बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

भगवान भी कहेंगे 'ओह माई गॉड'


भगवान से मेरा पहला परिचय तब हुआ था, जब बचपन में मां और नानी.. मुझे उनसे भाई मांगने के लिए कहती थी। शायद यही कारण भी था क‌ि भगवान के बारे में मेरी पहली समझ यही बनी थी कि जो भी चीज आप चाहों, उनसे मांगने पर मिल जाती है। इसके लिए आपको पूजा करनी होती है। कुछ धार्मिक किताबें पढ़नी होती हैं। व्रत रखने होते हैं। मंदिर जाना होता है। प्रसाद चढ़ाना होता है। ज्यादा बड़ी चीज हो तो वैष्णों देवी या गुरुद्वारे की यात्रा भी करनी होती है।अब के मुकाबले देखें तो बचपन जिंदगी का बहुत संतुष्ट पड़ाव था। लेकिन बचपन में जाकर याद करुं... तो उस वक्त भी बहुत सारी चीजें थी, जो चाहिए थी। जिन्हें पाने का रास्ता उन प्रार्थनाओं में दिखता था, जो मैं मां और नानी को सुबह शाम करते देखती थी। और यहीं से मेरी जिंदगी में शुरू हुई भगवान और मेरी कहानी। सबसे पहले शेरावाली माता के रूप में मुझे भगवान की छवि मिली। उनसे मैंने क्लास में फ्सर्ट आने से लेकर मां की सरकारी नौकरी लग जाने तक काफी सारी चीजें मांगी। पापा का एक्सीडेंट हुआ तो वो जल्दी ठीक हो जाएं, ये भी मांगा। मंदिर भी गई। व्रत भी रखे। प्रसाद भी चढ़ाया। वो सब कुछ किया, जो करते हुए देखा और सुना। कुछ चीजें भगवान ने मान लीं,  कुछ नहीं मानी ...। जैसे मैं क्लास में फ्सर्ट आई... पापा ठीक हुए... लेकिन मां की सरकारी नौकरी नहीं लगी। जिदंगी यूं ही चलती रही। कॉलेज में एडमिशन के बाद बाहर का खाना खाने और रुटीन बदलने की वजह से तबियत खराब रहने लगी तो मैं भगवान शिव की भक्ति करने लगी। कहा जाता है कि भगवान  शिव रोग व्याधि को दूर करने वाले हैं। जैसे-जैसे कर्म और फल की समझ आई तो... मुझे कृष्ण भगवान से प्रीति हुई। साईं बाबा और शनि देव पर भी श्रद्धा रही। कई बार जब हालातों ने मुझे कमजोर किया, हरा दिया, तोड़ दिया तो मैंने उन मूर्तियों से लड़ाई भी की, जिन्हें मैं भगवान मानती हूं। खुद को नास्तिक बनाने के लिए कविता भी लिखी और पूजा पाठ छोड़कर ऐसा करने की कोशिश भी की। कई सारे तर्क और वितर्कों में भगवान और अपनी भक्ति को रखकर तोला भी। मगर हमेशा ये विषय ऐसा रहा, जिसमें उलझकर और डरकर मैंने बीच में ही छोड़ दिया। पिछले कुछ दिनों से गीता और सुंदरकांड पढ़ रही हूं तो कुछ और बातें समझ आईं। सुंदरकांड में एक लाइन आती है "भय बिनु प्रीति न होई"। इसका मतलब है कि डर के बिना प्यार भी नहीं होता। इस लाइन को पढ़कर ये नतीजा निकालना काफी आसान हुआ कि भगवान से भी शायद हम डरते हैं, इसलिए उनसे प्यार या प्यार का दिखावा करते हैं।कुल मिलाकर अब तक मैंने कई बार खुद को तर्क के आधार पर भगवान को मानने या न मानने के लिए मजबूर किया, लेकिन शायद आस्था और अंधविश्वास दोनों ही तर्कों से परे होते हैं। जैसे मां-बाप पर विश्वास करने के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं होती, वैसे ही भगवान को मानने के लिए भी उन्हें देखने या परखने की जरूरत नहीं होती। फिर अगर ज्यादा पढ़-लिख लेने पर ऐसी जरूरत महसूस हो भी जाए तो आखिर में नतीजा यही निकलता है कि कहीं कोई है, जो हमारे साथ है, हमसें बातें करता है, हमें समझता है, हमें अहसास दिलाता है कि जो हुआ उसमें कुछ न कुछ अच्छा था। जो देर से मिला, उसके देर होने में ही हमारी भलाई थी। जो नहीं मिला वो हमारा था ही नहीं।..