बुधवार, 11 जनवरी 2017

दिमाग के रिसाइकिल बिन से

डियर जिंदगी

अक्सर सांसें लेते हुए भी तुम साथ नहीं होती हो और कुछ दिन पहले ऐसा हुआ कि सांसें रुकने ही वाली थीं कि तुमने आकर हाथ पकड़ लिया।
स्कूटी से एक छोटा-सा एक्सीडेंट इस बड़ी सी दुनिया की बहुत छोटी सी घटना थी, लेकिन इस छोटे से जेहन में इस घटना के ओर-छोर इतने बड़े होकर बाहर आए कि दिलो-दिमाग हिल गया। मुझे याद आया एक बार किसी ने मुझसे कहा था, 'क्या दीवान साहब छोटी-छोटी बात पर परेशान हो जाती हो, बड़े झटके कैसे झेलोगी।' कुछ बातें कैसे दिमाग के फोल्डर में हमेशा के लिए पेस्ट हो जाती हैं। डिलीट का बटन दबा दो फिर भी कहीं न कहीं कभी न कभी रिसाइकिल बिन  से बाहर निकलकर फिर अपनी जगह बना लेती हैं। ये बात भी उन्हीं बातों में से एक है।
एक झटका लगा और फिर चार दिन बिस्तर पर। वैसे तो ये सुनहरा मौका है कि जितना पेंडिंग है उतना पढ़ लिया जाए, जितना सोचा है लिख लिया जाए, लेकिन मौके अक्सर हाथ से निकल जाते हैं। तो ये मौका भी निकल ही रहा है। हां कुछ पुरानी डायरियां जरूर खोलकर पढ़ी जा रही हैं। उन्हीं में से ये एक किस्सा निकला, जो कभी किसी अखबार से मैंने अपनी डायरी में नोट किया था।
फिलॉसफिकल होने का इससे बड़ा सबूत और कुछ नहीं हो सकता कि आप हर दिन मरने के बारे में सोचें और हर दिन जीने की कोशिश करें। कोशिशें अक्सर सोच को पीछे छोड़ देती हैं। मेरी सोच को भी उस कोशिश ने पीछे छोड़ दिया।
डायरी में ये किस्सा मैंने 29 सितंबर 2008 को लिखा था। आज तारीख है 11 जनवरी 2016।

डियर जिंदगी तुम्हारे होने पर ताज्जुब करना अब बेईमानी होगी।
कोशिश करती हूं कि तुम्हारे होने के साथ मैं भी हो सकूं।


''पुराणों में कथा है कि शुक्रदेव अपने पिता के साथ जंगल में एक कुटिया बनाकर रहते थे, जब वे अभी छोटे थे, तो खेल-खेल में एक दिन उन्हें ख्याल आया कि अपनी कुटिया के बाहर गुलाब का पौधा लगाना चाहिए। खोजबीन
करके वह कहीं से गुलाब के एक-दो पौधे लाए और उन्हें कुटिया के बाहर क्यारी में रोप दिया। नित्य नियम से वे उन पौधों को सींचते, उनकी छंटाई करते और धूप से बचाने का प्रबंध करते। कुछ दिन बाद गुलाब की कली दिखाई देने लगी, लेकिन उसकी तुलना में कांटे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहे थे। उन्होंने सोचा कि गुलाब खिलने में देर लगेगी, तब तक तो ढेरों बड़े-बड़े कांटें उग आएंगे। यह सोचकर शुक्रदेव ने पौधों की देखभाल करनी छोड़ दी।
तीमारदारी के अभाव में गुलाब के पौधे धीरे-धीरे मुरझाने लगे और आखिरकार सूख गए। पिता ने शुक्रदेव से पूछा कि उन्होंने पौधों की देखभाल एकाएक बंद क्यों कर दी। शुक्रदेव बोले- इनमें फूलों की अपेक्षा कांटें अधिक तेजी से बढ़ रहे थे, जो चुभते थे इसलिए मैंने पौधों की देखभाल छोड़ दी।
शुक्रदेव का जवाब सुनकर पिता मुस्कुराए और समझाया-
तुमने कांटों के भय से पौधों की देखभाल छोड़ दी, इसी कारण वे सूख गए, कांटों के भय से हर कोई ऐसा ही करता रहा, तो गुलाब कैसे खिलेंगे।''




मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

ईरान से सीखकर भारत भी खड़ी कर रहा है दीवार

 26 दिसंबर 2016 को अमर उजाला में प्रकाशित

दिल्ली का बुराड़ी क्षेत्र 'नेकी की दीवार' के कारण चर्चा में है। यहां की हरित विहार कॉलोनी में अंग्रेज स‌िंह दहिया ने एक दीवार को नेकी के नाम कर दिया है। इसमें उनका साथ दे रहे हैं हरित विहार आर.डब्ल्यू.एसोस‌िएशन के प्रधान विजय परोदा। विजय बताते हैं, 'तीन-चार महीने पहले अंग्रेज स‌िंह ने हमसे 'नेकी की दीवार' बनाने के  बारे में बात की। सुनने में यह आइडिया नया भी था और नेक भी। हमने उनका साथ दिया। एक दीवार चुनी और उस पर पेंट से लिखवा द‌िया- 'अधिक वाले दे जाएं, जरूरतमंद ले जाएं।' कुछ ही समय में यहां कपड़े, क‌िताबें, जूते, बर्तन और बिस्तर तक जमा होने लगे। जितने लोग रखने आते, उतने ही जरूरतमंद यहां सामान लेने भी पहुंचते। अव्यवस्था न हो, इसके ल‌िए हमने एक व्यक्त‌ि की यहां ड्यूटी भी लगाई है। जिसे महीने की तनख्वाह भी दी जाती है। अब दूसरी कॉलोनियों से भी लोग यहां आने लगे हैं। अगर भविष्य में यह दीवार छोटी पड़ेगी, तो हम आर.डब्ल्यू.ए के दफ्तर में बड़ी 'नेकी की दीवार' बनाने के ल‌िए भी तैयार हैं।' 'नेकी की दीवार' दिल्ली वालों के ल‌िए नई हो सकती है, मगर राजस्थान में अब यह एक अभियान का रूप लेती जा रही है। शुरुआत हुई थी इसी साल अगस्त में। यहां भीलवाड़ा में रहने वाले वंदना नवल और प्रकाश नवल ने अपने घर के सामने बने पार्क की दीवार को ऊंची करने के ल‌िए अर्बन इंप्रूवमेंट ट्रस्ट को एक अर्जी दी। उनसे वजह पूछी गई , तो उन्होंने 'नेकी की दीवार' बनाने की बात कही। ट्रस्ट को आइडिया पसंद आया और उन्होंने इसका स्रोत पूछा, तब सामने आया ईरान। वंदना और प्रकाश ने टीवी पर ईरान की 'दीवार-ए-मेहरबानी' के बारे में एक रिपोर्ट देखी थी। साल 2015 में ईरान में बेघर और गरीबों की मदद करने के ल‌िए मशहद शहर में एक अजनबी ने इस तरह की एक दीवार बनाई थी। दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा गया था- जिनके पास जरूरत से ज्यादा है, वो इस दीवार पर टांग जाएं और जिन्हें जरूरत है, वो ले जाएं। इससे प्रेरित होकर वंदना और प्रकाश ने अपने घर के ठीक सामने नेकी की दीवार बनाने के बारे में सोचा। यूआईटी से मंजूरी मिलने के बाद कलाकार के.जी.कदम से इस दीवार को पेंट करवाया गया और नेकी का सिलसिला चल पड़ा। लोग अपनी जरूरत से ज्यादा का सामान यहां लाने लगे और जरूरतमंद ले जाने लगे। वंदना बताती हैं, ' मैं एक गृहिणी हूं। ये दीवार घर के सामने बनाने के पीछे वजह यही थी क‌ि इसका पूरा ध्यान रखा जा सके। मेरी रसोई की ख‌िड़की से दीवार साफ दिखती है। हम पत‌ि-पत्नी इसके रख-रखाव और व्यवस्था का पूरा ध्यान रखते हैं।' वंदना और प्रकाश की इस एक शुरुआत ने भीलवाड़ा ही नहीं पूरे राजस्थान में नेकी की बयार ला दी है। अकेले भीलवाड़ा में ही अब ऐसी चार दीवारें बनाई जा चुकी हैं। जयपुर भी इस सूची में शामिल हो चुका है। यूआईटी की तरफ से प्रदेश भर में इसके प्रसार को लेकर योजना बनाई जा रही है। वाराणसी, लखनऊ, झांसी, ललितपुर, चंडीगढ़, भोपाल, आगरा, गुरुग्राम और नोएडा तक भी नेकी की दीवार का यह आइडिया पहुंच चुका है। नये साल में उम्मीद की जानी चाह‌िए क‌ि यह नेक आइडिया सिर्फ सोशल मीडिया पर ही नहीं, देश भर में वायरल होगा और इंसानियत की नई मिसाल सामने आएंगी।


