मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

दिखावा न हो दरम्यां

मैंने बचपन में एक कविता पढ़ी थी चिड़िया वाली ...एकदम सही से तो नही याद लेकिन उसका मतलब कुछ इस तरह था कि चिड़िया का बच्चा जब घोंसले से बाहर निकाल कर देखता है तो उसका ये भ्रम टूट जाता है कि सारी दुनिया महज उसका ये घोंसला ही है ...कुछ इस तरह थी लाइन कि ....अब जाना मैंने कि कितन बड़ा है ये संसार .......बचपन में मैं खूब मस्त होकर सबको ये कविता सुनाया करती थी ...लेकिन आज बड़े होकर जाना की वाकये कुछ अलग नही हैं मेरी इस्थिति उस चिड़िया के बच्चे से . मुझे भी अभी पता चल रहा है कि हमारी सोच और समझ से  कितनी अलग और परे है ये दुनिया ..हमारी मासूम . सोच के उस घोंसले में तो कभी स्वार्थ और सिफारिश  का वो सामान दाखिल ही नही हुआ जिसकी इस दुनिया में सबसे ज्यादा जरुरत है . हम रिश्तों के साथ जीते है और दुनिया में शर्ते पनप रही है .......हम क़ाबलियत को तोल रहे थे यहाँ इस दुनिया में तो जुगाड़ का मोल भाव हो रहा है ...हम प्यार ढूँढ़ते रहे लोगों की नजरो में  और लोगों की  नजरे हमसे उस प्यार कि कीमत मांगती रही ......हम तो अकेले निकाल पड़े थे घर से इस जंग-ए मैदान में लेकिन मालूम चला की यूँ अकेले कीर्ति तो मिल जाएगी लेकिन जीत का ख्वाब देखना भी बेवकूफी होगी. मंजिल आँखों में है सफ़र भी बेहद सुहाना है लेकिन मोड़ कुछ ऐसे है जहाँ हर बार हजारों सवाल राह तकते मिल जाते है. जानती हूँ कुछ किताबी बातों में जी रही हूँ लेकिन किताबे भी किसी दूसरी दुनिया के प्राणी ने तो नही लिखी न ...जिसने भी लिखी कुछ महसूस करके लिखी ...उन पलों को जी कर या किसी को जीते हुए देखकर लिखी ...फिर क्यों लोग कतरा रहे है उन किताबी बातों को अजमाने में या मानने में जिनके विमोचन में वो खूब भाषण देकर और पेटपूजा कर के आते है...एक छोटा और सीधा सवाल ये है की इस दुनिया में इतना दिखावा क्यों है ......मुझे भूख लगी है .......इस छोटी सी बात को भी कई बार आपको कुछ इस तरह कहना होगा ......जीभ लपलपाते हुए कहना होगा आपने खाने में क्या बनाया है.......या फिर अपने खाना खा लिया क्या .......बहुत छोटा और रूटीन लाइफ का उद्धरण दिया है मैंने क्योंकि दिखावे की ये लम्बी दास्ताँ तो ऐसे ही छोटी-छोटी बातों से शुरू होती है .....माँ-पापा के सामने अलग ,,,,दोस्तों के सामने कुछ और .....प्रेमी के सामने कुछ अलग .....बॉस के सामने कुछ हटके ...........क्यों बिना पैसे के फ़ोकट  में सब इतनी एक्टिंग कर रहे है ........शायद इसलिए की असलियत बदनाम  कर देगी .......लेकिन उस दिखावे से भी नाम होने की गुंजाईश मुझे नही दिखती ......सच कडवा होता है .........अच्छा नही लगता ......दुःख भी देता है अक्सर .....सहा भी नही जाता हो ये भी हो सकता है लेकिन ........जो सुकून सच में है वो दिखावे या झूठ  में नही .......मैं कोई गाँधीवादी चिन्तक नही हूँ लेकिन ये बात बेशक हकीकत है ...आखिर थकहार कर जब कुछ सोचने बैठते है हम तो यही चाहते हैं की कोई अपना सा साथ हो ....लेकिन झूठ और दिखावे से भारी पड़ी इस दुनिया में जिसका एक हिस्सा आप और हम भी बनते जा रहे है कैसे ढूँढेंगे हम कोई अपना सा एक दम ओरिजनल .......लाख टके का सवाल है और जवाब भी हम सब जानते है


10 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

bahut khoob bachan ki bate yaad dila hi di

kunwarji's ने कहा…

ji bahut badhiya likha aapne!

