सीले हुए से कुछ शब्द
सुखी हुई सी कुछ उम्मीदें
खालीपन से भरे इस दिल में
अब और बचा ही क्या है
सोचे बिन ही समझ लेने की भूल
और जाने बिन ही देख लेने का अपराध
सपनो के इस गुनाह की
बाकी सजा भी क्या है
जोप जुर्म किया था मैंने
वाही अज मुझ पर जुल्म ढा रहा है
बिन सबूत ...बिन गवाहों के
मुझे मुजरिम ठहरा रहा है
वो एक वजह थी जिससे
ख्वाबों का घरोंदा बना
ये आज जो हुआ एकाएक
दरार और फिर टूटन का एहसास
मैं नही जानती कि
इसकी वजह क्या है
बुधवार, 31 मार्च 2010
सोमवार, 29 मार्च 2010
शायद... बयाँ हो जाये
लिख रही हूँ इबारते
कभी मन ही मन
कभी कागज पर कलम से
सोच कर यही
कि शायद
इस बार
हाल ए दिल
आरजू ए जिंदगी
और
जुस्तजू ए सफ़र
बयाँ हो जाये
मगर मुक्कदर की मुफलिसी में
ये मुनासिब कहाँ
जितना चलती हूँ
रास्तें उतने ही लम्बे हो जाते है
हकीकत की बात हो
तो कह दूँ
दो टूक
अब अफ्सानो की हद को कैसे
तय करूँ शब्दों के साथ
ये तो वो कारवा है
जो मेरी सांसों
के साथ ही थमेगा शायद
कभी मन ही मन
कभी कागज पर कलम से
सोच कर यही
कि शायद
इस बार
हाल ए दिल
आरजू ए जिंदगी
और
जुस्तजू ए सफ़र
बयाँ हो जाये
मगर मुक्कदर की मुफलिसी में
ये मुनासिब कहाँ
जितना चलती हूँ
रास्तें उतने ही लम्बे हो जाते है
हकीकत की बात हो
तो कह दूँ
दो टूक
अब अफ्सानो की हद को कैसे
तय करूँ शब्दों के साथ
ये तो वो कारवा है
जो मेरी सांसों
के साथ ही थमेगा शायद
मंगलवार, 23 मार्च 2010
सुख की तलाश में
सुख की तलाश में गई थी
दूर तलक मैं
जब
खाली हाथ
भारी मन
लौटना हुआ
तो देखा
दुःख अब भी वहीँ बैठा
मेरी राह तक रहा है
ज्यो का त्यों
जरा भी नही बदला
एक तरफ मेरी तलाश अधूरी थी
दूसरी तरफ
मुझसे जुदाई में
दुःख भी उदास सा दिखा मुझे
कुछ और तो न कर सकी
मैंने सुख की तलाश छोड़
दुःख में ही
सुकून को तराशना शुरू कर दिया
दूर तलक मैं
जब
खाली हाथ
भारी मन
लौटना हुआ
तो देखा
दुःख अब भी वहीँ बैठा
मेरी राह तक रहा है
ज्यो का त्यों
जरा भी नही बदला
एक तरफ मेरी तलाश अधूरी थी
दूसरी तरफ
मुझसे जुदाई में
दुःख भी उदास सा दिखा मुझे
कुछ और तो न कर सकी
मैंने सुख की तलाश छोड़
दुःख में ही
सुकून को तराशना शुरू कर दिया
सोमवार, 22 मार्च 2010
खबर थी उसे
चाँद, तारे,आकाश
नदिया,बदल,बारिश, झरने
फूल,भँवरे,पंछी,पेड़
क्यों बनाये उस रहबर ने
शायद खबर थी उसे की
एक दिन जब किसी वक़्त
सपनो सी इस दुनिया में
किसी शक्स को
सच दिखेगा, चुभेगा, चोट करेगा
तब वो कुदरत की आगोश में
कल्पना की चादर लेकर
कुछ पल पैर पसारकर
नींद की एक झपकी ले सकेगा
नदिया,बदल,बारिश, झरने
फूल,भँवरे,पंछी,पेड़
क्यों बनाये उस रहबर ने
शायद खबर थी उसे की
एक दिन जब किसी वक़्त
सपनो सी इस दुनिया में
किसी शक्स को
सच दिखेगा, चुभेगा, चोट करेगा
तब वो कुदरत की आगोश में
कल्पना की चादर लेकर
कुछ पल पैर पसारकर
नींद की एक झपकी ले सकेगा
शुक्रवार, 12 मार्च 2010
मैं
एक मुक्कमल सुबह का इंतज़ार है
मगर हर रात आने वाले चाँद से भी बेहद प्यार है
नींद जरुरी है सेहत के लिए
मगर सपने दवाओं से ज्यादा तीमारदार है
एक दिल, एक जाँ है मुझमे
एक ही शक्स हूँ मैं
फिर भी आईने में देखकर
लगता है
कितनी ही परछाइयों का
अक्स हूँ मैं
मंगलवार, 2 मार्च 2010
सच को बदलने का सपना
जब फूलों को खिलते देखा....तो मैंने एक ख्वाब लिखा
झरने को नदी में ..नदी को सागर में गिरते देखा...तो मैंने एक ख्वाब लिखा
पतली सी सफ़ेद लकीर को पूरा होकर चंद बनते देखा ...तो मैंने एक ख्वाब लिखा
हवा को जब महसूस किया मुझे छु कर गुजरते हुए ...तो मैंने एक ख्वाब लिखा
सावं की बारिश ने जब जिस्म से रूह तक भिगो दिया मुझे... मैंने एक ख्वाब लिखा
रंगों की होली भी देखी...और रौशनी से सजी दिवाली भी
मगर जब देखा तारो से सजे आसमान के नीचे
अभावो का आवास
जब देखा सोना उगलती धरती पर
बंजर जिंदगी ..और
बंजारा जीवन
जब एक तरफ सुना मैंने अपच से परेशान है कुछ लोग..और
दूसरी तरफ पढ़ा
भूख का भूगोल
जब मासूमियत को ढूंढ रही मेरी आँखों ने
गुब्बारा बेच रहे उस बच्चे की आँखों में
बेहद संजीदगी देखी
जब अख़बारों में पढ़ी मैंने
बेटी से बलात्कार
निर्दोष पर अत्याचार...और
ढोंगी बाबाओं के चमत्कार
की ख़बरें ..और
करीब जाकर देखा
महलों सी इमारतों के सामने वाली सड़क पर
मिटटी के घरोंदो में गुजरती जिन्दिगियों को
मेरे लिखे हुए सारे ख्वाब
एक एक कर मिटने लगे
फूलों के साथ कांटे
चाँद में ग्रहण
हवा के बाद चलने वाली आंधी
बारिश से आने वाली बांड
एक एक कर सारे सच
खुलने लगे
तब ख्वाबों को लिखना छोड़ दिया मैंने
.
.
.
.
ये सपनो का मर जाना नही है
न ही है उस सच को यूँ ही अपनाना
ये एक कोशिश है
इस हकीकत को बदलने का
ख्वाब लिखने की
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अपने व्यवहार और संस्कारों के ठीक उल्ट आज की पत्रकारिता से जुडऩे का नादान फैसला जब लिया था तब इस नादानी के पैमाने को मैं समझी नहीं थी। पढऩे, ...