मंगलवार, 21 अगस्त 2012

मैं एक औरत हूं

1)

मैं उस पर
कभी नहीं कर पाई पलट कर वार
सिर्फ इसलिए नहीं कि औरत हूं
और
मेरे कमजोर अंगों में हिम्मत नहीं
उस जितनी,
मगर इसलिए कि
मुझ पर वार करने वाला
पहले मेरा पिता था
और फिर
पति।
पिता... जो जीवनदाता है
और पति.. जिसे परमेश्ववर कहा जाता है

2)

मेरा वजन लगातार
कम हो रहा है
और कंधे झुकते जा रहे हैं
संस्कारों का कैसा बोझ है ये

3)
एक औरत चांद पर    
कदम रख चुकी है
और मैं
मेरे कदम
मेरे कदम तो...
जमीन पर भी
लड़खड़ाते हैं
जब भी कोशिश करती हूं चलने की
अपनी तरफ।

4)

एक औरत देश चला चुकी हूं
और मैं ...
मैं तो अपना तथाकथित घर भी
हर रोज टूटते देखती हूं
हिंदु-मुस्लिम दंगों से भी बड़ी जंग
छिड़ती है हर रोज यहां
मंदिर टूटता है
जलता चूल्हा मेरे ऊपर फेंका जाता है
टूटे फूलदानों को हर सुबह फिर करीने से सजाती हूं मैं
मगर
यहां कभी
लागू नहीं होती एमरजेंसी।

5)

एक औरत कर चुकी है एवरेस्ट की चढ़ाई
और मैं नहीं चढ़ पाती
कचहरी, महिला आयोग या फिर किसी एनजीओ की
सीढियां भी।

6)
एक औरत की कलम ने
खोल दी है बड़े-बड़े सरकारी घोटालों की पोल
मगर
मैं नहीं खोल पाती अपने होंठ भी
जब एक कठपुतली की तरह मुझे
सिर्फ बेटी, पत्नी और
औरत हो जाना होता है
एक इनसान होने से भी पहले।

7)

कुछ औरतें सुना है..खेल रही हैं
कई तरह के खेल
हॉकी से लेकर कुश्ती तक
और
मैं...
मै...अभी तक
जिंदगी के खेल
में फिल्डिंग की कर रही हूं बस

8)
एक औरत ने कत्ल कर दिया है अपने पति का
एक औऱत दूसरे आदमी के साथ भाग गई है
एक औरत ..
एक औरत..
मैं इन औरतों में शामिल नहीं हूं
अब तक
मैं भी औरत हूं
लेकिन एक खालिस औरत।
अब भी हूं मैं इन औरतों के बीच
अपने जैसी कई सारी खालिस औरतों के साथ
चांद,देश,एवरेस्ट या ओलंपिक
एक और सिर्फ किसी एक-एक औरत की जिंदगी में ही है बस
कितनी ही तो हैं
अब भी बस बेबस।
मैं वही बेबस औरत हूं
इसलिए नहीं कि औरत हूं
इसलिए कि मैं खालिस औरत हूं।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

गाली, गोली और गैंग्स ऑफ सो मैनी रियल्टीज(2)

यार तू देखिओ इसका तीसरा पार्ट भी आएगा। 
...अबे तुझे कैसे पता
यार मैं कह रहा हूं न..
अभी रामाधीर सिंह का बेटा जिंदा है..
और डेफिनेट भी तो है...
अब वो राज करेगा वासेपुर में
..अबे हां यार ...तीसरे पार्ट में और भी मजा आएगा
अब डेफिनेट बताएगा...
.
.
.
गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट-2 देखने के बाद लौटते हुए ऑटो में तीन 14-15 बरस के लड़कों की बातचीत  कुछ इसी तरह की थी। अब इसके बाद और वो भी फिल्म रिलीज होने के इतने दिन बाद समीक्षा लिखने का कोई बहुत ज्यादा औचित्य नहीं लगता। मगर ये फिल्म का ही असर है कि कह के लेना जरूरी लगता है...तो सोचा कुछ कह दिया जाए....

