गुरुवार, 15 जून 2017
शुक्रवार, 2 जून 2017
मैं, वो, ये सब
वो नहीं चाहता कि
मैं उसे चाहूं
तो मैं उसे चाहूं कैसे
मैं उसे चाहूं
तो मैं उसे चाहूं कैसे
मैं खुद को भी चाहूं
तो उससे अलग कैसे रहूं
मैं रहती हूं अब
मैं, वो हूं जैसे
शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017
मैं एफर्टलेस हो जाना चाहती हूं
तुम्हें पाने की इतनी प्रार्थनाएं की हैं।
इतने मंदिरों की घंटियां बजाई हैं।
इतने व्रत रखे हैं।
आधी-आधी रात में उठकर इतने-इतने ख्वाब बुने हैं
इतनी-इतनी कविताएं लिखी हैं, तुमसे मिले बिना कि
अब तुम्हारे मिल जाने पर
मैं बिलकुल एफर्टलेस हो जाना चाहती हूं।
मैं चाहती हूं कि तुम्हें पुकारूं भी ना
और तुम आ जाओ।
मैं चाहती हूं कि तुमसे कहूं भी ना
और तुम समझ जाओ।
मैं चाहती हूं कि तुम सुन भी न पाओ
और मी टू भी कह दो।
मैं चाहती हूं कि मेरी जरूरत का अहसास
मुझसे पहले तुम तक पहुंचे।
मैं चाहती हूं कि हिचकियां तुम्हें पानी की कमी से नहीं
मेरे याद करने पर ही आएं।
मैं चाहती हूं कि मेरे दिल में गहराते जा रहे सन्नाटों को पहचानो तुम
और उन्हें मिटाने के लिए हर रोज गिटार की धुन पर एक नया गीत सुनाओ।
मैं चाहती हूं कि तुम ये समझो कि तुम्हारा मेरे पास होना
आसमान के जमीन से मिल जाने जैसा जादुई है मेरे लिए
मैं चाहती हूं कि तुम ये जादू मुझे हर रोज दिखाओ।
तुम कह सकते हो कि तुम्हारे भी अपने एफर्ट्स रहे हैं
मगर मैं फिर भी यही कहूंगी कि तुम हमेशा से एफर्टलेस थे
अब मैं
तुम हो जाना
चाहती हूं।
सोमवार, 16 जनवरी 2017
नरेश सक्सेना की तीन जरूरी कविताएं
बहते हुए पानी ने
हवा के चलने से
बादल कुछ इधर-उधर होते हें
लेकिन कोई असर नहीं पड़ता
उस लगातार काले पड़ते जा रहे आकाश पर
मुझे याद आता है बचपन में घर के सामने तारों से लटका
एक मरे हुए पक्षी का काला शरीर
मेरे साथ ही साथ बड़ा हो गया है मेरा डर
मरा हुआ वह काला पक्षी आकाश हो गया
पत्थरों पर निशान छोड़े हैं
अजीब बात है
पत्थरों ने पानी पर
कोई निशान नहीं छोड़ा।
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
दीमकों को
पढ़ना नहीं आता
वे चाट जाती हैं
पूरी
क़िताब
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
बादल कुछ इधर-उधर होते हें
लेकिन कोई असर नहीं पड़ता
उस लगातार काले पड़ते जा रहे आकाश पर
मुझे याद आता है बचपन में घर के सामने तारों से लटका
एक मरे हुए पक्षी का काला शरीर
मेरे साथ ही साथ बड़ा हो गया है मेरा डर
मरा हुआ वह काला पक्षी आकाश हो गया
बुधवार, 11 जनवरी 2017
दिमाग के रिसाइकिल बिन से
डियर जिंदगी
अक्सर सांसें लेते हुए भी तुम साथ नहीं होती हो और कुछ दिन पहले ऐसा हुआ कि सांसें रुकने ही वाली थीं कि तुमने आकर हाथ पकड़ लिया।
