रविवार, 24 जून 2012

गाली, गोली और ....गैंग ऑफ सो मेनी रियल्टीज



न लूट खसोट करने वाले गुंडों के गैंग पहली बार पर्दे पर दिख रहे थे, न ही मार-धाड़ वाली फिल्म देखना कोई नई बात थी। 
न गालियां अजनबी थीं, न आदमी की वो जात... जो वो अक्सर दूसरी औऱतों के सामने दिखाते नजर आते हैं। मगर इन सब जानी पहचानी चीजों को एक बड़े से कमरे में सौ लोगों के बीच देखना बहुत अजीब था। 
शायद खुद से आंखें मिलाने जैसा या फिर उस दुनिया से आंखें चुराने जैसा, जिसका हिस्सा हम आज भी थे...। 


ये फिल्म 1940 के जिन हालातों से शुरू होकर आज में लौटती है...उस बीच में दुनिया कितनी बदल गई है ...ये सवाल इस फिल्म को देखने से पहले पूछा जाता तो हम कहते .. बहुत ज्यादा...मगर फिल्म देखने के बाद समझ में आता है कि ...बहुत कम बदली है।


हां.. इतने समय में जो कुछ तरक्की हुई है उसे फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। अब घर वैक्यूम क्लीनर से साफ होने लगे हैं बेशक दिमागों में गंदगी भरी पड़ी हो। फल सब्जियां ठंडी रखने के लिए घर में फ्रिज आ गए हैं बेशक शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए आज भी आदमी अपनी बीवियों को छोड़कर किसी दूसरी औरत को धँधे वाली बना रहे हो।
शहर में मोहल्लों में... आज भी तो कई तरह के गैंग हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जैसा फिल्म में दिखाया गया है वैसे बम बनाने के लिए सल्फर और पोटेशियम खाने के डिब्बे में नहीं मंगाना पड़ता..अब बड़े-बड़े खतरनाक हथियार सीधा सप्लाई हो जाते हैं।


जिस तरह शाहिद खान की मौत का बदला लेने के लिए एक सुंदर और शांत बच्चा, सरदार खान बन जाता है और सरदार खान की रंजिशों को देखते हुए उसके बेटे दानिश और फैजल की मानसिक स्थिति अलग-अलग तरह से आकार लेती है.....हो सकता है शायद आज इस हद तक का कुछ न होता हो। मगर आज भी बाप की करनी का असर बच्चे भुगतते हैं फर्क सिर्फ इतना है कि भुगतने के लिए उन्हें महंगे कांवेंट बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया जाता है, एक ही घर में रहकर बच्चे को उस रात का गवाह नहीं बनना पड़ता शायद जब उसकी मां इतनी कमजोर पड़ गई थी कि दादा की उम्र के आदमी के साथ सोने पर मजबूर हो रही थी क्योंकि वो टूट चुकी थी ये सुनकर कि उसका पति यानी बच्चे का बाप किसी दूसरी औऱत के साथ सो रहा है।


गंदी गालियों, बिस्तर के रूमानी, बॉलीवुडिया सीनों से हटकर फिल्माएं गए ठेठ गंवई सीनों और  अधाधुंध मार कुटाई के अलावा इस फिल्म में कई ऐसी खिड़किया हैं जहां से देखने पर अब तक की दुनिया की कई तरह की शक्ल सामने आती है। फिल्में में दिखाया गया सालों का बदलाव एक बार को तो ऐसे लगता है जैसे कोई समय की सुइयों को पीछे घुमाकर हमें पहले की दुनिया दिखा रहा है। 


