मंगलवार, 25 सितंबर 2012

प्रेम प्रेम सब करें प्रेम करे न कोय....बर्फी की खामोशी के सुर


'वास्त‌व‌िक प्रेम मौन होता है'। अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ में ये लाइन पढ़ने के बाद मैं फूली नहीं समाई थी। आत्ममुग्ध नाम का अगर कोई शब्द होता है, तो मैं आत्ममुग्ध हो गई थी। मुझे लगा कि मैंने भी वास्तविक प्रेम किया है। मुझे ऐसा इसलिए लगा था, क्योंकि तीसरी क्लास में मुझे अपनी क्लास का एक लड़का बहुत अच्छा लगता था। जिसे मैंने ये बात कभी बताई ही नहीं। अब तक नहीं बताई, कई दफा सामने होने के बाद भी नहीं बताई। मैं चुप रही और एक बड़े लेखक के मशहूर उपन्यास में ये बात पढ़ने के बाद वो अच्छा लगना..... मुझे प्रेम की तरह लगा और अपनी ये चुप्पी.... उसी महान मौन की तरह, जो प्रेम के वास्तविक होने का सबूत होता है। हालां‌क‌ि उपन्यास पढ़ने के बाद से लेकर अब तक उस फूले न समाने वाली फील‌िंग में कई सारे छेद हो चुके थे,  क्योंक‌ि जब क‌िताबों से बाहर की दुनिया देखी तो हर तरफ प्रेम-प्रेम का शोर ही दिखाई दिया, मौन कहीं नहीं। लेकिन मेरे मौन की इस कहानी में एक क्लाइमेक्स आया, हाल ही में......अभी एक दिन पहले। मुझे अचानक महसूस हुआ क‌ि वो सारे छेद भरने लगे हैं (माफ करना यहां मैं ब‌िंब बनाते हुए शायद अत‌िवादी हो रही हूं) जानते हैं ऐसा कब और क्यों हुआ.......................ये तब हुआ जब मैंने बर्फी देखी। बर्फी ......यानी अनुराग बासु की हाल ही में आई एक फ‌िल्म ज‌िसे ‌‌‌‌ प्रियंका चोपड़ा और रणबीर कपूर ने अपने शानदार नहीं जानदार अभ‌िनय से सजाया नहीं जमाया है और उनके साथ इलेना डीक्रूज के नरेशन ने कहानी को बेहतरीन फ्लो दिया है। 'बचपन से ही मेरे लिए प्यार का मतलब था किसी के साथ हर पल जीना और साथ में ही मर जाना' , जब इलेना इस लाइन के साथ कहानी की शुरुआत करती हैं तो लगता है कि ये कहानी श्रेया(इलेना) और बर्फी (रणबीर) की है जो एक दूसरे से प्यार करते थे और किसी वजह से साथ-साथ नहीं रह पाए। फिर जब बर्फी की पहली झलक मिलती है तो न जाने क्यों चार्ली चैप्लिन की छवि दिमाग में आने लगती है। अब जब चार्ली चै‌प्लिन की छवि दिमाग में आ गई हो तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि रणबीर की अदाकारी में कुछ खास बात रही होगी। रॉकस्टार में उनकी आवाज की कहानी के बाद बर्फी में उनकी खामोशी की दास्तां को सुनना, देखना और महसूस करना उनके अभिनय के कई रंगों का साक्षी होने जैसा है। (बेशक मुझे निजी तौर पर रणबीर बहुत ज्यादा पसंद नहीं हैं)। काफी देर तक फिल्म में रणबीर और इलेन के परिवार, उनका मिलना, प्रेम करना और बिछड़ना देखते हुए ये सवाल उठता रहता है कि फिल्म में प्रियंका का क्या रोल होगा? क्या प्रियंका कोई साइड रोल प्ले कर रही हैं? रणबीर, इलेन के साथ हैं तो प्रियंका किसके साथ होंगी। बिल्कुल एक आम दर्शक की तरह ये सारे सवाल सामने आ ही रहे थे कि फिल्म में एक तसवीर के साथ ‌प्रियंका का नाम सामने आता है-झिलमिल। दार्जिलिंग के बेहद अमीर आदमी की नाती जिसे ऑटिस्टिक होने की वजह से उसके मां-बाप अनाथालय भेज देते हैं, लेकिन उसके नाना पूरी जायदाद उसके ही नाम करके मर जाते हैं और फिर शुरू होती है झिलमिल की असली कहानी। जिस तरह से झिलमिल का ‌रोल लिखा गया है बिल्कुल उसी तरह ‌इस फिल्म में बेहद सादगी के साथ प्रियंका के खूबसूरत फीचर्स का इस्तेमाल भी हुआ है। इसके‌ लिए मेकअप आर्टिस्ट को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। सच मानिए तो मेरे लिए फिल्म का असली मतलब तभी शुरू होता है जब ‌फिल्म में झिलमिल की एंट्री होती है। हालांकि काफी देर तक