स्कूटी से एक छोटा-सा एक्सीडेंट इस बड़ी सी दुनिया की बहुत छोटी सी घटना थी, लेकिन इस छोटे से जेहन में इस घटना के ओर-छोर इतने बड़े होकर बाहर आए कि दिलो-दिमाग हिल गया। मुझे याद आया एक बार किसी ने मुझसे कहा था, 'क्या दीवान साहब छोटी-छोटी बात पर परेशान हो जाती हो, बड़े झटके कैसे झेलोगी।' कुछ बातें कैसे दिमाग के फोल्डर में हमेशा के लिए पेस्ट हो जाती हैं। डिलीट का बटन दबा दो फिर भी कहीं न कहीं कभी न कभी रिसाइकिल बिन से बाहर निकलकर फिर अपनी जगह बना लेती हैं। ये बात भी उन्हीं बातों में से एक है।
एक झटका लगा और फिर चार दिन बिस्तर पर। वैसे तो ये सुनहरा मौका है कि जितना पेंडिंग है उतना पढ़ लिया जाए, जितना सोचा है लिख लिया जाए, लेकिन मौके अक्सर हाथ से निकल जाते हैं। तो ये मौका भी निकल ही रहा है। हां कुछ पुरानी डायरियां जरूर खोलकर पढ़ी जा रही हैं। उन्हीं में से ये एक किस्सा निकला, जो कभी किसी अखबार से मैंने अपनी डायरी में नोट किया था।
फिलॉसफिकल होने का इससे बड़ा सबूत और कुछ नहीं हो सकता कि आप हर दिन मरने के बारे में सोचें और हर दिन जीने की कोशिश करें। कोशिशें अक्सर सोच को पीछे छोड़ देती हैं। मेरी सोच को भी उस कोशिश ने पीछे छोड़ दिया।
डायरी में ये किस्सा मैंने 29 सितंबर 2008 को लिखा था। आज तारीख है 11 जनवरी 2016।
डियर जिंदगी तुम्हारे होने पर ताज्जुब करना अब बेईमानी होगी।
कोशिश करती हूं कि तुम्हारे होने के साथ मैं भी हो सकूं।
''पुराणों में कथा है कि शुक्रदेव अपने पिता के साथ जंगल में एक कुटिया बनाकर रहते थे, जब वे अभी छोटे थे, तो खेल-खेल में एक दिन उन्हें ख्याल आया कि अपनी कुटिया के बाहर गुलाब का पौधा लगाना चाहिए। खोजबीन
करके वह कहीं से गुलाब के एक-दो पौधे लाए और उन्हें कुटिया के बाहर क्यारी में रोप दिया। नित्य नियम से वे उन पौधों को सींचते, उनकी छंटाई करते और धूप से बचाने का प्रबंध करते। कुछ दिन बाद गुलाब की कली दिखाई देने लगी, लेकिन उसकी तुलना में कांटे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहे थे। उन्होंने सोचा कि गुलाब खिलने में देर लगेगी, तब तक तो ढेरों बड़े-बड़े कांटें उग आएंगे। यह सोचकर शुक्रदेव ने पौधों की देखभाल करनी छोड़ दी।
तीमारदारी के अभाव में गुलाब के पौधे धीरे-धीरे मुरझाने लगे और आखिरकार सूख गए। पिता ने शुक्रदेव से पूछा कि उन्होंने पौधों की देखभाल एकाएक बंद क्यों कर दी। शुक्रदेव बोले- इनमें फूलों की अपेक्षा कांटें अधिक तेजी से बढ़ रहे थे, जो चुभते थे इसलिए मैंने पौधों की देखभाल छोड़ दी।
शुक्रदेव का जवाब सुनकर पिता मुस्कुराए और समझाया-
तुमने कांटों के भय से पौधों की देखभाल छोड़ दी, इसी कारण वे सूख गए, कांटों के भय से हर कोई ऐसा ही करता रहा, तो गुलाब कैसे खिलेंगे।''
अक्सर सांसें लेते हुए भी तुम साथ नहीं होती हो और कुछ दिन पहले ऐसा हुआ कि सांसें रुकने ही वाली थीं कि तुमने आकर हाथ पकड़ लिया।