हाल ही में अक्षय कुमार और परेश रावल के प्रोडक्शन और उमेश शुक्ला के निर्देशन में बनी फिल्म ओह माई गॉड की कहानी भी कुछ ऐसे ही तर्कों से शुरू होकर उस शक्ति की सत्ता को स्थापित करते हुए खत्म हो जाती है, ‌ज‌िसे लोग ईश्वर, अल्लाह और गॉड के नाम से जानते हैं। ये फिल्म एक गुजराती नाटक "कांजी वर्सेस कांजी" पर आधारित है। इसके अलावा इसे एक ऑस्ट्रेलियन फिल्म "मैन हू सूड गॉड" की नकल भी बताया जा रहा है। कहानी की प्रेरणा कुछ भी हो,  इस विषय को ऐसे संकीर्ण समाज में सामने लाना ही एक काबिले तारीफ कोशिश है। फिर रोमांस, फैमिली ड्रामा और स्टंट के तड़के से कुछ अलग देखने के लिहाज से भी बॉलीवुड कलेक्शन में ये फिल्म एक खास जगह बना चुकी है। हालांकि रिलीज के काफी दिन बाद मुझे इस फिल्म को देखने का मौका मिला, इसलिए अब ज्यादा कुछ कहना मायने नहीं रखता। पर कुछ बातों का जिक्र करने के लिए समय से पहले या समय के बाद से ज्यादा जरूरी ये होता है कि समय मिलते ही उन पर बात कर ली जाए। ‌एक्ट ऑफ गॉड नाम के जिस कानून को आधार बनाकर फिल्म का ताना-बाना बुना गया है वो कई लोगों के ल‌िए एक नई चीज है। ये देखना भी हैरानी और दिलचस्पी भरा है क‌ि कई लोगों की पॉलिसी का पैसा भगवान के नाम पर बने एक कानून की वजह से अटका पड़ा है। परेश रावल की अदाकारी को किसी भी उपमा की जरूरत नहीं है। लेकिन जहां तक पटकथा की बात है तो वह काफी बेहतरीन हैं क्योंकि धर्म और भक्ति जैसे मुद्दों पर बेजोड़ तर्क सामने लाना भी आसान काम नहीं है। गंगाजल की चिट वाली बोतल में टंकी का पानी भरकर बेचना, किसी भी सामान्य सी मूर्ति को धरती फटने पर निकली हुई बताना, मन्नत के नाम पर अपने बाल चढ़ाना, शिवलिंग पर हर सोमवार को लोटा भर-भर दूध चढ़ाना और उस दूध के नाले के रास्ते गटर में चले जाना ... ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जिनसे हमारा सामना हर रोज होता है, लेकिन हम में से हर कोई इसे नजरअंदाज कर देता है। आम लोगों से लेकर तमाम बुद्धिजीवी और मीडिया तक इस पर स्पेशल रिपोर्ट तैयार कर सनसनी फैलाते हैं। बेशक ये सारी बातें कई बार पहले भी सामने आ चुकी हैं, लेकिन भगवान के खिलाफ मुकदमा दायर करने के दौरान जिस तरह फिल्म में ये सच्चाई सामने आई है उसे देखना ज्यादा चोट करने वाला है। साथ ही भगवान पर कॉपी राइट समझने वाले लोगों को कटघरे में खड़ा करना और आज के समय में लोगों पर चढ़ रहा बाबा और साध्वियों के नाम का बुखार उतारने के ल‌िए भी इस तरह की फिल्में जरूरी हैं। ओमपूरी का छोटा सा रोल भी भगवान को नोटिस भेजने के ल‌िए काफी अहम भूमिका निभाता है। इसके अलावा नेगेटिव शेड में होते हुए भी मिथुन चक्रवर्ती फिल्म के आखिर में एक डॉयलॉग से ही अपनी मौजूदगी की अहमियत को साबित कर देते हैं "ये आस्था श्रद्धा अफीम के नशे की तरह है कांजी। एक बार लत लग गई तो आसानी से नहीं छूटती। ये जो लोग देख रहे हो न these are not god loving people they are god fearing people। आज नहीं तो कल कहीं ये फिर से उन्हीं आश्रमों में न दिख जाएं। निर्भय भव:।
फिर पूरी फिल्म में भगवान का पक्ष सामने रखने के ल‌िए अक्षय कुमार भी अपनी भूमिका पर खरे उतरते हैं। इस फिल्म की सबसे ‌मजेदार बात जो सामने आती है, वह यह है कि भगवान खुद भी अपने दुष्प्रचार से दुखी हैं। अगर वह फिल्म में दिखाई गई कहानी की तरह खुद दुनिया में आ सकते तो अपने मन की बात कुछ इन्हीं शब्दों में कहते-
"मैं तो नहीं हूं इंसानों में
बिकता हूं इन दुकानों में
दुनिया बनाई मैंने हाथों से
मिट्टी से नहीं जज्बातों से
फिर रहा हूं ढूंढता 
मेरे निशां है कहां"

