मंगलवार, 15 सितंबर 2009
बीच सफर से
न घर वापस लौटना
अब सपनो वाले दिन रात भी नही है
अब है सचमुच में मेरा सच से सामना
पहले दुनिया के इस शोर में
मेरी भी एक आवाज़ थी
और आजकल .......
शांत देखकर मुझे
दीवारों दर भी कहते है
इस खामोशी को मत थामना
तठस्थ हो जाने का अपराध
कर रहा है वक़्त
मगर सजा पा रही हूँ मैं
हकीक़त के करीब आ गई हूँ
और ख्वाबों से बढ़ गया है फासला
नजदीकी का तो कोई पैमाना नही होता
बढती हुई इस दूरी को चाहती हूँ नापना
लफ्जो की कोई सीमा नही है
मगर भाव जैसे सब बह गए है कही
बिन पतवार की नाव के साथ
मैं तो संग ही लेकर चली थी नाव भी पतवार भी
भूल हुई बस यही की मांझी भी मैं ही बनी थी
जबकि खिवैया है कोई और ............मैं नहीं
रविवार, 13 सितंबर 2009
तीसरी फसल
एक तरफ़ देश झुझ रहा है सुखा और बांड के जाल में और इसी तरफ़ देश की सरकार सुलग रही है इनसे फैली समस्यों की बांड और इनके समाधानों के सूखे से .....ये समस्याएँ देश के लिए नई नही है यूँ भी भारत के तकलीफदेह संघर्षो में से अधिकांश संघर्ष पानी के साथ जुड़े रहे है ...... इन तमाम संघर्षो का इतिहास तो इस तरह की समस्याओं के बढ़ने से और अधिक समरद्ध हो जाता है लेकिन समाधानों के नाम पर शतरंज जसी बिसात बिछी दिखाई देती है ......हालाँकि हम और आप जैसे लोग यहाँ दूर दिल्ली प्रदेश में बैठे रहकर सूखे या बांड को सिर्फ़ अख़बारों में पढ़ और टी वि पर देख सकते है महसूस नही कर सकते पर जिन इलाकों पर ये आपदायें आए दिन मुह बाएं खड़ी रहती है वहां के लोगो के लिए पुरी जिंदगी की लग्जरी सिर्फ़ दो वक़्त की रोटी ही होती है हमारी तरह वो बंगले गाड़ी की दुआ कभी नही मांगते ......और सबसे ख़ास बात ये की उनकी अपनी दो वक़्त की रोटी जिस चीज से नकलती है उसी से हमारा भी पेट भरता है क्योंकि वो लोग कोई और नही बल्कि हमारेवास्त्विक अन्नदाता है वो हमारे कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश के वास्तविक राजा है वो है किसान .....हम कितने भी उन्नत क्यों न हो जाए लाख रुपये की नैनो के बाद हजार रुपये का हवाई जहाज ही क्यो न बना ले मगर अन्न को कोई विकल्प हम नही ढूंढ पाएंगे की क्योकि पेट तो आख़िर अनाज की रोटी से ही भरा जा सकता है .....इन सभी चीजो के बारे में सोचते हुए मेरे हाथ के किताब लगी पत्रकार पी साईनाथ की लिखी "तीसरी फसल " मैं काफी दिनों से इन समस्याओं से जुड़ी जानकारी जुटा रही थी और इस किताब से बहुत मदद मिली .....ग्रामीण भारत के लोग साल में दो बार फसल करते है लेकिन जिन इलाकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया जाता है उनके लिए तिन फसल होती है सूखे के लिए मिलने वाली सुखा राहत को लेखक को ने तीसरी फसल कहा है हालाँकि इस फसल को काटने वाले वो नही होते ..दुसरे लोग होते है .......
