इनकार (2013)
प्रोड्यूसर-प्रकाश झा
डायरेक्टर-सुधीर मिश्रा
अर्जुन रामपाल
चित्रांगदा सिंह
तुम और मेरे जैसे लोग, जो प्यार के अलावा और भी बहुत कुछ चाहते हैं...क्या उनके बीच कुछ मुमकिन है…?... इसका जवाब है ‘’इनकार’’।
फिल्म शुरू होती है
सेक्सुअल हैरेसमेंट से औऱ खत्म होती है लव कन्फेशन पर। कहानी शुरू होती है बचपन की
एक सीख से और खत्म होती है, जवानी के एक सिलसिले पर। कुल मिलाकर देखें तो दो बातें
कही जा सकती हैं। या तो कहानी, फिल्म के हिसाब से हल्की थी, या फिल्म ही कहानी पर
भारी पड़ गई। इन दो बातों के बावजूद भी इस फिल्म को देखऩे से इनकार नहीं किया जा
सकता। सुधीर मिश्रा का डायरेक्शन और अर्जुन-चित्रांगदा की सुपर एक्टिंग के साथ ही
फ्रेश कांसेप्ट वाली इस फिल्म को एक बार देखना तो बनता है। अब जब एक बार आप इस फिल्म
को देख रहे होते हैं, तो आपको लगता है कि यह फिल्म एक बॉस के अपनी फीमेल एंप्लाई
को सेक्सुअल हैरेस करने की कहानी है। यानी ऐसी कहानी, जहां बॉस, एक महिला कर्मी को
कॉफी पर मिलने के बहाने होटल में बुलाता है और जबरदस्ती उसके साथ संबंध बनाता है।
इस सबके बदले महिला कर्मी को मिलता है प्रमोशन औऱ नौकरी के तयशुदा फायदों से कहीं
ज्यादा लाभ। (नोट-हर ऑफिस में बॉस इस तरह की कुछ न कुछ हरकतें जरूर करते हैं वो
शारीरिक भी हो सकती हैं, मौखिक भी और ऐसी भी, जिनकी कोई भाषा नहीं है, इसे
मद्देनजर रखते हुए हर किसी को अलग-अलग लग सकता है) मगर फिल्म की कहानी में
सेक्सुअल हैरेसमेंट का सिर्फ नाम होता है। फिल्म सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस की
सुनवाई के तीन दिनों में तीन घंटे पूरा करती है और खत्म होने पर पता चलता है कि जिन
लोगों के बीच सेक्सुअल हैरेसमेंट का केस चल रहा होता है, वो दोनों एक-दूसरे से
प्यार करते थे, हैं और शायद हमेशा करते रहेंगे। जहां प्यार हो फिर वहां कोई केस या
कोई तीसरा कुछ नहीं कर सकता। यहीं पर फिल्म खत्म हो जाती है। इसके बावजूद भी लगभग
तीन घंटे तक देखते रहने की कई वजह भी इस फिल्म में है। कहानी की लाइन से हटकर भी
फिल्म में औरत और आदमी के बीच की अलग-अलग तरह की भावनात्मक कमजोरियों को बारीकी से
दिखाया गया है। आज के समय में यह फिल्म हर उस लड़की और औरत को एक बार जरूर देखनी
चाहिए, जो जिदंगी में सच में प्यार के अलावा और भी बहुत कुछ चाहती है। जो सपने
देखती है और उन्हें पूरा करना चाहती है। जो एक औरत होकर भी टीम लीडर बनना चाहती
है। सदियों से चली आ रही उस सोच को बदलना चाहती है, जिसके मुताबिक औरतों में किसी
बड़ी पोजीशन को संभालने की क्षमता ही नहीं होती। बेशक देश और दुनिया में कई औऱतों
ने इस मानसिकता को बदला है, लेकिन आज भी कहीं न कहीं अपनी कुछ भावनात्मक कमजोरियों
की वजह से औरत को अच्छी-खासी करियर ग्रोथ को पीछे छोड़ शुरू से शुरू करना पड़ता
है। देसी-विदेशी खूबसूरत लोकेशंस की बजाए फिल्म का ज्यादातर हिस्सा एक एड कंपनी के
कांफ्रेंस रूम में शूट हुआ है। फिर भी इसमें हिंदुस्तान से लेकर न्यूयॉर्क और लंदन
तक बिखरे कुछ ऐसे रगं देखे जा सकते हैं, जो देश और वेश दोनों बदलने पर भी एक जैसे
रहते हैं। चिंत्रागदा बार-बार यह कहकर कि ‘’उस वक्त मुझे उस पर भरोसा
था, इसलिए मैंने उसे जाने दिया’’ औऱत औऱ आदमी के बीच बनने वाले विश्वास की एक बहुत महीन लकीर की तरफ देखने को