इसके अलावा एक शिक्षा जो इस फिल्म की कहानी से मुझे मिलती है और हम सबको मिलनी चाहिए... वो ये है कि किसी भी धर्म के प्रति अंधभक्ति शुरू करने, उसके नाम पर कर्मकांड करने और नियम बनाने से पहले अगर हम सिर्फ एक बार उस धर्म से जुड़े मुख्य ग्रंथ को पढ़ लें तो कई वहम और अंधविश्वास तो पहले ही दूर हो जाएंगे। हिंदू धर्म हो या इस्लाम इन्हें मानने वाले आधे से ज्यादा लोगों ने न तो गीता पढ़ी होगी न ही कुरान। फिर भी ये लोग धर्म के नाम पर अपने परसेप्सेशन के आधार पर कुछ बातों और नियमों को आधार बनाकर युद्ध जैसे हालात पैदा कर देते हैं।


और आखिर में 

गोंविदा आला रे में सोनाक्षी और प्रभुदेवा के लाजवाब डांस को भी नहीं भुलाया जा सकता है।

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

न जाने हम क्या कर रहे हैं



हम लिख रहे हैं
अतीत के अपराध
और वर्तमान के राग
कि
भविष्य बेहतर हो सके

हम दिख रहे हैं
इतिहास के भगत सिंह जैसे
21वीं सदी में क्रांति की मशाल लिए
कि
आने वाली सदियां हमें भी याद करें

हम खोल रहे हैं जुबां
चुप रहने की
त्रासदियों के बीच भी
कि
सच गूंगा न होने पाए
और झूठ भी सुन सके
उसकी गूंज को

हम शामिल हैं
हर उस विचार के साथ
कि
जिससे समाज को
समानता की सूरत मिल सके

हमने कुछ रास्ते अख्तियार किए हैं
दिखाने के लिए दूसरों को रास्ता
कि
हम गर मजबूर हो गए
कहीं अपनी अपनी मजदूरी के चलते तो
वो दूसरे उन रास्तों पर चल सकें।

मगर अब हमें बांध लेनी चाहिए
अपनी अंधी उम्मीदों की ये पोटली
कि
किसी दूसरे के कंधों को ये बोझ न सहना पड़े। 

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...