कराची से रोम तक                                              

ईरान के मशहद शहर से हुई 'दीवार-ए-मेहरबानी' की शुरुआत इसी साल जनवरी महीने में पाकिस्तान के कराची शहर भी पहुंची। धीरे-धीरे कराची से पेशावर, रावलप‌िंडी, लाहौर और सियालकोट तक यह संदेश गया और 'नेकी की दीवार' आकार लेती गईं। जनवरी में ही यह आइडिया चीन भी पहुंचा। यहां के ल‌िउजोउ, झेंगझोऊ और युनन प्रांत में भी 'वॉल ऑफ काइंडनेस' के नाम से नेकी का संदेश दिया जा रहा है। अफगानिस्तान के काबुल में भी मार्च महीने में 'नेकी की दीवार' बनाई जा चुकी है। रोम के मैरीमाउंट इंटरनेशनल स्कूल के बच्चों द्वारा की गई एक शुरुआत से यहां भी 'वॉल ऑफ काइंडनेस' की नींव पड़ चुकी है।



शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

दिल का ढक्कन




दिल खुलकर प्यार भी कर लेता है
और नफरत भी

मगर दिल को खोले जा सकने का कोई इंतजाम नहीं है

कोई तो दरवाजा, खिड़की या ढक्कन ही होता
जिसे खोलकर दिल में दाखिल होते और
एक झाड़ू में बुहार देते सारे कड़वे जज्बात और
नासूर सी बनती जा रही यादें

और तुम्हारे नाम पर भी मिट्टी डालकर एक पौधा उगा सकते तो
कितना अच्छा होता।

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

उदास रातें

उदास रातों में जो कविताएं लिखी जाती हैं
वो अक्सर दिन के उजाले को मैला कर जाती हैं।

उदास रातों में जो ख्वाब बुने जाते हैं।
वो जिंदगी की हकीकत को और कसैला कर जाते हैं।

उदास रातों में जिन लोगों को याद किया जाता है।
उन्हें दिन के समय य़ूं ही भुला भी दिया जाता है।

उदास रातों में जिन बातों से चेहरे पर हंसी आती है
उन्हीं बातों से दिन की रोशनी में आंखों के भीतर ही भीतर नमी आती है।

उदास रातें जो कहना चाहती हैं
उन्हें सुनने की हिम्मत दिन में कहीं खो सी जाती है।

उदास रातेॆ जब पास आकर बैठती हैं
तो उदासी दोहरी हो जाती है।
दिन भर की हंसी-खुशी कोरी हो जाती है।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

प्यार की रफ कॉपी


प्यार को उस रफ कॉपी की तरह होना चाहिए था
जिस पर बार-बार गणित के सवालों का अभ्हयास किया जाता था।

पहले मासिक परीक्षा, फिर छमाही, फिर वार्षिक परीक्षा
हर परीक्षा से पहले कितनी ही कॉपियां भर जाया करती थीं
अभ्यास करते-करते।
फिर एक दिन सारा अभ्यास रद्दी में चला जाता था।
फिर एक दिन अभ्यास का असली नतीजा सामने आता था।
प्यार को उस नतीजे की तरह ही होना चाहिए था।
जो बार-बार अभ्यास के बाद सामने आता है।

मगर प्यार गणित के सवालों की तरह सिर्फ पेचीदा ही रहा
प्यार के गणित को बार-बार अभ्यास करके हल करने का मौका नहीं मिला।

