बुधवार, 1 अप्रैल 2009

मंथन कर रहा है मन



मंथन कर रहा है मन


मंजिलों के सफर का


मोह्हबतों की डगर का


रास्ते भी मुनासिब है मंजिल के और ..................


मोह्हबत भी हो सके मुकरर शायद.....................


मगर मुश्किलों की महफिल मेजबान बनी हुई है !!!!!!!!!


जीतने से पहले हारना......... एक मर्तबा....... मेरी पहचान बनी हुई


मुक्कमल जहाँ की जुस्तजू में हूँ जिस दिन से .........


उस दिन से सांसे तो थमीं नही है .........................


लेकिन जिंदगी एक अरमान बनी हुई है

5 टिप्‍पणियां:

mehek ने कहा…

waah bahut badhiya

अनिल कान्त ने कहा…

क्या बात है छा गए

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सही। यह जिन्दगी ऐसी ही तो है।बस एक अरमान।

Udan Tashtari ने कहा…

वाह!! बहुत खूब!!

बेनामी ने कहा…

sabki ek jaisi kahani hai. touching 2 heart.

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