मंगलवार, 4 मई 2010

घर लौटने का डर .......

घर लौटने का डर .......
वो लोग भी है मेरे ही आसपास
जो साल में एक दो बार ही सही
मगर
जाना चाहते है घर
यहाँ नौकरी की जद्दोजहद से दूर
कुछ पल... एक अलग तरह की
जुस्तजू में गुजारने के लिए 
जहाँ खाने की थाली में
माँ को हर बार याद आता होगा उनका झूठा बचा खाना
जो पसंद न आने से तुमने छोड़ दिया था
और उसने कहा था कि खाने का निरादर नही करते
फिर एक बाप जो अच्छा भी हो सकता है
और ऐसा भी कि जिससे आप घर पर रहते हुए बात ही न करते हो कभी
अब  जब घर जाने की सोचते है
 तो खरीद ही लेते है उसके लिए भी
 नए ज़माने का कोई मफलर
जिसमे सिर्फ गर्माहट ही नही
आपके और उसके विचारों में जमा हुआ विरोधाभास भी महसूस हो सके
घर की वही पुरानी चार दिवारी और उससे झड़ता चुना
जिसे अपनी ए सी  वाली दुनिया से लौटकर  
आप नही चाहते हो छुना
फिर भी आपका मन करता है
इस अनजान शहर से दूर जाकर
उन अपनों से मिलने का
जिनसे मिल पाने का महूरत आप का मन नही
उस  कम्पनी का मालिक निकालता  है जिसमे आप मजदूरी कर रहे है
ये सब देखकर मुझे बस येही लगता है कि
कैसे होते है ऐसे लोग  जिनका घर जाने का मन करता है
लेकिन
कुछ घर के बेहद करीब  रहने वाले ऐसे भी लोग हैं
जिन्हें घर लौटने से लगता है डर
है तो ये भी सोचने वाली ही बात कि
जहाँ इस जहाँ में घर को तरसने वाले लोगो कि कमी नही
वहां किसी को घर लौटने से लगता है डर

9 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

हमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।

संजय भास्‍कर ने कहा…

... बेहद प्रभावशाली

M VERMA ने कहा…

जिनसे मिल पाने का महूरत आप का मन नही
उस कम्पनी का मालिक निकालता है जिसमे आप मजदूरी कर रहे है

सुन्दर अभिव्यक्ति, विवशताएँ और घुटन तो नेमते हैं

Shekhar Kumawat ने कहा…

bahut khub

man ki sari bate likh di

badhaio is ke liye

अनिल कान्त ने कहा…

छा गये तुस्सी
बेहतरीन कविता लिखी है .
एक नौकरीशुदा व्यक्ति के भावों को कितनी गहराई से व्यक्त किया है ....बिल्कुल ह्रदय को छूती हुई रचना

vandana gupta ने कहा…

bahut gahan abhivyakti.

pallavi trivedi ने कहा…

जिनसे मिल पाने का महूरत आप का मन नही
उस कम्पनी का मालिक निकालता है जिसमे आप मजदूरी कर रहे है

बिलकुल सही..

Prataham Shrivastava ने कहा…

इन पंग्तियो को पढ़कर एहसास हो रहा है उन लोगो की तनाब भरी जिंदगी का जो अपनी कम्पनी मै यही सोच कर काम करते है की बस नींद आजाये और आँखे खुले तो अपने उसी पलंग पर हो जहा से दीबार पर लटकी हुई घडी इशारा कर रही हो की कंपनी मै जाने का टाइम आ गया

अति Random ने कहा…

कितनी अजीब बात है एक वक़्त ये कविता मैंने ही लिखी थी जब मैं घर के हालातों से परेशान थी और घर जाना मेरे लिए घुटन जैसा हो गया था
और अब सिर्फ एक ही तलब रहती है कब छुट्टी मिले और माँ से मिल सकूँ अपने बिस्तर पर सो सकूँ
देख सकूँ कि मेरे बिना अकेले कितनी अकेली हो गई हा माँ
कब से नही बनाया उसने खीर और हलवा
हर बात और जज्बात को सामान में पिरोने से पहले वो करती है मेरे वापस लौट आने का इन्तजार
और आज मैं भी तो
डरती नही हूँ
मरती हूँ घर जाने के लिए

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