किसी उपन्यास के चरित्र,किसी कहानी के किरदार और किसी के फिल्म के पात्र सरीखा ही लगता था उसे अपना जीवन. उसे लगता था कि उसकी ज़िन्दगी भी एक फिल्म है. कभी ख़ुशी है कभी गम है ...आजकल का लव न सही इश्क तो है ...ये मानने कि बाद कि मैंने प्यार किया उसके सामने भी ये सवाल आता है कि ...मैने प्यार क्यों किया..चलते चलते चुपके चुपके सिलसिला यूँ ही बढ़ता जा रहा था . वक्त की ताल पर ज़िन्दगी ने शोले बिछाये है ये अहसास हुआ ही था कि अचानक रण का एलान हो गया. यूँ तो पिक्चर अभी बाकी है दोस्त ...और उसकी ज़िन्दगी के किस्से भी. लेकिन आखिर मायानगरी के गुलमोहर तले वो , हम ,आप या कोई भी सपने साजों सकता है ...सच को सपनो सा करने के लिए तो परदे के पीछे से होकर बाहर आना पड़ता है और खुद अपने के लिए गुलमोहर बनाना पड़ता है. फिल्मों कि तरह असल जिंदगी में न तो प्यानो बजता है ..न दुप्पटा उड़ता है न कोई राज आर्यान हवाओ का रुख बदलता है न ही इतना मुकम्मल होता है ये कहना कि आल इस वेल
लेकिन फिर भी दिल है कि मानता नही बोर बोर यही कहता है कि काश जिंदगी फिल्म होती
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4 टिप्पणियां:
"अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए हम अपनी ही आग में हर रोज जलकर देखते है"
"वक्त की ताल पर ज़िन्दगी ने शोले बिछाये है ये अहसास हुआ ही था कि अचानक रण का एलान हो गया"
इतने सुंदर शब्दों और भावों के लिए यही कहना चाहूँगा - शुभ आशीष और हार्दिक शुभकामनाएं .
aap achchha likhti hain...yun hi likhti rahiye
गौर से देखें आपनी पोस्ट ..... जिंदगी फिल्म ही तो है ........
दिलचस्प लिखा है आपने ........
वाह !!....बहुत बढ़िया लिखा है आपने ......असल में जिस फिल्म में इंसान अपने आपको ...नहीं पता वो उस फिल्म को पसंद नहीं करता है ......परदे की जिंदगी और परदे के बहार की जिंदगी में ज़मीन आस्मां का फर्क होता है
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