एक चुप सौ सुख
मगर इतना आसान भी नही है
यूँ चुप रह जाना
कितना भी हो
थोडा या ज्यादा
लेकिन , मुश्किल तो है ही
शब्दों को पी जाना
होंटों को सी जाना
कशमकश है कि
कह दूं तो
शायद
रातें खफा हो जाएँगी
ख़ामोशी से भी वैसी दोस्ती नही है मेरी
रहूंगी खामोश गर तो
बातें जुदा हो जाएँगी
कैसे चुप रहूँ
इस मौन को तोड़ने के शोर के बीच
कैसे रहूँ स्तब्ध
झंझावातों के इस दौर के बीच
मैं बोलती हूँ तो
बोलने को वो मेरा कसूर बताता है
चुप रहने पर
चुप चाप ही जाने कौन
चुप रहने की सजा सुना जाता है
मैं अपनी जनम कुंडली में
खुद जो बना रही हूँ जिंदगी के निशाँ
तो जमाना जिरह पाले है मुझसे
मेरी हर बात ही पर एतराज जताता है
3 टिप्पणियां:
बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
चुप्पी को साध लेने पर जिस सब का सामना करना पड़ता है...उन भावो का सुंदर वर्णन.
very nice ............
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