उस दुनिया में एक शाहिद खान है जो सस्ता अनाज देने के लिए ट्रेन लूट रहा है। उसका बेटा सरदार खान है जो बाप की मौत का बदला ले रहा है...कहके ले रहा है....ये फिल्म की पंचलाइन भी है तेरी कह के लूंगा....शायद ये हीरो का हुनर है कि वो कहके वार कर रहा है। सरदार खान की बीवी है नगमा। जो उसी हद तक गालियां दे सकती है जिस हद तक कोई भी सरदार खान देता है। जो भीड़ भरे रास्ते में उस सरदार खान को मार-मार कर घर ला सकती है जो सरदार खान भरे बाजार में आदमी को बेहिसाब काट डालता है और रौब से आगे चला जाता है। वही औरत नगमा अपने पति को दूसरी औरतों के पास जाने से नहीं रोक पाती। अनकहे तौर पर समझौता कर लेती है। गुरुराती है चिल्लाती है चाकू भी दिखाती है मगर किसी भी हालत में ऐसे आदमी की बेगम बनकर रहना उसे मंजूर है जो कब कहां कौन सी औरत के पास है उसे खुद नहीं पता। बेशक वो घर न आता हो पैसे न भेजता हो उसने दूसरा परिवार बना लिया हो मगर अपने बेवफा शौहर के लिए वो पूरी तरह वफादार रहना चाहती है। एक बंगालन है जो सरदार खान की दूसरी औरत है। पहली औरत नगमा से ज्यादा खूबसूरत ज्यादा कमसीन ज्यादा नकचढ़ी है। जो सरदार खान से पैसे भी लेती है, उसे गालियां भी देती है और अंत में मरवा भी देती है....


सरदार खान की जिंदगी का मकसद ...उसकी रंजिश.. कितनी पूरी हुई है.. ये फिल्म का दूसरा भाग बताएगा मगर वक्त सरदार खान के हाथ से बंदूक गिरने के बाद भी उसका जयघोष करता है ...जीया हो बिहार के लाला....फिल्म के आखिर में ये जयघोष फिल्म की शुरुआत में आए उन सपनों की टीस को महसूस करवाता है जब शाहिद खान हमेशा के लिए गांव छोड़कर धनबाद में बसने जा रहा होता है वो गाता है....


एक बगल में चांद होगा एक बगल में रोटियां
एक बगल में नींद होगी एक बगल में लोरियां


अगर आप  बहुत सब्जेकिट्व होकर न देखें तो ये फिल्म आपको बहुत कुछ देखने और महसूस करने की आजादी देती हैं लेकिन अगर आपको सिर्फ वासेपुर के गैंग्स देखने हैं तो इस फिल्म में सिर्फ लूट-खसोट, बंदूक की आवाजें और मां-बहन की गालियां हैं जिसे देखना एक औसत दर्शक को रास नहीं आएगा...फिर भी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस की रेटिंग से ये कहीं आगे है और मनोज वाजपेयी के अभिनय को किसी ऑस्कर की जरूरत नहीं है।


सिर्फ मनोज वाजपेयी ही नहीं फिल्म का हर किरदार कहीं भी किरदार नहीं लगता ....बिल्कुल उसी दुनिया के असली चेहरे लगते हैं जहां कोयले की खदाने बंद तो हो चुकी हैं लेकिन उनकी कालक अब भी लोगों की जिंदगी में इस तरह शामिल है कि सुबह का उजाला भी मटमैला दिखता है.....


अनुराग कश्यप सिनेमा की अपनी एक अलग दुनिया बना रहे हैं जहां सिनेमा .... में सच है..... सिर्फ सच.....कड़वे वाला सच















रविवार, 17 जून 2012

पिता, एक टेंट की तरह होते हैं

मां, एक ब्लैंकेट की तरह होती है। नरम, कोमल और जिसका अहसास ही हर तकलीफ को भुला देता है।


पिता, एक टेंट की तरह होता है। तन कर खड़ा हुआ है। मगर जिसके गिरते ही जिंदगी की सारी सुरक्षा खत्म हो जाती है।


.... ये बातें बहुत पहले कहीं पढ़ी थी मैंने। आज फिर याद हो आईं। हालांकि ये अभी-अभी याद आया है कि ये सब मेरे साथ तब हो रहा है जब बच्चे फादर्स डे मना रहे हैं।


बेमन से घर से निकली थी। पता नहीं था क्यों जा रही हूं, लेकिन जा रही थी। फिल्म देखना एक ऐसा अवसर या कहें कि बहाना होता था जब हम (मैं और मेरे एक करीबी मित्र) मिल लेते थे वरना मिलने की कोई खास वजह नहीं थी।


इस बार सारा प्रोग्राम बिगड़ चुका था। सिंगल थियेटर में फिल्म देखना तय हुआ था,लेकिन मेरे देर से पहुंचने के कारण शो निकल चुका था। कुछ देर एक कॉफी हाउस की तलाश में घूमने के बाद जब गरमी का असर दिखने लगा तो तय हुआ कि कहीं दूसरे शो के लिए चला जाए। दौड़-धूप कर जहां पहुंचे, वहां शो बहुत देर से था। गुस्सा भी था, झुंझलाहट भी मगर कोई ऐसे शब्द नहीं थे हमारे पास कि ये गुस्सा निकाल पाते। हंसी और ठहाकों में सारी बेबसी कहीं बहती जा रही थी। बेबसी..हां बहुत बेबस और बेअदब से मूड में थे दोनों।


