सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

परख

परख 
पलक झपकते ही जो बादल देते हैं कारवां
उनकी परख
प्रेम नाम के पर्यायवाची
भरे पड़े हैं जिनके शब्दकोष में
जान, जानम, जानेमन और  जिंदगी
जो कहते हैं अपनी हर महबूबा को 
उनकी परख
हर रात होना चाहते हैं 
जो हम बिस्तर 
चोरी छिपे
हर उस लड़की के साथ
जिसने मान लिया हैं
उनके शब्दों को पर ब्रह्म
या फिर वो 
जिसे नही है कोई परवाह लोकलाज की
जो खुद भी मिटाना चाहती हैं महज जिस्मानी भूख
इस जगमगाहट के जरिये
उनकी परख
रोजी रोटी और मकान के बाद
या इन तीनो से पहले एक और 
मूलभूत जरुरत है हमारे बीच
देह
देह की भूख
देह की मुक्ति
देह का समर्पण
जो देते हैं इस तरह के प्रवचन
उनकी परख
जो स्त्री को करना चाहते है स्वतंत्र समाज की  बेड़ियों से
और वही 
जो नही देख सकते 
अपनी बहिन, बेटी या माँ को 
किसी पुरुष के ख्वाब ख्याल
संजोते हुए भी
उनकी परख
जस्बातों के दरम्यान पनपती
जरुरत से प्रेम को बचाने के लिए
शायद  परख जरुरी है 


3 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

jhakjhorti hui , aadmi ki soch ko darshati sundar rachna

संजय भास्‍कर ने कहा…

welcome back himani ji
मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.

संजय भास्‍कर ने कहा…

सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !
फुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |

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