बुधवार, 31 मार्च 2010

सपनो से मिली सजा

सीले हुए से कुछ शब्द
सुखी हुई सी कुछ उम्मीदें
खालीपन से भरे इस दिल में        
अब और बचा ही क्या है

सोचे बिन ही समझ लेने की भूल
और जाने बिन ही देख लेने का अपराध
सपनो के इस गुनाह की
बाकी सजा भी क्या है

जोप जुर्म किया था मैंने
वाही अज मुझ पर जुल्म ढा रहा है
बिन सबूत ...बिन गवाहों के
मुझे मुजरिम ठहरा रहा है

वो एक वजह थी जिससे
ख्वाबों का घरोंदा बना
ये आज जो हुआ एकाएक
दरार और फिर टूटन का एहसास
मैं नही जानती कि
इसकी वजह क्या है

5 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

मैं नही जानती कि
इसकी वजह क्या है

वजह चाहे कुछ भी हो टूटन और दरार को रोकना ही होगा.
बेहतरीन अभिव्यक्ति

Shekhar Kumawat ने कहा…

bahut sundar rachna

SHEKHAR KUMAWAT

http://kavyawani.blogspot.com/

संजय भास्‍कर ने कहा…

कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई

संजय भास्‍कर ने कहा…

plz visit himani ji

http://yuvatimes.blogspot.com/2010/03/blog-post_30.html

Unknown ने कहा…

शानदार प्रस्तुतीकरन,,,अच्छी रचना

विकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com

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