शुक्रवार, 2 मार्च 2012

लिखना.छपना और बिकना

एक मशहूर किस्सा सुना था, किसी लेखक के बारे में-जब उनसे किसी ने पूछा कि जनाब आप करते क्या हैं, उन्होंने कहा मैं लिखता हूं। इस पर उस व्यक्ति ने कहा- लिखते तो हैं, ठीक है, लेकिन करते क्या हैं। सीधी बात ये है कि उस व्यक्ति की नजर में लिखना कुछ नहीं है। ये बेशक एक सुना सुनाया किस्सा है, लेकिन लिखने से जुड़ा एक बड़ा सवाल भी, कि लिखना, खासतौर पर हिंदी भाषा का लेखक होना कितने मायने रखता है हिंदी समाज में। किताब मेला जाने के दौरान इन सवालों से सीधा सामना हुआ।

मेले में ढेरों किताबें थी। कुछ पुरानी फेमस किताबें, नए कवर के साथ और कुछ नई किताबें नए लेखकों के साथ। कई किताबों के लोकापर्ण हो रहे थे। कुल मिलाकर माहौल ये था कि कई लोग छपने की कतार में हैं। कई लिखने की तैयारी में। और कई लिखकर तैय़ार खड़े हैं बिकने के इंतजार में। और जो बिक रहे हैं लगातार, धड़ाधड़, वो शायद दूसरा या तीसरा जन्म भी ले चुके होंगे अब तक। तमाम नामी गिरामी प्रकाशनों और लेखकों से इतर कई किताबें यूं हीं थी किताब मेले में। कवर पर नाम और कलर होने के बावजूद भी भीड़ भरी स्टॉलों की गहमा गहमी के बीच लोग अलटते पलटते और फिर निकल पड़ते। अगर इन किताबों की कद्र भी तब होगी, जब इन्हें लिखने वाला मर चुका होगा तो लिखना तो बेकाम ही रह जाएगा और लेखक गुमनाम ही। यहां से फिर वो सवाल खड़ा होता है कि ऐसे समाज में जहां लिखना आपकी पुख्ता पहचान नहीं है। जब आप लिखते हैं तो ये कोई खास काम नहीं है, आपकी पहचान उस खास काम से है, जो लिखना नहीं है। ऐसे में आप ऐसा क्या लिखेंगे कि वो आपकी पहचान बन जाए।
कुछ ऐसा जो समाज के संस्कारों के खिलाफ हो, जिस पर तुरंत विवाद शुरू हो जाए और हर कोई ये देखना चाहे कि भई ऐसा क्या लिख दिया। 
या फिर कुछ ऐसा भी लिखा जा सकता है जिस पर आज तक न लिखा गया हो
ये दोनों ही काम आम नहीं हैं। कुछ भी रचनात्मक लिखने से पहले प्रायोजन तय नहीं किया जा सकता। और ये चमत्कार सरीखा भी नहीं है कि ऐसा हो जो आज तक न हुआ हो। सवालों के इस शोरगुल के बीच भी हिंदी की लेखकीय दुनिया में एक अजीब सा सन्नाटा है लिखने को लेकर। लोग आवाज को सुनना नहीं चाहते उन्हें सिर्फ शांति की तलाश है। एक ऐसी शांति जो हर आवाज को दबा देना चाहती है। इस पर विडंबना ये है कि वो खरीदते उसे ही है जिसके आने से शोर हो। पता नहीं इस विडंबना से पार पाने में कितना वक्त लगेगा। 

सिर्फ किताब मेले के दौरान ही नहीं, इन दिनों लगातार इस अनुभव से गुजरना हो रहा है क‌ि हिंदी मीडिया और लेखन की दुनिया में ब्रांडिंग, मार्केट‌िंग, प्रोफेशेनलिज्म का अभाव है। अंग्रेजी अखबार की खबर एकदम पुख्ता और विश्वसनीय हो सकती है लेकिन ह‌िंदी अखबार की खबर सिर्फ खबर है जिसकी प्रमाणिकता अंग्रेजी से ही सिद्ध हो सकती है। हिंदी में काम करने वाले लोगों को नकल करने का चसका है उनका खुद की कल्पना और रचना का धरातल लगातार ‌सिकुड़ता जा रहा है। लिखने वाले भी अंग्रेजी में ही छपना चाहते हैं, पढ़ने वाले भी समझ आए या न आए अंग्रेजी में ही पढ़ना चाहते हैं। एक अजीब सा भेदभाव नजर आता है ह‌िंदी के साथ। जैसे किसी के अपने ही घर में उसे सब परिवार वाले प्यार तो करते हों लेकिन इजहार करने
में सकुचाते हों।

हाल ही में एक प्रतिष्ठित मैग्जीन के संपादक और ह‌िंदी के लेखक से हिंदी लेखन की दुनिया में लेखक के लिखने, छपने और बिकने को लेकर एक चैंट‌िंग कांफ्रेस‌िंग हुई। इस बातचीत में
उन्होंने ह‌िंदी लेखन की इस स्थित‌ि का कारण कुछ इस तरह बताया-
दुरुस्त मार्केट‌िंग योजना की कमी
प्रकाशकों का अड़‌ियल रवैया
जोड़-जुगाड़ की राजनीत‌ि
और हिंदी के पाठकों में खरीदने की क्षमता का अभाव।

मेरी बातः  लिखना मेरे ल‌िए एक शौक और एक नशे से ज्यादा एक बेइंतहा मोहब्बत और बेहद जरूरी जरूरत की तरह है। इसल‌िए मैं ये चाहती हूं क‌ि हिंदी लेखन की दुनिया एक नई सोच के साथ समृद्ध हो जहां लिखने को समझने वाले और प्रासंगिक लिखने वाले लोग आएं ताकि लिखना यूं ही न रहे एक अच्छा काम बन सके। यहां मेरे ल‌िए सबसे बड़ा सवाल ये है क‌ि
मैं इस दिशा में कितना बेहतर प्रयास कर पाती हूं और आने वाली चुनौतियों से कितना अच्छे से मुकाबला कर पाती हूं।













3 टिप्‍पणियां:

Nidhi ने कहा…

अच्छा लिखा है..सच्चा लिखा है.हिन्दी का यही हाल है ....अपने देश में ही अपने होने पर शर्मिंदगी महसूस करती है .

दिगम्बर नासवा ने कहा…

हिंदी की इस स्थिति के लिए शायद हम सब ही जिम्मेदार हैं ... सही आंकलन जरूरी है की क्यों लोग नहीं खरीद रहे हिंदी की पुस्तकें ..

कविता रावत ने कहा…

bahut badiya vishleshan...
sach bahut sonchniya sthiti hain...

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