खैर इन सारी बातों को पीछे छोड़ एक नए मॉल में जाने का फैसला हुआ। यहां पहुंचकर थोड़ी तसल्ली मिली। सबसे पहला शो कौन सा है....देखने पर पता चला कि फरारी की सवारी। हमारे मित्र शंघाई देख चुके थे मैंने नहीं देखी थी, लेकिन फिर भी काफी थके होने की वजह से यही तय हुआ कि फरारी की सवारी ही देख लेते हैं।


फिल्म शुरू होने से पहले ही हॉल में बच्चों की भीड़ देखकर अंदाजा लग गया था कि हम यहां गलत टाइप की ऑडियंस हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई एडल्ट फिल्म देखने 14 साल का बच्चा पहुंच जाए। लेकिन अब यहां तीन घंटे बैठना था।
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फिल्म शुरू होती है....एक बाप (शरमन जोशी) पूरी तरह अपने बेटे(ऋत्विक) के ‌ल‌िए मां की भूमिका में है। बच्चे के लिए नाश्ता बनाना, स्कूल के लिए तैयार करना और उसके मन की बातें करना। अक्सर ये काम मां किया करती है, मगर इस बच्चे की मां नहीं है। जो पिता है वहीं बहुत कुछ मां सा है। बच्चे की पढ़ाई से लेकर उसके शौक तक हर चीज का ख्याल रखता है। बच्चे का सिर्फ एक ही शौक हैं और एक ही सपना, क्रिकेट। पूरी फिल्म इस सपने को पूरा करने के इर्द-गिर्द घूमती है। क्रिकेट के बीच में फरारी कहां से आती है इसी सस्पेंस के जवाब लिए कुछ देर ये फिल्म बहुत ही स्लो स्पीड के साथ दर्शकों को बांधे रखती है। बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और डायरेक्शन न होने पर भी इस फिल्म में बाप और बच्चे के रिश्ते को दिखाने वाली कई कहानियां हैं।


बेशक हमें ये कायो ((ऋत्विक) ) और उसके पापा रुस्तम(शरमन जोशी) की कहानी लगे। लेकिन इसमें रुस्तम और उसके पापा यानी कायो के दादा (बोमन ईरानी) भी शामिल हैं। ये उन दो बाप-बेटों की भी कहानी हैं जहां बाप अपने सपनों की टूटन को अपने बेटे की जिंदगी में शामिल नहीं होने देना चाहता और उसे क्रिकेटर की बजाए आईटीओ में क्लर्क बना देता है।


फिर इसमें वो दो बाप-बेटे भी शामिल हैं जहां बाप अपना पॉलिटीकल करियर जमाने के लिए बेटे को पूरी जिंदगी बंदूक दिखाकर अपना हुक्म चलाता रहता है। और आखिर में वो बेटा ही बाप पर बंदूक तानकर उसकी पॉलीटिक्स की असलियत सबके सामने लाता है।


तीन घंटे से कम की ‌इस फिल्म में तो तीन तरह के बाप दिखाना काफी है लेकिन असल जिंदगी में इसके अलावा भी कई तरह के बाप होते हैं।
कुछ ऐसे बाप भी हैं जिनके बच्चों ने उनसे सालों से बात नहीं की।
कुछ बाप ऐसे भी हैं जिनका होना ही उनके बच्चों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल है और कुछ ऐसे भी जिनके लिए बच्चे पालना सिर्फ एक सोशल फॉरमेलिटी है।




विधु विनोद चोपड़ा बेशक इस फिल्म के जरिए थ्री इडियट को मिली सफलता के रिकार्ड न तोड़ पाए, लेकिन बेटे के सपनों के लिए की जा रही बाप की जी-तोड़ कोशिशें हम जैसे उन बच्चों को उस भरे हॉल में जरूर तोड़ देती हैं जिन्होंने अपने बाप को मजबूर होते देखा है। बिल्कुल उस बाप की तरह जो बेटे के सपनों के लिए लोन लेना चाहता है, लेकिन उसे कोई लोन नहीं देता, क्योंकि उसकी तनख्वाह इतनी कम है कि उस पर लोन मिल ही नहीं सकता।


