1)
मैं
उस पर
कभी
नहीं कर पाई पलट कर वार
सिर्फ
इसलिए नहीं कि औरत हूं
और
मेरे
कमजोर अंगों में हिम्मत नहीं
उस
जितनी,
मगर
इसलिए कि
मुझ
पर वार करने वाला
पहले
मेरा पिता था
और
फिर
पति।
पिता...
जो जीवनदाता है
और
पति.. जिसे परमेश्ववर कहा जाता है
2)
मेरा
वजन लगातार
कम
हो रहा है
और
कंधे झुकते जा रहे हैं
संस्कारों
का कैसा बोझ है ये
3)
एक औरत चांद पर
कदम
रख चुकी है
और
मैं
मेरे
कदम
मेरे
कदम तो...
जमीन
पर भी
लड़खड़ाते
हैं
जब
भी कोशिश करती हूं चलने की
अपनी
तरफ।
4)
एक
औरत देश चला चुकी हूं
और
मैं ...
मैं
तो अपना तथाकथित घर भी
हर
रोज टूटते देखती हूं
हिंदु-मुस्लिम
दंगों से भी बड़ी जंग
छिड़ती
है हर रोज यहां
मंदिर
टूटता है
जलता
चूल्हा मेरे ऊपर फेंका जाता है
टूटे
फूलदानों को हर सुबह फिर करीने से सजाती हूं मैं
मगर
यहां
कभी
लागू
नहीं होती एमरजेंसी।
5)
एक
औरत कर चुकी है एवरेस्ट की चढ़ाई
और
मैं नहीं चढ़ पाती
कचहरी,
महिला आयोग या फिर किसी एनजीओ की
सीढियां
भी।
6)
एक
औरत की कलम ने
खोल
दी है बड़े-बड़े सरकारी घोटालों की पोल
मगर
मैं
नहीं खोल पाती अपने होंठ भी
जब
एक कठपुतली की तरह मुझे
सिर्फ
बेटी, पत्नी और
औरत
हो जाना होता है
एक
इनसान होने से भी पहले।
7)
कुछ
औरतें सुना है..खेल रही हैं
कई
तरह के खेल
हॉकी
से लेकर कुश्ती तक
और
मैं...
मै...अभी
तक
जिंदगी
के खेल
में
फिल्डिंग की कर रही हूं बस
8)
एक
औरत ने कत्ल कर दिया है अपने पति का
एक
औऱत दूसरे आदमी के साथ भाग गई है
एक
औरत ..
एक
औरत..
मैं
इन औरतों में शामिल नहीं हूं
अब
तक
मैं
भी औरत हूं
लेकिन
एक खालिस औरत।
अब
भी हूं मैं इन औरतों के बीच
अपने
जैसी कई सारी खालिस औरतों के साथ
चांद,देश,एवरेस्ट
या ओलंपिक
एक
और सिर्फ किसी एक-एक औरत की जिंदगी में ही है बस
कितनी
ही तो हैं
अब
भी बस बेबस।
मैं
वही बेबस औरत हूं
इसलिए
नहीं कि औरत हूं
इसलिए
कि मैं खालिस औरत हूं।
11 टिप्पणियां:
एक औरत चांद पर
कदम रख चुकी है
और मैं
मेरे कदम
मेरे कदम तो...
जमीन पर भी
लड़खड़ाते हैं
कुछ अलग सी और वास्तविकता का सच्चा चित्र प्रस्तुत करती है यह कविता।
सादर
सच्चाई को बहुत खूबसूरती से पेश किया है
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-08 -2012 को यहाँ भी है
.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... मेरी पसंद .
very heart-touching post...man ki samvednaaon ko bakhoobi pesh kiya hai!!
आधी दुनिया का महिलाकरण कर दिया इस रचना ने ,खालिस जब कोई चीज़ मिलती ही नहीं तब इस खालिस औरत का क्या कीजे ये पचती नहीं है घर को समाज ,रिवाज़ को अदावत को .बहुत बढ़िया रचना है सामूहिक पीड़ा एक मूर्तीकरण है .
आज की औरत कितना कुछ आगे बढ़ कर कर रही हैं .... पर फिर भी कुछ अभी भी बहुत पीछे हैं .... उनके मन की वेदना को बहुत सटीक शब्दों में उकेरा है
बहुत सुन्दर रचना..............नारी की सशक्तता को स्पष्ट करती हुई
नारी जीवन की कुछ ऐसी सच्चाई भी है...
भावविभोर करती रचना..
पर नारी कब हारी है ......बहुत सुन्दर
हिमानी जी आपकी कविता बहुत ही अलग व प्रभावशाली है ।
खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का
सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद
और बाकी स्वर शुद्ध लगते
हैं, पंचम इसमें वर्जित है,
पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
Look at my blog post - संगीत
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