मुझे जानने और समझने वाले कुछ लोग अक्सर कहते है कि..हिमानी तू किताबों और कहानिओं की दुनिया में रहती है. तू सच देखकर भी शतुरमुर्ग की तरह आँख बंद किये हुए है. कहानिओं वाला प्यार , किताबों के विचार ऐसा कुछ भी तो नही है दुनिया में आज फिर क्यों इन ख्यालों में खो कर अपनी जिंदगी के अहम् पल ख़राब कर रही है . छोड़ दे किताबे पढना और ख्वाब गढ़ना, बाहर निकाल. दुनिया को देख और उसकी सचाई को भी.
ये आज की बात नही है जो भी, जैसा भी, जहाँ भी मिला, उससे मुझे यही मशविरा मिला...और मैं ???? मैं आज तक हू ब हू ..ज्यों की त्यों ..वैसी की वैसी ...और और मशविरे सुनती जा रही हूँ ...और और ख्वाब बुनती जा रही हूँ. ऐसा नही है कि मैंने कभी बदलने की कोशिश नही की. जब जब जिंदगी ने झटका दिया तब तब मैंने बदलने की प्रतिज्ञा ले डाली है. एक दिन बदली रही दो दिन बदली रही ...मगर बादल हैं आखिर कब तक न बरसेंगे ? मशविरे की धूप सर पर खड़ी रही और मेरे मन के बादल अपनी जिद पर अड़े रहे. बारिश होती रही. धूप में भी मैं भीगती रही अपने ही पानी से मैंने खुद को पानी पानी कर लिया. कभी देखा है बादलों को खुद को भिगोते हुए..मेरे साथ कुछ ऐसा ही होता रहा..भीगना यूँ भी बहुत भाता है .. तो बारिश कहाँ से आई है ये कभी सोचा ही नही. बहरहाल मेरे बदलने की नाकाम कोशिशे जारी है आज भी ..
मगर....मगर एक सवाल जो ये सब सोचते हुए कोंधा है दिमाग में. मैं किताबों की दुनिया में हूँ , कहानिओं पर यकीं करती हूँ . चाहती हूँ ये कहानियां सच हो. कुछ को सच करने में मैं भी योगदान दे सकूँ ...किताबों में दर्ज मोहब्बतें , मासूमियत, मतवालापन, सपनो को पूरा करने की जिद, मन से मन का मिलना ...अगर ये सब कुछ झूठ है और हमें किताबें पढना छोड़ देना चाहिए. शामिल हो जाना चाहिए भली बुरी सी दो चेहरों वाली इस दुनिया में तो फिर ..शेष क्या बचा... आज कमसकम किताबें तो है ख्याल संजोने और सपने बोने के लिए. आने वाले समय में हम क्या पढ़ाएंगे आने वाली पीढ़ियों को. क्या मिलेगा किताबों में उन्हें नफरत, धोखा, स्वार्थ, हर शख्स एक सामान सा, हर रिश्ता एक व्यापार सा ...और हर मकसद के पीछे एक राजनितिक षड़यंत्र ..
हम किताबों को छोड़ना चाहते है या किताबों का कलेवर ?? हम इतने व्यावहारिक हो गए है कि भावनाए महज एक बेवकूफी के कुछ और मायने ही नही रखती हमारे लिए. हम महफिलों में जाना चाहते है और मधुशाला में भी. हम मोहब्बत भी करना चाहते है और मिलन भी. हमारे मकसद भी हैं और मंजिलों की आरजू भी. ........मगर हम हर काम को शातिरता से करना चाहते है. चालाकी के सारे पैमानों से भी ज्यादा चालाक बनकर . किताबों में जो कल्पना है उसे तो कबिर्स्तान पहुंचा दियाक गया है कब का. सब आँखे खोल कर जी रहे है ..जो आँखों का इस्तेमाल उस कल्पना और कल्पना के कमरों में घूमकर अपने लिए घर बनाने के लिए कर रहे है उन्हें काफ़िर समझा जा रहा है काफ़िर मतलब नास्तिक होता है लेकिन यहाँ जब श्रधा अपने स्वार्थ के लिए ही बची है तो ऐसे में किताबों की कल्पना में खोया रहने वाला काफ़िर ही हुआ ..................चलो हम काफ़िर ही सही.