कहने को भारतीय संस्कृति बहुत कुछ है लेकिन दूसरा सच ये है कि आज हम सभ्यता के उस मुहाने पर खड़े हैं जहां जाति गालियों में शुमार एक ऐसा दस्तावेज है जिसकी परते जब खुलती हैं तो इसंान का अस्तित्व ही मैला नजर आता है। अबे चमार कहीं के, अरे वो तो ब्राहम्ण कुल का है। जाति सूचक ये शब्द इस तरह इंसान का दर्जा तय कर देते हैं कि एक तबका तो जाति के बोझ तले ही दब जाता है और दूसरा जाति की छत्रछाया में अपने महल बना लेता है। छठवीं शताब्दी में उपजी समूह व्यवस्था ने जाति को सामाजिक संरचना से लेकर आर्थिक और राजनीतिक हर स्तर पर एक मुख्य पहचान और पुख्ता हथियार बना दिया। परिणाम हमारे सामने है अनेकता में एकता वाला भारत टूट रहा है और बिखर रहा है। एक इमारत में रहने वाले विभिन्न जातियों के लोगों से लेकर एक प्रदेश में जीवन यापन करने वाले अलग-अलग जातियों के लोगों में आपस में दिली तौैर पर इतनी दूरियां पैदा कर दी गई हैं कि लोग अपनी जाति पर आधारित एक अलग प्रदेश चाहते हैं। समाज में पैठी ये दूरियां सत्ता में बैठे लोगों के लिए भी एक हथियार बन चुकी हैं। जाति बनाने वाले बनाकर चले गए शायद ही उन्होंने सोचा होगा कि आने वाली पीढिय़ां इस बनावट को इतनी शिद्दत से निभाएंगी। लेकिन अब इस पीढ़ी को ये प्रथा तोडऩी होगी, बरसों पुरानी शिद्दत को तिलांजलि देनी होगी, छोडऩा होगा एक ऐसे बंधन को जो सिर्फ एक हथकड़ी है हमारे और आपके बीच में। छठवी शताब्दी की शुरूआत को भूलकर एक ऐसा प्रारंभ इक्कीसवी सदी में करना होगा जिससे ये सारे भेद मिट जाए। जाति का वो पिरामिड जिसमें सबसे ऊपर के माले पर ब्राहम्ण का सिंहासन है और दलित की झोपड़ी जमीन में धंसी हुई है, उस पिरामिड की व्यवस्था और विचारधारा को बदलना बहुत जरुरी है।
ये सब लिख्रते हुए मैं इस बात से भी पूरा सरोकार रखती हूं कि भारतीय समाज की व्यवस्था में जाति गहरे पैठी हुई है इसका त्याग करना इतना आसान नही होगा उन लोगों के लिए जिन्होंने तथाकथित नीच जाति के लोगों से कभी बात करना भी गंवारा नहीं किया लेकिन अगर वही लोग घर में भात की जगह मैगी को दे सकते हैं तो विचारधारा का ये बदलाव भी लाजंमी है जिससे जिंदगी की वास्तविक नफासत वापस आ सकती है।

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...