एक भी कॉपी पूरी नहीं भर पाई।

जितने भी पन्ने भरे, सब पर काटे का निशान लगाना पड़ा।
सारे सवाल गलत हल हो गए थे।

अभ्यास करने का  मौका नहीं दिया गया।
समय पूरा हो चुका था।
उत्तर पुस्तिका छीन ली गई।


नतीजा क्या होता...।





गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

तुझे ल‌िखकर, पढ़ना


तुझे पढ़कर
लिखना चाहिए था।
तुझे लिखकर
पढ़ना मुश्किल पड़ रहा है अब।


तुझे मेरी आंखों में देखना चाहिए था
एक दफा
मेरे होंठों पर ठहर जान ा  तेरा
खल रहा है अब


न किए होते तूने मुझसे वादे अगर
मैं शिकायत भी न करती
तेरा वादों से पलट जाना
अखर रहा है अब


ना ना ना करते भी
मंजूर किया है मैंने रब का हर सितम
मगर तेरे आगे अपना बिखर जाना
मुझे कसक रहा है अब

रविवार, 20 दिसंबर 2015

अकेले

'तुम्हारे साथ कोई नहीं है क्या बेटा', चौकीदार ने पूछा। 
'नहीं'। लड़की ने कहा। 
'तो यहां मत रुको, चली जाओ', चौकीदार ने समझाते हुए कहा।
'हम्म्म....बस कुछ फोटो खींचकर, थोड़ा घूमकर चली जाउंगी।'लड़की ने कहा।
'मैं इसलिए कह रहा हूं कि यहां ज्यादातर खाली ही रहता है। कुछ चरसी-नशेड़ी भी घूमते रहते हैं। अकेली लड़की हो, किसी के साथ होतीं, तो कोई बात नहीं थी।' चौकीदार ने फिर समझाया।
लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। अलग-अलग एंगल से फोटो खींचने की कोशिश की और जब देखा कि सच में एक अजीब सा लड़का उसे ही घूर रहा है, तो वहां से निकल गई।

रास्ते में उसने गुलाब के दो फूलों की तसवीर ली। 
झूला झूलते दो बच्चों की तसवीर ली। 
एक-दूसरे के पीछे भागती दो गिलहरियों की तसवीर ली। 
बैडमिंटन खेलते एक लड़का और एक लड़की की तसवीर ली। 
एक-दूसरे के गले में हाथ डाले, कंधे पर बैग लटकाए स्कूल से लौटते दो बच्चों की तसवीर ली।
उसने अपनी एक भी तसवीर में अकेलेपन को कैद नहीं किया। 
उसे खौफ होने लगा था अकेलेपन से, अकेलेपन नाम के शब्द से भी। 

घर में पिछले कई दिनों से ये एहसास उसे तंग किए था कि वो अकेली हो गई है। उसके साथ कोई नहीं है। उसके पास कोई नहीं है। इस अहसास को भगाने के लिए वो घर से निकली थी- दिल्ली की अकेली गलियों में, अकेली इमारतों को देखने। सोचा होगा, कि अपना अकेलापन वो उन वीरान सी पड़ी इमारतों के साथ बांटकर किसी के साथ होना महसूस कर सकेगी। 
काफी समय पहले उसने दिल्ली के महरौली आर्कियोलॉजिकल पार्क के बारे में पढ़ा था। गुलाब का बड़ा सा बगीचा, कई मकबरे, दो बावड़ी और एक मस्जिद होने के बावजूद भी २०० एकड़ के इस पार्क के बारे में पढ़कर उसे ये पार्क अकेला ही लगा। अपने अकेलेपन से गुजरते हुए इस पार्क का अकेलापन भी उसे याद आया। पता नहीं उसने अपने अकेलेपन को इस जगह के साथ बांटना चाहा या इस पार्क के अकेलेपन को अपने साथ। मगर वो सुबह ही घर से निकल गई अकेलेपन को जड़ से खत्म करने के मिशन पर। मगर चौकीदार के एक सवाल ने उसके सारे मिशन को फेल कर दिया था। ('तुम्हारे साथ कोई नहीं है क्या बेटा') ये सवाल उसके कानों में गूंजता ही जा रहा था।  वो फिर भारी मन से घर लौटी थी और भी ज्यादा अकेली होकर।  

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...