‌‌स‌िनेमा के इतिहास में ये फ‌‌िल्म ‌क‌ितना याद की जाएगी इस बारे में तो शायद वक्त ही बताएगा मगर ‌‌‌बॉलीवुड में ‌फ‌िल्मों के ‌‌स‌िक्वल की जब भी बात होगी तो गैंग्स ऑफ वासेपुर का ‌ज‌िक्र जरूर ‌क‌िया जाएगा। बॉलीवुड में, ‌फ‌िर हेरा-फेरी के बाद गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 ही ऐसी ‌फ‌िल्म लगती है जो सच में स‌िक्वल के मायनों पर खरी उतरती है। ‌‌स‌िक्वल यानी जो पहली कहानी को पूरा करे ...और गैंग्स इस परख को पूरा करती है

सरदार खान को ‌क‌िसने मारा? 
बंगालन ने ‌क‌िसे फोन ‌करके सरदार खान के बारे में बताया?
दान‌िश और फैजल में से कौन लेगा सरदार खान की मौत का बदला?
रामाधीर  क्या सेकेंड पार्ट में भी एक शांत शात‌िर नेता बना रहेगा या उसका खून भी खौल जाएगा और वो भी कह के लेने की ‌ह‌िम्मत जुटा पाएगा ?
गोली-गाली और बदले की इस लड़ाई के बीच कैसे ‌ख‌िलेगी मौसीना और फैजल की प्योर देहाती फ्लेवर से लैस प्रेम कहानी? 
नगमा खातून के रोल में ऋचा चड्डा बूढ़ी उम्र के साथ कैसे करेगी इंसाफ और फैजल के तौर पर नवाजुद्दीन ‌स‌िदद्की मनोज वाजपेयी की तुलना में ‌क‌ितना बेहतरी से ‌फ‌िल्म को संभाल पाएंगे?

इन सारे सवालों के जवाब बेहद धुआंधाड़ और चुटीले अंदाज में गैंग्स के पार्ट- 2 ने द‌िए। इसके अलावा एक टाइमलाइन की तरह ‌ज‌िस तरह इस फ‌िल्म में साल दर साल झारखंड और ‌ब‌िहार में लोहे और कोयले के काले धँधे की कलई खोली है उसे देखते हुए ही शायद असल में भी कोयले की धांधली पर कैग की ‌नई ‌रिपोर्ट सामने आ गई है। 

इस तरह के काले धंधों की राजनीत‌ि को ‌फ‌िल्म के ज‌‌रिए समझाने की सोचना और ऐसा करके ‌द‌िखाना एक ब़डा रिस्क है। इस ‌रिस्क को उठाकर अनुराग कश्यप ने क‌ितना गेन कमाया है ये तो इस ‌फ‌िल्म की चर्चा से ही मालूम हो जाता है।

इस ‌फ‌िल्म में एक आम दर्शक के ‌ह‌िसाब से तमाम ऐसी बाते हैं ज‌ो उसे ये फ‌िल्म न देखने की सलाह देती ‌द‌िखती हैं, मगर ‌फ‌िल्म रिलीज के एक हफ्ते बाद भी  इस ‌फ‌िल्म को देखने के ‌ल‌िए थ‌‌ियेटर में जुटी भीड़ इस बात का सबूत देती है क‌ि उन सारे सलाह-मशवरों को पीछे छोड़कर प‌‌ब्ल‌िक ने ये देखने में ‌द‌िलचस्पी द‌िखाई है ‌क‌ि आख‌िर तमाम आलोचनाओं के बावजूद इतनी गाल‌ियों और गोल‌ियों को फ‌‌िल्म में रखने की वजह क्या थी।
और जहां तक मुझे लगता है दर्शकों को वो वजह दिखाई भी दी और समझ भी आई।

बेशक ये फिल्म का सेकेंड पार्ट हो लेकिन इसके फसर्ट दर्शकों की भी कमी नहीं थी, ऐसे दर्शक जो जल्द से जल्द अब पहला पार्ट देखने की योजना बना रहे थे।

कहानी, अदाकारी और गाली-गोली को समझने के बाद इस फिल्म में एक और बेहतरीन चीज है। ऐसी चीज जो दर्शकों को गोली के अधाधुंध धमाकों के बाद भी सीट पर बैठे बैठे गर्दन मटकाने और शब्दों की समझ न होने के बाद भी गुनगुनाने का मौका देती है। वो चीज है इसका म्यूजिक ...
...सैंय्या काला रे...से लेकर फ्रस्टरेटियाओ नहीं मोडा तक स्नेहा खानवल्कर ने बॉलीवुड में गीतों का एक नया ट्रेंड शुरु किया है ...जहां हीरो-हीरोइन के पेड़ के आगे-पीछे घूमने या हाथ पैर हिलाकर अजीबो-गरीब डांस करने की जरूरत नहीं है। 
ये ऐसे गीत हैं जो सच में जिंदगी से जुड़ते हैं... असल जिंदगी में शायद ऐसे गीत सदियों से पत्नी और प्रेमिकाओं की जुबां पर रहे होंगे जिन्हें गुनगुना भर देना काफी है....

