लिख रही हूँ इबारते
कभी मन ही मन
कभी कागज पर कलम से
सोच कर यही
कि शायद
इस बार
हाल ए दिल
आरजू ए जिंदगी
और
जुस्तजू ए सफ़र
बयाँ हो जाये
मगर मुक्कदर की मुफलिसी में
ये मुनासिब कहाँ
जितना चलती हूँ
रास्तें उतने ही लम्बे हो जाते है
हकीकत की बात हो
तो कह दूँ
दो टूक
अब अफ्सानो की हद को कैसे
तय करूँ शब्दों के साथ
ये तो वो कारवा है
जो मेरी सांसों
के साथ ही थमेगा शायद
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3 टिप्पणियां:
बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है
लिखते रहिये बहुत सुन्दर लिखते हैं
बयाँ हो गया तो हाल दिल का कहाँ रह जाएगा?
जैसे आंसूं पराया हो जाता है आँखों के लिए.....
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