नियम कानूनों का पालन करने वाला एक शांत, सीधा-सादा इंसान नियम भी तोड़ता है और उस इंसान की गर्दन भी पकड़ता है जिसकी वजह से उसका बेटा लापता हो गया था। अचानक एक कैरेक्टर में ये शिफ्ट देखना हल्का सा हैरान करता है और ये हैरानी तब खुद ही फना हो जाती है जब याद आता है कि इस वक्त ये इंसान एक बाप है सिर्फ और सिर्फ एक बाप।




न चाहते हुए भी देखी गई ये फिल्म.. खत्म होते-होते मन को‌ फिर से उस चाहत से लबरेज कर देती है जो चाहत बरसों से जमी पड़ी है.. एक ऐसे फ्रिज में जिसका दरवाजा ही नहीं खोला किसी ने। एक पिता को समझने और प्यार करने की चाहत।



















सोमवार, 11 जून 2012

जिदंगी में एक दुनिया रहती है



दीवार में एक खिड़की रहती है-विनोद कुमार शुक्ल।


काश.. जिंदगी का होना.. जिदंगी में जिंदगी का होना भी होता। अजीब सी है न ये लाइन। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास दीवार में खिड़की रहती है ....पढ़ने के बाद... आपको धीरे धीरे इस तरह की अजीब लाइनें भी समझ आने लगती हैं... और साथ में समझ आने लगता है.. जिंदगी का एक नया चेहरा।


सच में समझ नहीं आता कि कहां उलझी है जिंदगी... ऐसी कितनी ख्वाहिशें हैं.. जिन्हें पूरा करने के दौरान खुद से ही मिलने का वक्त नहीं मिल पा रहा। खुद को पीछे छोड़कर कैसे आगे बढ़ रहे हैं हम। क्या ये आगे बढ़ना सही में वो आगे बढ़ना है जिस तरह हम आगे बढ़ना चाहते थे।


जानती हूं कि ये सारी बातें किसी भी वक्त.. कोई भी लिखने वाला इंसान लिख सकता है। मैं कुछ नया नहीं लिख रही। सही मायनों में कहूं तो ..बहुत ही घिसी पिटी बकवास लिख रही हूं।


लेकिन हमारी बहुत ही तमीजदार जिंदगी में इस तरह की एक बकवास की जगह होना भी जरूरी है। ये बकवास कई बार वजह दे देती है.. जिंदगी में.. जिंदगी को महसूस करने वाले कुछ पलों से मिलने की। ऐसे पल... जब बिन बात के हंसी आ जाती है ...और बिन बात के रोना। जब बिना पहचान के कोई मदद कर देता है और जान बूझकर किसी का परेशान करना भी अच्छा लगता है।




बीच में ही इम्तिहान आ जाने की वजह से कई दिन लग गए इस उपन्यास को पूरा पढ़ने में। आज.. अभी.. इसका आखिरी पन्ना पढ़कर पूरा किया इस उपन्यास को।


यकीन मानिए.. बड़ी तेज फीलिंग हो रही है कि काश एक ऐसी खिड़की मेरे पास भी होती.. जिसे जब चाहे लांघकर मैं अपने मन की दुनिया में जा सकती।


विनोद कुमार शुक्ल को पहली बार पढ़ा मैंने। काफी जगह लगा कि क्यों पढ़ रही हूं इस उपन्यास को मैं। न इसमें कोई हीरो टाइप का चरित्र है न कोई संघर्ष न कोई विशेष परिस्थिति..छोटे छोटे से कुछ ब्यौरे हैं बेहद छोटी छोटी बातों के। मगर इसका सार तब समझ आता है जब आप उपन्यास का आखिरी पन्ना पढ़ते हैं...पता चलता है कि


 जिंदगी में इस तरह की भी एक दुनिया रहती है जो दीवार की खिड़की से बाहर निकलकर ही दिख सकती है....ये दिखना दरवाजे से नहीं हो सकता...दरवाजा उस दुनिया में दाखिल ही नहीं होने देता कभी...




फिर वही ख्वाहिश कि काश ये  खिड़की मेरे घर की दीवार में भी होती
पर घर ही नहीं है
किराये का है तो खिड़की कैसे हो सकती है....

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...