और फिर इस बार इस क्राइम थ्रिलर में जो एक औऱ सबसे अच्छी बात नजर आती है पहले पार्ट के मुकाबले  वो है इसमें इस्तेमाल किए गए ह्यूमर्स डॉयलॉग और हालात... जिनमें मर्डर के सीन में भी दर्शक हंसने पर मजबूर हो जाता है...

और आखिर में इस बात की चर्चा करना भी जरूरी है कि 180 रुपये खर्च करने के बाद दर्शक को मिलता क्या है..

1.
पहले पार्ट से उठे सवालों का जवाब
2.
झारखंड और बिहार में कोयला और लोहा माफिया की राजनीति का ब्योरा
3.
नायक की छवि से बिल्कुल भी मेल न खाने वाले नवाजुद्दीन सिद्दकी जैसे अभिनेता में एक उभरते नायक को देखना
4.
तीसरी बात में बाकी के सारे कलाकारों को शामिल कर भी यही कहा जा सकता है कि इस फिल्म के जरिए ये बात फिर से साबित हुई कि शाहरुख,सलमान और कैटरीना के अलावा और भी चीजें हैं जो फिल्म चला सकती हैं...और जिन्हें देखना दर्शक पसंद भी करते हैं...
5.
हटके म्यूजिक का मजा 
6.
एक शिक्षा- सिर्फ सिनेमा देखने से ही नहीं (फिल्म में रामाधीर का एक डायलॉग भी इसी तरह है)  दूसरी औरत का लालच पालने से भी लोग चूतिया बनते रहे हैं इस देश में.....