मजबूर करती हैं, जिसे बार-बार पार किया जाता है और प्यार का मामला, सेक्सुअल
हैरेसमेंट में बदल जाता है या फिर जिसे आम भाषा में नफरत और ब्रेकअप कह दिया जाता
है। क्योंकि यहां सब कुछ एक बॉस और एंप्लोई में हो रहा है, इसलिए कहानी थोड़ी अलग
लगती है, लेकिन शायद सच्चाई हर तरह से कुछ इसी तरह की है कि उस वक्त का भरोसा,
वक्त के साथ कमजोर क्यों होता जाता है। एक बात और इस पूरी फिल्म को देखने के बाद
समझ आती है। जिस पर चाहें तो हंस भी सकते हैं। ज्यादातर फिल्मों मैं जो मैंने देखा
है वो यही रहा है कि हीरो के हीरोइन को आई लव यू बोलने में ही इंटरवल हो जाता है
और फिल्म के आखिरी सीन में दोनों एक बिस्तर पर होते हैं और लाइट बंद हो जाती है। इस
फिल्म ने सोसाइटी के नए लव कल्चर को सामने रखा है। हीरो और हीरोइन एक-दूसरे के
बहुत नजदीक आ जाते है। कई बार दोनों बिस्तर पर साथ होते हैं और बत्ती बुझ जाती है।
लेकिन एक बार दोनों एक-दूसरे को आई लव यू नहीं बोलते। उनके बीच में प्यार का इजहार
होता है आई लवड यू डैमिड...आई लवड यू जैसी भूतकाल की भाषा में। बस प्यार के इस
इजहार के साथ सारी सजा, सारी दफा माफ औऱ फिल्म खत्म। रही बात बॉक्स ऑफिस रेटिंग की
तो इसे रेटिंग के हिसाब से जज नहीं किया जा सकता। ये शायद हर तरह की ऑडियंस के लिए
बनी भी नहीं है। कुछ फिल्मों को देखने के लिए एक समझ चाहिए होती है और कुछ फिल्में
खुद-ब-खुद बहुत कुछ समझा देती हैं। इनकार इन दोनों परिस्थितियों को मिलाकर देखी
जाने वाली फिल्म है। इसे देखने के लिए एक समझ चाहिए, अगर यह समझ एक दर्शक के तौर
पर आपमें है तो फिल्म खुद-ब-खुद आपको राहुल वर्सेज माया के केस की सुनवाई के जरिये
सपने और उनकी सीढ़ी वर्सेज प्यार और सेक्स का फर्क दिखा सकती है। इस फर्क को देखने
के साथ ही अगर आप फिल्म देख चुके हैं तो उस फर्क को समझना भी जरूरी है जिसमें
फिल्मों के हिट और फ्लॉप होने की वजहें बदल रही हैं। इन दिनों कुछ ऐसी भी बॉक्स
ऑफिस हिट फिल्में आई हैं, जिनमें न स्टोरी है, न कांसेप्ट, न एक्टिंग। उनमें है
सुपरस्टार हीरो, बेहतरीन लोकेशन, आइटम नंबर और तड़कते-भड़कते, नचाते-थिरकाते गाने।
इस हिसाब से इनकार में एक कहानी है, जो बेशक अपने सब्जेक्ट के साथ पूरा इंसाफ नहीं
कर पाई, लेकिन इसमें किरदार हैं, निर्देशन है, अभिनय है। इस सबसे बढ़कर घिसे-पिटे
पुराने फार्मुले या सिक्वल नंबर पर बनने वाली फिल्मों से अलग ये एक नए सब्जेक्ट पर
बनी फिल्म है। जहां तक म्यूजिक की बात है तो हजारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर
मिश्रा के साथ शुरुआत करने वाले और परिणिता जैसी फिल्मों के लिए म्यूजिक अवार्ड
जीतने वाले शांतनु मोइत्रा और स्वानंद किरकिरे की टीम का म्यूजिक और लिरिक्स भी इस
फिल्म को एक अलग टच देने में कामयाब रहे हैं।
और अंत में
-लड़कों के लिए ध्यान देने वाली एक बात
फ्लर्टेशन जब औरत को पसंद न हो तो वो हैरेसमेंट बन जाता है
-लड़कियों को समझना चाहिए
इनकार करने से पहले ये न सोचें कि कहीं मैं ओवर रिएक्ट तो नहीं कर रही! क्योंकि बाद में इनकार करने पर उसे सचमुच में ओवर रिएक्शन समझकर दरकिनार कर दिया जाता है।
इनकार करने से पहले ये न सोचें कि कहीं मैं ओवर रिएक्ट तो नहीं कर रही! क्योंकि बाद में इनकार करने पर उसे सचमुच में ओवर रिएक्शन समझकर दरकिनार कर दिया जाता है।