KUNWAR JI,

Prataham Shrivastava ने कहा…

हिमानी आपके इस मासूम सवाल का जवाब आपके द्वारा लिखी गई लाइनों मै से नीचे से ११ वी लाइन मै है ,सच कड़वा होता है ये आप जब किसी से कहना जब आपने सारी जिंदगी सच का दामन थाम कर चलने का फेसला किया हो और किसी से कभी कोई झूट न कहा हो अनजाने मै भी और रही किसी दिल के रहनुमा की तो वो आप को मिले मेरी सुभ कामनाये पर उसके लिए आपको दिमाग का दामन छोड़ना होगा और जिसे आप एक्टिंग का नाम दे रही है वो हमारी आपकी जिंदगी का हिस्सा है आप खुद कितने लोगो के सामने नेचुरल हो कर आई है जो सभी के नेचर को दिखावा कह रही है !आपसे कही सहमत होते हुए यह भी कह रहा हु की सच बोलने मै सुकून मिलता है ,तो आप कब सुकून पाना चाह रही है और इसके लिए केवल आपको अपने दिखावे को दूर करना होगा

दिलीप ने कहा…

sabse pehle mere ghar ka ande jaisa tha akar..
tab main yahi samajhti thi bas itna sa hi hai sansar...
akhir jab main asman me udi door tak pankh pasaar...
tabhi samajh me meri aya bahut bada hai ye sansaar....

achcha lekh...

http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

कुश ने कहा…

हम सब रंगमंच की कठपुतलिया ही तो है..

अति Random ने कहा…

arey dilip ji apne to sachmuch mera man khush kar diya yehi to vo kavita hai jise itne dino se main yaad kar rahi thi

बेनामी ने कहा…

ऐसा नहीं एक, एक आदमी या एक औरत अपनी जिंदगी में बहुत से रोल अदा करते हैं। सब से एक तरीके नहीं पेश आया जाता... मैं सड़क पर जा रहा हूं गल्ती से किसी से टकरा गया। अगर वो मुझे नहीं जानती तो यही समझेगी कि मैं उस से जानबूझ कर टकराया हूं। तो मुझे उसे सफाई देने के जरुरत नहीं है... उसके बाद अगर वो मुझे कभी मिलती भी है तो उसे मैं हमेशा गलत ही लगूंगां। ये दुनिया का नियम है, बस अपने रास्ते चलते चलो जो तुम्हारे साथ चलने लगे वो तुम्हारा है....

Anuj ने कहा…

Dhanyevaad. Maine bhi yeh kavita bachppan mai school mai padhe thi aur hamesha yaad rakhta huin. Lakin kya aapko yeh poree kavita mili ?

Mere ko jo yaad hai ...

Sabse phle mere ghar ka ande jaisa tha aakar,
tab main yahi samajhtee thi bas itna sa he hai sansar ..

Phir mera ghar bana ghosla sukhe tinkoo sai taiyaar,
tab mai yahi samajhtee bas itna sa he hai sansar ..

Phir mai udee ek din asmaan mai duur duur tak phankh pasaar,
tabhi smajh mai mere ayaa bahuut bada hai yeh sansar ...

प्रिया गौतम ने कहा…

अलग-अलग व्यक्ति के साथ अलग-अलग तरीके से पेश आना कोई दिखावा नहीं बल्कि जीवन का यथारथ
है,जरा कल्पना कीजिए उस लोक की जहां आप अपने पिता,भाई,मां,बहिन,गुरु,बॉस,दोस्त और प्रेमी के साथ समान भाव से पेश आ रहे हैं,तो आप पाएंगे कि आप साधु बन चुके हैं ,और संसार एक आश्रम। भेदभाव करना जहां मानवता और सद़भावना के परे है वहीं भेद न कर पाना अज्ञानता की पहचान। लेकिन अज्ञानता को भी तभी पहचाना जा सकता है जबकि ज्ञान और अज्ञान में भेद पता हो।

surendra ने कहा…



Sabse pahle mere ghar ka, andey jaisa tha aakar,
Tab mai yahi samajhti thi bas , itna sa hi hai SANSAR,
Phir mera ghar bana ghosala, sukhe tinko se taoyar,
Tab mai yahi samajhati thi bas, itna sa hi hai SANSAR,
Phir mai nikal padi shakhon per, hara-bhara tha jo sukumar.
Tab mai yahi samajhti thi bas , itna sa hi hai SANSAR,
Jab mai uddi aasman me , door tak pankh pasar,
tabhi samajh me meri aaya , bahut bada hai yeh SANSAR.

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