बुधवार, 15 अगस्त 2012

आजादी के लड्डु खाकर पछता रही हूं मैं

इससे पहले भी जब कभी मैंने आजादी के दिन के बारे में कुछ लिखा है तो उन लड्डुओं का जिक्र जरूर किया है जो मैंने पूरे 12 साल हर 15 अगस्त और 26 जनवरी पर खाएं हैं। बेशक मैं कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लूं मगर एक सामान्य शख्स की तरह कुछ इंसानी कमजोरियां मेरे साथ भी  हैं। लड्डु उन्हीं कमजोरियों में से एक है।
इसलिए शायद पिछले इतने सालों में जब भी मैंने आजादी के सही मायने तलाशने और उनके बारे में संजीदगी से सोचने की कोशिश की तो लड्डु का स्वाद उस पर हावी हो गया। आप सोचेंगे मेरी जिंदगी के 12 साल बीते हुए तो  11 साल का वक्त निकल गया फिर.. 11 साल मैं क्या करती रही..दरअसल मेरी मां टीचर हैं तो मेरा स्कूल खत्म होने के बाद भी घर पर लड्डुओं का आना जारी रहा और इसलिए मुझ पर मेरी कमजोरी का हावी होना भी...
खैर
इस बार मैंने इस पर काबू किया है...बिल्कुल वैसे ही जैसे लड़कियां अपनी दूसरी तमाम कमजोरियों पर काबू करती रहती हैं न जाने कितनी बार....
लड्डु न खाने से पेट में जो स्पेस खाली छूटा है वहां एक सवाल घुड़मुड़-घुड़मुड़ कर रहा है। सवाल ये कि क्या ये दिन सच में इस तरह खुश होने का है कि स्कूलों में लड्डु बांटे जाएं। छतों पर पतंग उड़ाई जाए। फिल्म देखी जाए। बाहर घूमने जाया जाए। धानी और नांरगी रंग के कपड़े पहने जाएं। फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया जाए। रंगारंग कार्यक्रम किए जाएं...?
आज इतने सालों बाद आजादी पर सोचते हुए मैंने अपनी एक कमजोरी को तो पीछे छोड़ दिया है मगर दूसरी फितरत मेरे साथ है और वो है मेरा स्वार्थ। स्वार्थ ये कि यहां मैं पूरे देश या देशवासियों की नहीं सिर्फ अपने लिए आजादी के मायनों की बात करुंगी। जानती हूं कि 65 साल बाद इन बातों का रोना रोकर कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन मैं इतने सालों तक खाए गए लड्डुओं का पश्चाताप करना चाहती हूं।
तो कहानी कुछ इस तरह है कि किताबों और किस्सों से इतर जब मैंने इस बार आजादी को समझा तो देखा कि
इस डिप्लोमेटिक आजादी की वजह से ही आज मेरे पास मेरे गांव का नाम नहीं है। वो गांव जहां शहर की आपाधापी से दूर जाकर कुछ दिन मैं सुस्ता सकूं। कोई जमीन नहीं है जिसके खेतों में मैं गर्मियों की छुट्टी में जाकर लहलहा सकूं। पुरखों की विरासत नहीं है। वो गली कूचे नहीं है जहां मेरे  दादा-परदादा रहे और पले-बढ़े। और जहां जाकर मैं उनके अस्तित्व को महसूस कर सकूं। उन पर किस्से कहानियां औऱ कविताएं लिख सकूं। विभाजन की वो टीस क्या होती है वो इस बार पहली बार मुझे महसूस हुई। शायद कहीं दबी तो पड़ी थी पर लड्डुओं ने उसे उबरने नहीं दिया।
कहां की हो तुम...ये सवाल न जाने कितने सालों से हर वक्त हर मोड़ पर पीछा करता रहता है। ... औऱ मैं कुछ ठीक-ठीक नहीं बता पाती। क्यों..क्योंकि हम मुलतानी हैं। मुलतान के रहने वाले मुलतानी.. इतना कह भर देने से ही मेरे दोस्त मुझे रिफ्यूजी कह कर चिढ़ाने लगते औऱ एक कुंठा मेरे अंदर दाखिल होती और फिर हवा के रास्ते बाहर निकल जाती। मुझे लगता रिफ्यूजी होना एक मजबूरी है कोई इतनी बुरी बात नहीं जिस पर संजीदा हुआ जाए।
लेकिन आज मैं बेहद संजीदा हूं क्योंकि इस रिफ्यूजी होने ने मुझसे मेरा इतिहास छीन लिया और इसलिए मैं अपने भूगोल को आज तक नहीं समझ पाई औऱ न ही समझा पाई....
अब आप ही बताइए कि मेरी मां का जन्म उत्तरप्रदेश के एक कस्बा नुमा शहर खुर्जा में हुआ उनका बचपन पंजाब के अबोहर में बीता। मेरे पिता जयपुर में पले-बढ़े। देहरादून में पढ़े-लिखे। हरिद्नार में बसे। और मेरा जन्म हुआ बुलंदशहर में और मैं बचपन से रही हूं गाजियाबाद में..............अगर आप मेरे इस भूगोल को समझ सकें हों तो मुझे भी एक शब्द में इस सवाल का जवाब दीजिएगा कि "मैं कहां की हूं..."सिवाए इस जवाब के जो मैंने अभी कुछ बरस पहले ही देना सीखा है.." हिंदुस्तान"
मगर फिलहाल मैं खुद ही एक कोशिश करती हूं अपने असल भूगोल को समझने की...
मुलतान, जो पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है, चेनाब नदी के किनारे।
मुलतान, जिसे सूफी और संतों का शहर कहा जाता है।
मुलतान, जो बाबा फरीद के नाम से मशहूर पंजाबी के बेहद शुरुआती दौर के कवि फरीदुद्दीन गंजशकर का जन्मस्थान है।
मुलतान, जो सिर्फ एशिया ही नहीं दुनिया के कुछ एक सबसे पुराने शहरों में से एक है।
औऱ
मुलतान, वही शहर जो आजादी के नाम पर अपनी पहचान लुटा बैठा। और मुलतानी कहे जाने वाले इसके बाशिंदे भारत का रुख कर गुमनाम हो गए क्योंकि मुस्लिम बहुल होने के कारण मुलतान को पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया....।
ये ख्याल बहुत पाक नहीं लगते जो आज मन में यूं कुलाचे मार रहे हैं। क्योंकि इतना जानती हूं मैं कि उस वक्त ब्रिटिश रुल से आजाद होना ही सबसे बड़ी परिभाषा थी आजादी की..शायद रहनुमाओं  को ख्याल ही न आया हो किसी की पहचान और गांव घर के हमेशा के लिए दफन होने का।...मगर आज इन ख्यालों को रोकना नहीं चाहती मैं... बेशक नापाक ही सही लेकिन आज आजादी के इरादे मेरे मन में कुछ नेक नहीं लगते...आज मैं आजादी के इस दिन को बेदखल कर देना चाहती हूं अपनी जिंदगी से ...

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

बिछड़ने का दिन



उस तेज बारिश वाली एक शाम हम दोनों


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए


मिलने का दिन तय कर रहे थे


कल आखिरी बार मिलेंगे


मैंने मन में सोचा था


उसे भी बताया था


और फिर हम मिले


उस दिन


और उसके बाद


बार-बार मिलते रहे


यूं ही


बिछड़ने का दिन तय करने के लिए

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...