शनिवार, 21 अगस्त 2010

पेड न्यूज - पत्रकारिता के फूल पर मंडराता भंवरा

फूल की महक और खुबसूरती की बात हो तो भंवरे का जिक्र भी आ ही जाता है। हाल-ए-पत्रकारिता भी कुछ ऐसा ही हो गया है। इसके आकार और सरोकार की चाशनी पर मंडराते पेड न्यूज रुपी भँवरे की मेहरबानी के चलते पत्रकारिता में मुद्दों की चर्चा के बजाए आजकल पत्रकारिता स्वयं में एक चर्चित विषय हो गया है। ताजा बात से शुरु करते हैं।
हाल ही में बिहार और झारखंड के पत्रकारों ने पेड न्यूज को रोकने की दिशा में सक्रिय हस्तक्षेप करने की गरज से एंटी पेड न्यूज फोरम का गठन किया है। ये संगठन पेड न्यूज के कारोबार पर नजर रखेगा और इस तरह की तमाम गतिविधियों को लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करेगा। संगठन में कोई भी पद नहीं रखा गया है। केवल एक कोर कमेटी होगी, जो सबसे सलाह-मशवरा करके काम करेगी। इस महीने की 28 तारीख को इस फोरम के तहत सम्मेलन भी किया जाएगा। इस सम्मेलन में देश के ऐसे पत्रकार भी शिरकत करेंगे जो पेड न्यूज की प्रणाली को पत्रकारिता पर कलंक मानते हैं।
अब से कुछ दिन पहले भी पत्रकारिता की पनाह में पलते पेड न्यूज की अवैध संपति पर हो हल्ला हुआ था। मौका था रामनाथ गोयनका अवार्ड समारोह। चर्चा हुई। पत्रकारों ने एक सुर में पेड न्यूज को पत्रकारिता के लिए घातक करार दिया। और फिर सब अपने-अपने घर लौट गए। पेड न्यूज जहां थी वहीं रही। ये बात भी ध्यान देने की है कि  प्रेस परिषद ने पेड न्यूज की जांच के लिए कमेटी भी गठित की थी जिसकी रिपोर्ट इसी वर्ष 26 अप्रैल को आनी थी लेकिन वह भी अब तक नहीं आई है। जब से यह मुद्दा उठा है तब से पत्रकार और मीडिया टाइकून अलग-अलग अवसरों पर इस विषय पर अपनी राय देते रहे हैं।

इसकी एक बानगी मैंने तमाम अवसरों पर दिए गए कुछ बयानों को खोज बीन कर तैयार की है-

पेड न्यूज सिर्फ वही नहीं, जो पैसे लेकर छापी जाती है। किसी विचारधारा के तहत लिखी गयी खबर भी पेड न्यूज जितनी ही गलत है।
आशुतोष,  मैनेजिंग एडीटर, आईबीनएन-7।

खराब अखबार निकालने का दोष मालिकों पर मढऩा ठीक नहीं है। पत्रकारों को ऐसे कामों से बचना चाहिए, जिससे पाठकों में उसकी इमेज खराब हो। किसी भी कानून से ज्यादा जनता और पाठक की नजर हालात को सही करने में अपनी भूमिका निभा सकती है। कानून बन जाएगा तो पेड न्यूज का सिलसिला दूसरे रास्तों से शुरु हो जाएगा।
श्रवण गर्ग, दैनिक भास्कर।

मीडिया पर हमेशा से दबाव रहा है। जब हमने नवभारत टाइम्स में पशुपालन घोटाला की खबर छापी तो लालू यादव ने हमारे ऑफिस में आग लगवा दी थी। हमारा काम खबर छापना है, हमें हर हाल में इस काम को जारी रखना होगा। आज ही नहीं पहले भी मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में रहा है। ऐसी भी घटनाएं हैं जब मालिकों से अलग हटकर चलने पर संपादकों (बीसी वर्गीज और एचके दुआ) को सड़कों पर ही बर्खास्त किया जाता रहा है।  अखबार का मालिक अखबार चलाने के लिए कहां से पैसा लाता है, सम्पादक को इससे कोई मतलब नहीं होता।
आलोक मेहता, संपादक, नई दुनिया।

कॉरपोरेट जगत को माइनस करके अखबार और चैनल नहीं चलाए जा सकते। हमारे एक चैनल ने एक कॉरपोरेट घराने के खिलाफ कैम्पेन चलाई। इसके नतीजे में उस कॉरपोरेट ने हमारे सभी नेटवर्क के चैनलों से अपने विज्ञापन वापिस ले लिए।
राजदीप सरदेसाई,  सीएनएन-आईबीएन।

सरोकारों का संसार सिमट रहा है या फिर सरोकार ही बदल गए हैं ये कहना मुश्किल है लेकिन पेड न्यूज पर चर्चा करने वाले इन सभी पत्रकारों की बात से जो निष्कर्ष निकलता जान पड़ता है वो यही है कि पत्रकारिता को पूंजी के बिना देखना अंसभव हैं । ऐसे में भला मीडिया उन सत्ततर प्रतिशत लोगों की बात क्यों करे, जो रोजाना पन्द्रह से बीस रुपए रोज पर अपना गुजारा करने के लिए मजबूर हैं। उन्हें मरते हुए किसान विज्ञापन नहीं देते। इसलिए मीडिया को कॉरपोरेट जगत के हितों की बात करनी ही होगी। इसे उनकी मजबूरी भी कहा जा सकता है और मनमानी भी। फैसला आप पर है। आप क्या कहेंगे?

ब्ला ब्ला ब्ला... आखिर ये बला क्या है????
साल 2009 के अप्रैल-मई महीने में पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव हुए। इन चुनावों की निष्पक्ष रिपोर्टिंग के लिए प्रेस काउंसिल की तरफ से सरकारी अधिकारियों और प्रेस दोनों के लिए गाइडलाइन्स तय कर दी गई थी। लेकिन चुनावों के दौरान इसकी अनदेखी हुई।  जिसके परिणाम में एक नया ट्रेंड देखने को मिला। चुनाव में खड़े प्रत्याशियों का अपने प्रचार के लिए मीडिया कंपनियों को पैसे देकर खबर छपवाने का ट्रेंड। ऐसी खूब खबरें छपी जिनमें खबर कहीं थी ही नहीं, खबर के रूप में पूरा इश्तिहार था। इस नए ट्रेंड को मशहूरी मिली  पेड न्यूज के नाम से। यानि पैसे लेकर प्रकाशित की जाने वाली खबर। ये बात पिछले साल की है, विरोध भी पिछले साल से ही शुरू हो गया था और आज तक हो रहा है।

2 टिप्‍पणियां:

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

Vaakai Aaj patrakaarita par khatra mandra raha hai....

Iska samadhaan khozna hi hoga.

Aankhe kholnevaali post hai.

Reyaz ने कहा…

bilkul sahi! is tarat patrkarita/media sab dhandli ka shikar hai,
khatra to hai, lekin hame isse bachne ka raasta nikalna hoga?

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...