मुझे धूप पसंद है, उसने कहा
था।
और मैंने तपाक से उसके मुंह की बात छीनकर कर उसे भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था, '' छि तुम्हें धूप पसंद है, मुझे तो बारिश पसंद है''
और फिर उसने भी तुरंत मेरी बात को लपक कर कहा था, ‘’मुझे बारिश बिलकुल पसंद नहीं है।‘’
वैसे बातें करने में मैं खुद भी बहुत माहिर हूं, लेकिन उसके तर्कों के आगे जीतना
अक्सर मेरे लिए मुश्किल हो जाता था। उस दिन भी उसने मुझे बारिश के सैकड़ों नुकसान
और धूप के हजारों फायदे गिना दिए थे। जवाब में मेरे पास सिर्फ वही घिसी-पिटी
नॉनसेंस बकवास थी, जिसमें बारिश के होने से दो दिलों का धड़कना, किसी के लिए
तड़पना और तन-मन में कुछ-कुछ होना शामिल था। हमारी बहस में कौन जीता, ये बताने के
लिए किसी जज की जरूरत नहीं थी, क्योंकि हर बार की तरह उसकी जीत तय थी। और फिर उसने भी तुरंत मेरी बात को लपक कर कहा था, ‘’मुझे बारिश बिलकुल पसंद नहीं है।‘’
हारना यूं तो किसी को भी
पसंद नहीं होता, लेकिन मुझे हारने से सख्त चिढ़ है। मैं हार बर्दाश्त ही नहीं कर
सकती। उससे बात करने की सबसे खास और दिलचस्प बात ही ये थी कि उससे बातों में हारकर
भी मुझे बुरा नहीं लगता था। ऐसा इसलिए होता था कि मैं हार कर भी जीत जाती थी, आखिर
बिना कोई किताब पढ़े, बिना घंटों इंटरनेट पर आंखें गड़ाए मुझे इतनी सारी बातें जो
पता चल जाती थी। चलते-फिरते विकीपीडिया की तरह था वो। अब इससे पहले कि आपका ध्यान असल
मुद्दे से ज्यादा इस बात पर जाए कि वो कौन था तो वो मेरा एक दोस्त था। जिससे अक्सर
साहित्य, राजनीति, शहर, समाज, देश, दुनिया, प्यार और सपने जैसे विषयों पर घंटों
चर्चा हुआ करती थी। अब काफी समय से बात नहीं हुई है इसलिए लिखते वक्त वाक्यों में
भूतकाल का भावना आ गई। अब मुद्दा यहां हमारी बातें या दोस्ती नहीं है, मुद्दा है
बारिश और धूप।
मुझे हमेशा से बारिश बहुत पसंद रही है। हालांकि ऐसा भारत में कई लोगों के साथ है और खासकर लड़कियों के साथ। हो सकता है कि बॉलीवुड की फिल्मों का असर हो। लेकिन ऐसा सच में है।
चलो, अब बारिश का पसंद होना या न होना अपनी जगह है, लेकिन किसी को धूप पसंद है, ये बात समझना मेरे लिए अब से पहले तक काफी मुश्किल था।
कहते हैं न वक्त बड़ी चीज है।
सब समझा देता है। हर बात और हर जज्बात। पिछले कुछ दिनों में काफी कुछ ऐसा हुआ
जिसने मेरी सोच को या कहिए कि पसंद पर ही प्रश्नचिंह् सा लगा दिया है। अब ये सोचने
से पहले कि मुझे बारिश पसंद है, खुद को भीतर से कई बार खंगालना पड़ता है।
हाल ही में हम वैष्णो देवी
की यात्रा पर गए। वहीं से कुछ किमी की दूरी पर एक पहाड़ी एरिया है पटनीटॉप। हर तरफ
पहाड़ और हरियाली। जरा सा सिर ऊपर उठाओ तो लगता है कि बादल आपको छूकर जा रहे हैं।
कहीं लगता कि पेड़ों ने बादलों की टोपी पहन रखी है। कहीं लगता है कि पहाड़ बादलों
का कंबल ओढ़कर सो गए हैं। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वहां मौसम बदल रहा था एक पल में
बारिश होती थी, एक पल में रुक जाती थी। दिल्ली के 47 डिग्री टेम्परेचर के बाद वहां
जाना किसी जन्नत से कम नहीं था। लेकिन सिर्फ एक दिन वो भी पूरा नहीं, समझ लीजिए एक
दिन के सिर्फ कुछ घंटे वहां बिताकर, पूरा समय बारिश को महसूस कर उसमें रमकर अचानक
मुझे धूप की कमी महसूस होने लगी। ऐसा लगा जैसे मुझे तुरंत एक धूप का टुकड़ा मिल
जाए और मैं उसे अपने सिर पर रख लूं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जब हम रात को तकरीबन
11 बजे वहां से लौटे तब बारिश और भी तेज हो चुकी थी। और मैं, जिसे हजार परेशानियों
में भी अगर कोई चीज खुशी दे सकती है तो वो है बारिश, वो लड़की धूप के लिए तरसते
हुए वापस लौटी थी। उस वक्त, वक्त शायद मुझे समझा रहा था कि धूप की अहमियत क्या है।
अहमियत तो शायद बारिश और
धूप दोनों की है। लेकिन फर्क ये है कि बारिश सिर्फ अमीरों का मौसम है। गरीब और
सड़क पर चलने वाले लोगों को जीने के लिए धूप चाहिए होती है। धूप में पसीना बहता है
तो उनके घर-परिवार के लोगों की जिंदगी सुकून से चलती है, लेकिन बारिश में जब घर की
छत से पानी टपकता है और कमजोर चप्पलें कीचड़ में फंसकर टूट जाती हैं तो जीना मुहाल
हो जाता है। फिर बेशक इन सब बिंबों के बीच मुझ जैसा कोई व्यक्ति अपने किराये के मकान
की बालकनी में बैठे-बैठे हाथों को जाली से बाहर निकालकर भिगोते हुए कितने ही बेमानी
ख्वाब क्यों न सजा रहा हो...
और इन सब भावनात्मक बातों
से ज्यादा अहम और बड़ी घटना उत्तराखंड में बारिश से हुई तबाही है, जिसके आगे ऊपर लिखे
सारे कारण एकदम बौने हैं...