स्कूटी से एक छोटा-सा एक्सीडेंट इस बड़ी सी दुनिया की बहुत छोटी सी घटना थी, लेकिन इस छोटे से जेहन में इस घटना के ओर-छोर इतने बड़े होकर बाहर आए कि दिलो-दिमाग हिल गया। मुझे याद आया एक बार किसी ने मुझसे कहा था, 'क्या दीवान साहब छोटी-छोटी बात पर परेशान हो जाती हो, बड़े झटके कैसे झेलोगी।' कुछ बातें कैसे दिमाग के फोल्डर में हमेशा के लिए पेस्ट हो जाती हैं। डिलीट का बटन दबा दो फिर भी कहीं न कहीं कभी न कभी रिसाइकिल बिन से बाहर निकलकर फिर अपनी जगह बना लेती हैं। ये बात भी उन्हीं बातों में से एक है।
एक झटका लगा और फिर चार दिन बिस्तर पर। वैसे तो ये सुनहरा मौका है कि जितना पेंडिंग है उतना पढ़ लिया जाए, जितना सोचा है लिख लिया जाए, लेकिन मौके अक्सर हाथ से निकल जाते हैं। तो ये मौका भी निकल ही रहा है। हां कुछ पुरानी डायरियां जरूर खोलकर पढ़ी जा रही हैं। उन्हीं में से ये एक किस्सा निकला, जो कभी किसी अखबार से मैंने अपनी डायरी में नोट किया था।
फिलॉसफिकल होने का इससे बड़ा सबूत और कुछ नहीं हो सकता कि आप हर दिन मरने के बारे में सोचें और हर दिन जीने की कोशिश करें। कोशिशें अक्सर सोच को पीछे छोड़ देती हैं। मेरी सोच को भी उस कोशिश ने पीछे छोड़ दिया।
डायरी में ये किस्सा मैंने 29 सितंबर 2008 को लिखा था। आज तारीख है 11 जनवरी 2016।
डियर जिंदगी तुम्हारे होने पर ताज्जुब करना अब बेईमानी होगी।
कोशिश करती हूं कि तुम्हारे होने के साथ मैं भी हो सकूं।
''पुराणों में कथा है कि शुक्रदेव अपने पिता के साथ जंगल में एक कुटिया बनाकर रहते थे, जब वे अभी छोटे थे, तो खेल-खेल में एक दिन उन्हें ख्याल आया कि अपनी कुटिया के बाहर गुलाब का पौधा लगाना चाहिए। खोजबीन
करके वह कहीं से गुलाब के एक-दो पौधे लाए और उन्हें कुटिया के बाहर क्यारी में रोप दिया। नित्य नियम से वे उन पौधों को सींचते, उनकी छंटाई करते और धूप से बचाने का प्रबंध करते। कुछ दिन बाद गुलाब की कली दिखाई देने लगी, लेकिन उसकी तुलना में कांटे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहे थे। उन्होंने सोचा कि गुलाब खिलने में देर लगेगी, तब तक तो ढेरों बड़े-बड़े कांटें उग आएंगे। यह सोचकर शुक्रदेव ने पौधों की देखभाल करनी छोड़ दी।
तीमारदारी के अभाव में गुलाब के पौधे धीरे-धीरे मुरझाने लगे और आखिरकार सूख गए। पिता ने शुक्रदेव से पूछा कि उन्होंने पौधों की देखभाल एकाएक बंद क्यों कर दी। शुक्रदेव बोले- इनमें फूलों की अपेक्षा कांटें अधिक तेजी से बढ़ रहे थे, जो चुभते थे इसलिए मैंने पौधों की देखभाल छोड़ दी।
शुक्रदेव का जवाब सुनकर पिता मुस्कुराए और समझाया-
तुमने कांटों के भय से पौधों की देखभाल छोड़ दी, इसी कारण वे सूख गए, कांटों के भय से हर कोई ऐसा ही करता रहा, तो गुलाब कैसे खिलेंगे।''
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