गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

सरेराह चलते चलते ...

हर पल जाने कितनी बातें   मन के अन्दर ही कहीं दफ़न हो जाती है कभी जुबान नही मिल पाती कभी जस्बात
अभी थोड़ी देर पहले जंगले से झांकते हुए मैंने कबूतर के एक जोड़े को देखा ...कभी लड़ते और फडफडा कर एक दुसरे से अलग हो जाते फिर पास आते और न जाने अपनी ही भाषा में क्या कहते एक दुसरे से कि अगले ही पल चोंच मिलाने लगते ...लगा कि  तकरार और प्यार का अहसास सिर्फ हमारी हिंदी फिल्मों में ही नही होता ये तो गगन के ये पंच्छी भी बिना एस एम् एस और ई मेल के एक दूजे को कितना कुछ समझा लेते है...फिर जब कुछ देर पहले घर लौटते हुए एक पोश इलाके से गुजर रही थी तब देखा महल नुमा इमारतों के बिच जहाँ चारो तरफ बिखरती धुप में भी चकाचोंध चांदनी साफ़ झलक रही थी एक बच्चा अधनंगी हालत में लेकिन पुरे जोश खरोशन और ख़ुशी के एहसास के साथ रिक्शे के एक पहिये को अपने सूखे हुए बदन कि तरह ही पतली एक लकड़ी से घुमाता हुआ दोड़ रहा था ...जैसे उसकी सारी खुशियाँ बस उस पहिये को गिरने से बचाने में ही बसी हो आसपास बने जंगी दीवारों दर ...ऊँचे ऊँचे मकान ...लम्बी लम्बी इस्कूल कि गाड़ियों से उतरते बच्चे...और उस इलाके में बसी तमाम चटक चांदनी उसके लिए कुछ नही थी ...कुछ था तो बस उन अमीर गलियों में बनी सपाट सड़क पर पहिया दोड़ाने का लुत्फ़...लगा कि हम जिन चीजों क पीछे भाग रहे है वो तो हमारे हाथ में है ही नही उससे बेहतर तो ये बच्चा है जो अपने हाथ से अपनी चाहत को चला रहा है जो इसके हाथ में नही उस पर इसका ध्यान भी नही है ...बेहद मामूली सी आँखों देखि है ये मगर गहरे अर्थ है जिन्हें समझने में कई बार काफी देर हो जाती है ...फिर सुबह जब ऑटो में बैठी तो ऑटो वाले ने बिच रास्तें में रिक्शा रोक दिया बाहर देखा तो वो फूल माला वाले से माला खरीद रहा था जो उसने अपने ऑटो रिक्शा पर डाली या कहूँ की बड़ी उम्मीदों और प्यार के साथ उसे पहनाई ...जो फूल अगले कुछ पल में ही सूख जायेंगे उन पर भला इस दिहाड़ी पर गुजर करने वाले आदमी ने पैसे क्यों खर्च किये ...क्या गाड़ी उसकी भावना को समझ सकती है या फिर ये भ्रम है उसे की  फूलों की खुश्बों को FUEL  मानकर गाड़ी ज्यादा चलेगी...दोनों में से शायद कुछ भी न हो ..बस इतना है की जिस चीज से आमदनी हो उसकी पूजा होती है वर्ना तो नौकरी से सेवा मुक्त हो चुके माँ बाप को फूल तो क्या फूल जैसी बात सुनने के लिए भी अपने ही घर में तरसना पड़ता है ...
सच में ये सब लिखते वक़्त ही एहसास हुआ की हर रोज न जाने कितना खुच गुजरता है इन आँखों के सामने से और मन तक पहुच कर भी बिच रस्ते ही कहीं मुड लेता है आज शब्दों के ये मंजिल मिली तो न जाने कितने और किस्से उमड़ घुमड़ कर कानो में चचाहने लगे ....


3 टिप्‍पणियां:

Dev ने कहा…

वाह!!!.......बहुत सुंदर लेख .....उस बच्चे के रिक्शे का पहिया चलाने को जो वर्णन किया वो बहुत सटीक और लाजवाब है .

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुंदर लेख .

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन आलेख!

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