शनिवार, 26 जून 2010

सिवा रात के

कुछ नही है मेरे पास 
सिवा रात के 
शब्द अब कम पड़ने लगे है 
भीतर सैलाब है जज्बात के 
दोपहर ही बस मिलती है हर दिन मुझे 
क्या मालूम कब आकर चली जाती है 
सुबह चुप चाप से
फिर हर रात जिक्र होता है रात से 
सुबह की रुसवाई का 
फिर हर बात पर बात  चलती है
शब्दों की गहराई से
खुद से खफा हूँ अब इस पर क्या गौर करूँ 
रश्क  रहता है गैरों की बेवफाई से 
महफ़िल देख दूर से 
जहाँ जिस सफ़र पर चली मैं
पहुँच कर वहां मुलाकात हुई तन्हाई से 
जो दोस्त रहे बरसो 
वो अब आज यूँ मुझसे 
दर्द की वजह पूछते है 
जैसे मिल रहे हो 
किसी लड़की पराई से 
राहों पर
यूँ ही मिलने वाले भी कम मिले
और
एहतियातन हम भी लोगों से कम मिले 
फिर भी न जाने क्यों डर लगता है जुदाई से


1 टिप्पणी:

रंजना ने कहा…

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