एक दिन
देश के गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों से
मामूली आदमी पूछेगा
उन्होंने तब क्या किया जब हल्की और अकेली
मीठी आग की तरह
देश दम तोड़ रहा था ?
कोई नहीं पूछेगा उनसे
उनकी पोशाकों के बारे में
दोपहर के भोजन के बाद लंबी झपकी के बारे में
कोई भी नहीं जानना नहीं चाहेगा
शून्य की धारणा से उनकी
नपुंसक मुठभेड़ के बारे में
कोई चिंता नहीं करेगा
उनकी उच्च वित्तीय विद्यता की
उनसे नहीं पूछा जाएगा
सफेद झूठ की छाया में जन्में
उनके ऊलजूलूल जवाबों के बारे में
उस दिन मामूली लोग आयेंगे आगे
जिनका गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में कोई स्थान नहीं है
जो उन्हें रोज रोटी और दूध और अंडे पंहुचाते है
जो उनके कपड़े सीते हैं
कार चलाते हैं
जो उनके कुत्तों और बाघों की देखभाल करते हैं
वे पूछेंगे तब तुमने क्या किया
जब गरीब पिस रहे थे?
जब उनकी कोमलता और जीवन रीत रहे थे?
देश के गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों से
मामूली आदमी पूछेगा
उन्होंने तब क्या किया जब हल्की और अकेली
मीठी आग की तरह
देश दम तोड़ रहा था ?
कोई नहीं पूछेगा उनसे
उनकी पोशाकों के बारे में
दोपहर के भोजन के बाद लंबी झपकी के बारे में
कोई भी नहीं जानना नहीं चाहेगा
शून्य की धारणा से उनकी
नपुंसक मुठभेड़ के बारे में
कोई चिंता नहीं करेगा
उनकी उच्च वित्तीय विद्यता की
उनसे नहीं पूछा जाएगा
सफेद झूठ की छाया में जन्में
उनके ऊलजूलूल जवाबों के बारे में
उस दिन मामूली लोग आयेंगे आगे
जिनका गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में कोई स्थान नहीं है
जो उन्हें रोज रोटी और दूध और अंडे पंहुचाते है
जो उनके कपड़े सीते हैं
कार चलाते हैं
जो उनके कुत्तों और बाघों की देखभाल करते हैं
वे पूछेंगे तब तुमने क्या किया
जब गरीब पिस रहे थे?
जब उनकी कोमलता और जीवन रीत रहे थे?
( एक हकीकत जिससे मैं हाल ही में रु- बा- रु हुई ....कहीं पढ़े इन शब्दों के माध्यम से)
8 टिप्पणियां:
आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,
वाह! ऐसी कवितों से जीने की उर्जा मिलती है.
..आभार.
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
संजय जी ये कविता मैंने नहीं लिखी है कहीं पढ़ी थी और एक जरूरी कविता लगी जिस पर मेरा ध्यान नहीं गया था अब तक इसलिए यहां लगाई है
वर्तमान परिवेश की विसंगतियों व विडम्बनाओ की सशक्त अभिव्यक्ति आपकी कविता में हुई है...सोचने को मजबूर करती सार्थक रचना..बधाई।
dobara dhayawaad sunder kavita padhwane ke liye...
वे पूछेंगे तब तुमने क्या किया
जब गरीब पिस रहे थे?
यही आस तो है पर कब पूछेगा?
सुन्दर रचना
अच्छी रचना !!
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