झिलमिल फिल्म के एक अलग हिस्से के रूप में ही रहती है। लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, कहानी की पूरी बागडोर उस अलग हुए हिस्से पर ही आ जाती है। बर्फी के पिता की बीमारी, पैसों की तंगी में बर्फी का झिलमिल को किडनैप करना और फिर झिलमिल के पिता का उसे किडनैप करवाना और इस सस्पेंस, कॉमेडी और थ्रिल के बीच ‌धीरे से, चुपके से कहीं झिलमिल और बर्फी की लव स्टोरी की शुरू होना बिल्कुल मौन की तरह देखने वाले को धीरे-धीरे अपनी तरफ खींचने लगता है। इस बीच में रणबीर की खामोशी को म्यूजिक बीट्स के जरिए जिस तरह दिलों में उतारा गया है उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। झिलमिल और बर्फी की प्रेम कहानी दो लोगों की एक ऐसी कहानी है जो बोल और सुन नहीं सकते। इस मजबूरी की मिट्टी पर प्रेम को पनपाने के लिए जिस तरह के बिंब दिखाए गए हैं उन्हें बेहतरीन क्रिएटिविटी की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक दूसरे को शीशे से परछाई बनाकर बुलाना, हाथ की कनी उंगली में उंगली डालकर एक दूसरे की नजदीकी को महसूस करना, दूसरे लोगों से अलग होते हुए भी एक आम जिंदगी जीने की सारी कोशिशों को अंजाम देना। जो झिलमिल टॉयलेट जाने से पहले नाड़ा बर्फी से खुलवाती है वो प्यार में होकर साड़ी बांधने की प्रेक्टिस करने लगती है, जो झिलमिल हर काम के लिए नौकरों पर निर्भर थी वो दिल से पति मान चुके बर्फी के लिए खाना बनाती है और खाने खाते हुए उसे एक आम देहाती औरत की तरह पंखे से हवा करती है। इन सारे छोटे-छोटे दृश्यों ने मिलकर कई बार कहानी के भीतर पैदा हो रहे सीलेपन को दर्शक की आंखों तक पहुंचाया और फिर अचानक ही बर्फी की खामोश कॉमेडी से होंठो पर सरका दिया। इस बीच इलेना का नरेशन कहानी में जारी रहा और साथ ही उसकी अपनी कहानी भी। बेशक कहानी में लव ट्राइंगल था, लेकिन यहां असल प्यार वहीं नजर आया जहां लोग सामान्य नहीं थे यानी झिलमिल और बर्फी। इलेना जो सामान्य लड़की थी औरबर्फी से प्यार करती थी कभी उस प्यार को चुन नहीं पाई। क्योंकि चुनने से पहले उसने काफी सोचा, मां को बताया, मां से पूछा और मां(रूपा गांगुली) ने एक आदर्श भारतीय नारी की तरह उसे अपने नक्शे कदम पर चलने के ल‌िए कहा। अपने नक्शे कदम यानी एक अच्छे खासे शरीर और पैसे वाले आदमी से शादी करने के ल‌िए। मां को मंजूर था कि जिस तरह वो बुढ़ापे तक अपने प्रेमी को ‌छुप-छुप कर देखती हैं उसके ख्याल पालती है उसकी बेटी भी इस तरह जिंदगी जी लेगी, लेकिन लोगों को दिखाने के ल‌िए, सो कॉल्ड सामान्य जिंदगी जीने के लिए उसे एक सामान्य ‌इनसान से ही शादी करनी चाहिए। यही होता भी है, लेकिन मां और बेटी की कहानी में एक टिवस्ट ये है कि इलेना छिप-छिप कर नहीं पूरी हिम्मत के साथ शादी के छह साल बाद अपने प्यार को चुनती हैं, लेकिन छह साल असामान्य कहे जाने वाले लोगों के लिए सामान्य नहीं होते। तब तक बर्फी झिलमिल का हो चुका होता है और जिस ख्वाहिश को मन में पाले हुए इलेना बड़ी होती हैं ('बचपन से ही मेरे लिए प्यार का मतलब था किसी के साथ हर पल जीना और साथ में ही मर जाना') वो ख्वाहिश झिलमिल और बर्फी की प्रेम कहानी में आकर पूरी होती है, बस जहां इलेना होना चाहती थी वहां झिलमिल होती है जिसने कभी कुछ नहीं सोचा था बस किया था, प्रेम। उसने होने के बाद किया था या करने के बाद हो गया था ये हम सब सामान्य कहे जाने वाले लोगों के अपने अपने सेंस ऑफ ह्यूमर पर निर्भर करता है। फिल्म पूरी तरह दर्शक को बांधे रहती है और अंत में शायद उन सारे सामान्य लोगों को शर्म‌िंदा कर जाती है जो हर वक्त प्रेम प्रेम का राग अलापते रहते हैं।