सुखा रहत का बहुत बड़ा हिस्सा उन कामों में चला जाता जिनका सञ्चालन प्राइवेट कम्पनियाँ करती है .....एक जरुरी जानकरी जो इस किताब से मिली वो ये की सिधांत रूप में सूखे की चपेट में आने वाले इलाको को एक केन्द्रिये योजना के अधीन रखा जाता है जिसका नाम है द्रोत प्रोने अरास (दी पी ऐ पी ) लेकिन इन इलाको को दी पी ऐ पी के अर्न्तगत लान अब विशुद्ध रूप से एक राजनितिक निर्णय हो गया है अगर कोई ब्लाक दी पी ऐ पी में आ जाता है तो उसके लिए कई परियोजनाए एक के बाद एक तैयार होने लगती है ऐसी हालत में कुछ लोगो के लिए चपर फाड़ पैसे की बारिश हो जाती है सरकार की तरफ़ से जो मदद दी जाती है वो सुख्ग्रस्त इलाकों के लिए मगर कुछ ऐसे tathya सामने आते है जिनमे दी पी ऐ पी के अर्न्तगत वो इलाके शामिल है जहाँ अची खासी वर्षा होती है
मैं यहाँ सिर्फ़ ये बात एक किताब पढ़कर ही नही लिख रही इन बातों का sidha असर हमारी jivanshaili पर padne लगा है जब दाल chini के daam बढ़ने की वजह से लोगो ने khanne में mithaas कम कर दी है
यहाँ गौर इसी बात पर करना है की ये mithaas हमारे भोजन से ही नही जीवन से भी कम होती jayegi यदि देश की jadon में बस्ती कृषि और इसकी aatma ग्रामीण भारत की उन्नति पर dhyan नही दिया जाएगा
मंगलवार, 1 सितंबर 2009
बात जनता पार्टी की जनता की
ऐसे में चाय और पान की दुकानों पर बतियाने वाले बुद्धिजीवी लोग गाहे बघाहे अपनी यही राय बड़ी जोर शोर से सभी को सुनाते दिख रहे है की भइया अब तो गई भैंस पानी में इन बी जे पि वालों की .............. खैर हम न तो गली नुक्कड़ पर है न ही चाय की चुस्की या पान का स्वाद ले रहे है ..,,,हम देख रहे है देश प्रमुख विपक्षी दल का हाल और साथ ही विश्लेषण कर रहे है उनकी बदलती नीतियों और ततश विचारधारा का ॥ उन लोगो से भी हमारा निजी तौर पर कोई वास्ता नही जिन्हें पार्टी ने निकल दिया न ही उनसे जो तमाम कारगुजारिओं के बाद भी पड़ पर बने हुए है सार्वजानिक तौर पर हमारा लेना देना है पुरी पार्टी और उसके कार्यों से .......महांमारी ,महंगाई ,मज़बूरी और बांड सूखे की जद्दोजहद में जीने वाली भारतीये जनता की जनता पार्टी इन दिनों जन्नौंमुख होने की बजाय गैरजरूरी वजह से जिन्नाउन्मुख हो गई है इस वपक्षी दल के पास सत्ताधारी पार्टी का इन तमाम मुद्दों पर ध्यान दिलवाने का वक़्त नहिन्हाई क्योंकि यह अपनी हार के सदमे से ही अभी तक नही उभरी है ......पार्टी ने जितने के लिए जी तोड़ म्हणत की थी लेकिन जिस तरीके से म्हणत की वो दिखावटी था क्योंकि जिस युवा वर्ग को लुभाने के उदेश्य सेआडवानी जी ने ब्लॉग्गिंग और नेट्वर्किंग शुरू की थी
उनमे अधिकतर लोग जिन्ना के इतिहास और उसके कार्यों से वाकिफ नही है सिवाय इसके की वो विभाजन के परोकर थे हाँ वर्तमान हालत को देखते हुए ये युवा वर्ग इस बात का गवाह जरुर बनेगा की जिन्ना का नाम ही जनता पार्टी विभाजन का कारन बना .विभाजन भी ऐसा की
एक शाख के टुकड़े हजार हुए
कोई यहाँ गिरा कोई वहां गिरा
दरअसल जिस युवा वर्ग को लक्ष्य बनाकर पार्टी स्वं को स्थापित करना चाहती है उसे जिन्ना या गाँधी परकी गई तिप्पदियों से ज्यादा फर्क पड़ता है विकास की नीतियों से और फिर आज अगर गाँधी किसी के आदर्श है तो मायावती उन पर कितना ही आक्षेप क्यों न व्यक्त करे कोई फर्क नही पड़ते .......आज की पीडी अगर शाहरुख़ खान को पसंद करती है तो दीवानों की तरह करती है फ़िर चाहे अमर सिंह कितनी ही टिका तिपदी क्यों न करते रहे ये जो भी आदर्श व्यक्ति है समाज में इनकी छवि इतनी धुंधली नही है की एक किताब या बयाँ से मैली हो जाए तो अगर कोई दल युवा वर्ग को लुभाना चाहता है तो उसके लिए स्मार्ट लुक और चैटिंग ,नेट्वर्किंग से ज्यादा ख़ुद को ये समझाने की जरुरत है की आज देश की जनता राम नाम रटने वाले नेता नही राम की तरह काम करने वाले नेता चाहती है .................यही बात अगर बी जे पि समझ ले तो फ़िर नेत्रतेव चाहे अडवाणी करे या कोई और नेता पार्टी का पुनरुथान सम्भव हो सकता है अन्यथा हर रोज शाख से टूट कर गिरते पत्तों को बहारों की ही बाट जोहनी होगी
कमजोरी
उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...
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1. तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि दिशाएं पास आ गयी हैं, हर रास्ता छोटा हो गया है, दुनिया सिमट...
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सपने कल्पना के सिवाय कुछ भी नही होते ...मगर कभी कभी सपनो से इंसान का वजूद जुड़ जाता है... अस्तित्व का आधार बन जाते है सपने ...जैसे सपनो के ब...
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अपने व्यवहार और संस्कारों के ठीक उल्ट आज की पत्रकारिता से जुडऩे का नादान फैसला जब लिया था तब इस नादानी के पैमाने को मैं समझी नहीं थी। पढऩे, ...