इस चूल्हे पर अब रोटी नही बनती
मुझे भी ये चूल्हा यूँ ही राह चलते मिल गया
इसकी तन्हाई की रौशनी जब आँखों पर पड़ी तो
बिन कुछ करे और कहे रहा न गया
इसलिए तुरंत फोटो खिंच ली
और अब कुछ कहने की कोशिश कर रही हूँ
सोचती हूँ कि अगर ये चूल्हा बोल सकता तो क्या कहता
कहता कि
अनजान राहों पर यहाँ
कूड़े के उस ढेर से थोड़ी दूर
कुछ बिन किसी की चाहत के उग आये पेड़ो के पास
मुझे
किसी मजदूर ने मजबूरी में
बनाया था
मजदूरिन सुबह तडके ही चड़ा देती थी
चावल मेरे सर पर
और शाम ढलते ही फिर जुट जाती थी
तयारी में
कभी मेरे सर पर उसने पीली दाल नही चढ़ाई
सफ़ेद भात हाथ को पांचों उँगलियों में भरकर
पूरा परिवार बड़ी शिदत से खाता था
सब यूँ ही चल रहा था की एक दिन
मजदूर का काम पूरा हो गया
अब उसे जाना था कहींऔर
काम ढूँढने के लिए
अब कहीं और बनाना थे उसे चूल्हा
अपना फटा कटा सारा सामान ले गया वो
जाने क्यों मुझे ही साथ न ले जा सका
मैं तो जुड़ गया था इस जमीन से इतने दिनों
में
मगर वो मजदूर जाने कितने जमीन के टुकड़ों से जुड़कर भी अलग ही रहा
दूसरों के मकान बनाता रहा
और अपने मंजर बढाता रहा
मेरा पता आज भी जानते है लोग
मगर न जाने वो मजदूर कहाँ होगा जो यहाँ
बिन छत के कोरे आसमान के नीचे
अपनी मजबूरी को बिछाता रहा
ओड़ता रहा
सुलाता रहा
6 टिप्पणियां:
बहुत जबरदस्त रचना!
"बेहतरीन...."
wov
wov
wov
bahut hi umda rachna...
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