Moral of the Story for Me

  • सबसे पहली और जरूरी बात ये कि जिन लोगों को सामान्य कहा जाता है वही सबसे ज्यादा असामान्य हैं।
  • दूसरी बात ये कि आज के समय में अनुकूल माहौल न होने की वजह से प्रेम डायनासोर की तरह लुप्त हो सकता है। इस पर पाश का एक शेर भी आपके साथ बांटा जा सकता है जो मुझे भी किसी ने सुनाया था 'जिंदगी  ने जिन्हें बनिया बना दिया वो क्या इश्क फरमाएंगे'।
  • फिर ऑटिज्म जैसी बीमारी पर एक गरीब बाप को पूरी शिद्दत से अपने बच्चे को पालना और पूरी तरह से समृद्ध परिवार के लोगों को अपनी फूल सी बच्ची को समाज और सामाजिकता के चक्कर में अनाथालय भेज देना जैसे आधी भावनाओं का कत्ल अमीर होते ही हो जाता है। 
  • जाते-जाते इस फिल्म ने मेरी यादाश्त के एक और कोने पर रोशनी डाली और मुझे ख्याल आया संजीव कुमार और जया बहादुड़ी अभिनीत फिल्म कोशिश का जो एक गूंगे बहरे प्रेमी जोड़े की कहानी थी। काफी छोटी थी मैं जब टीवी पर ये फिल्म देखी थी। तब शायद बहुत सारे अहसासों की परिभाषा भी पता नहीं था लेकिन तब भी बिन बोली भावनाओं को देखना मुझे बहुत अच्छा लगा था। इस लिहाज से बेशक बर्फी बॉलीवुड का कोई नया अजूबा नहीं है, लेकिन संवेदनाओं का एक नया प्लेटफार्म जरूर है उन लोगों के लिए जो "कोशिश" तक नहीं पहुंच सकते "बर्फी " के स्वाद से ही समझ सकें शायद।
  • और सबसे आखिरी में - 'प्रेम के बारे में सोचना नहीं चाह‌िए..उसे सिर्फ करना चाह‌िए।'


शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

भाषा पर डिप्लोमेसी क्यों भाई


अपनी जेब से दस रुपये का नोट निकालिए (नोट 50 या 100 का भी चल सकता है, लेकिन बढ़ती महंगाई में ज्यादा दिल क्यों दुखाएं) अब इस नोट पर ढूंढिए कि कितनी भाषाओं में दस रुपये लिखा है। हिंदी और अंग्रेजी में लिखा दस रुपये तो आपको तुरंत दिख जाएगा। मगर जरा गौर करेंगे तो बांयी तरफ 15 अन्य भाषाओं में भी दस रुपये लिखा होगा। 15 अन्य भाषाएं बोले तो असमी, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत‌, तमिल, तेलुगु और उर्दू। बात की शुरुआत ही इस बात से करने का मकसद ये है कि इस बात पर मैंने भी हाल ही में गौर किया है कि इंडियन करंसी शायद अपने आप में इकलौती ऐसी करंसी है, जिस पर 17 भाषाएं लिखी हुई हैं। एक देश और 17 भाषाएं। इस विविधता को ही भारत की पहचान माना जाता है, बेशक अब इसमें बसने वाली एकता धीरे-धीरे टूट रही हो। जिस देश में इतने सारे अलग-अलग तरह के लोग हों वहां इतनी सारी भाषाओं का होना हैरान नहीं करता। हैरान करती हैं हिदीं दिवस जैसी तारीखें और इन तारीखों के कर्ता-धर्ता यानी हमारे रहनुमाओं के लगातार अंग्रेजी में गिगियाते भाषण और घोषणाएं। डिप्लोमेसी के मामले में भारत भी पाकिस्तान से कुछ कम पीछे नहीं है। फर्क सिर्फ इतना है कि पाकिस्तान आतंकवाद जैसे खतरनाक और गंभीर मुद्दे पर भी डिप्लोमेसी की चाल चलकर खुद को शातिर समझता है औऱ भारत भाषा जैसे सरल से विषय को भी अपनी डिप्लोमेसी में लपेटकर अपनी विश्व की उभरती ताकत बनने वाली छवि को मटमैला कर देता है। जब जिस देश के संविधान में बाकायदा एक भाषा को अपनी राष्ट्र भाषा बना लिया गया है लोगों को हिंदी वासी के तौर पर पहचान दी गई है वहां बात-बात पर हर काम-काज में अंग्रेजी क्यों हावी हो रही है। मैं यहां ये सब इसलिए नहीं लिख रही कि मैं अंग्रेजी के खिलाफ हूं बल्कि मैं इसलिए लिख रही हूं क्योंकि मैं खिलाफ हूं ऐसी व्यवस्था के जहां कहा कुछ जाता है और किया कुछ औऱ जाता है। मैं खिलाफ हूं या शायद हर वो शख्स खिलाफ है इस दोगुली नीति के जो अपनी मूल पहचान से प्यार करता है औऱ चाहता है कि उसकी पहचान को उसी रूप में पहचान मिले जिस रूप में वो है। अमेरिका से लेकर चीन तक बोलचाल से लेकर कामकाज, यहां तक कि चीन में तो इंटरनेट विंडोज और तमाम सॉफ्टवेयर तक उनकी अपनी भाषा में बने हैं न अंग्रेजी न कोई और भाषा। मान लिया जाए कि भारत में सिर्फ हिंदी ही नहीं कई क्षेत्रीय भाषाएं हैं और कुछ प्रदेशों में लोग हिंदी को बिल्कुल नहीं समझते तो फिर मैं बात को यहीं खत्म करते हुए ये कहना चाहूंगी कि हिंदी दिवस मनाना या हिंदी को राष्ट्रभाषा कहना बंद किया जाना चाहिए तुरंत प्रभाव से, क्योंकि हम भारत के युवा वही देखना चाहते हैं जो सच में है न कि वो जो कभी था ही नहीं और न ही कभी हो सकता है।
14 सितंबर 2012 

शनिवार, 8 सितंबर 2012

कविता में नयी प्रेम कहानियां

1)
मैं तुमसे प्यार करती हूं
.
मैं तुमसे प्यार करता हूं
.
.

कुछ कदम बाद
मुझे प्यार से नफरत है
.
मैं प्यार से नफरत करता हूं

2)
दो अजनबी
एक दूसरे को
पहचानना चाहते थे
प्यार करना चाहते थे
एक दूसरे से
हर ऐसी वजह को मिटा देना चाहते थे
जिससे
नफरत का निशान भी बने
रिश्ते की चादर पर
करीब दस साल बाद
आज के समय में
दो अजनबी
डरते हैं
एक दूसरे को पहचानने से
वो डरते हैं कि कहीं
प्यार न हो जाए
वो हर ऐसी वजह को
दूर हटाना चाहते हैं
जिससे मन की मिट्टी पर
प्यार के पौधे को पनपने का
मौका मिले।

3)
हम थक चुके हैं
प्यार कर-कर के
और उसके बाद
दिल में नफरत भर-भर के
आओ, एक-दूसरे से नफरत करने के लिए
और एक-दूसरे को धोखा देने के लिए
हम एक-दूसरे के करीब आएं अब।



शनिवार, 1 सितंबर 2012

दो टुकड़े दिल

घर से निकलने से पहले मां

के सवालों का जवाब दिया

दफ्तर में बॉस की बातों का

दोस्तों के साथ

उन्ही की हां में हां

और न से न

मिलाई

मामी, बुआ, चाची, भैया और भाभी

के भी थे कुछ सवाल

जिन्हें पल भर में सुलझा दिया

हर बार

कितने दिनों तक सवालों में ठनती रही रार

मगर जवाबों ने बाजी मार ली हर बार

आज लेकिन सवाल सख्त था

जवाब पस्त था

आज अपने ही दिल ने

अपने ही दिल से पूछी

थी एक बात

क्यों री छोरी

कहां से आए हैं ..

किसके लिए हैं.. ये जज्बात

सवालों के साथ

सलाह भी मुफ्त थी

न चाहते हुए भी..

न जाने क्यों

बार-बार

चीख-चीख कर

कह रहा था

भटक मत...भटक मत

तुझे सिर्फ एक राह जाना है

उस एक ही को अपनाना है

उसी से करनी है दिल की सारी बात

...

...

और फिर अचानक

पता ही नहीं चला

कब एक दिल दो टुकड़ों में बंट गया

एक हमेशा के लिए सवाल बन गया

और दूसरा जवाब बनने की कोशिश में

मर गया...

लड़की के दिल की किस्मत भी

लड़की जैसी ही...।



कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...