एक चाँद ही को पाने का न सोचा हमने
वर्ना हर एक सितारे क़ी चाहत रही
वो टूटे तो घूरा गुस्से से आसमान को
क़ि क्यूँ न संभाल सका वो हमारे प्यार को
वो टिमटिमाये तो दुआओं में भी
उनकी ही वफा मांगी
सिर्फ उगते सूरज को ही
न झुकाया है सर हमने
डूबते सूरज क़ी लाली को भी
सराहा है न जाने कितनी शामों में
सफ़ेद सी रौशनी का वो पीलापन
जाते जाते भी एक
चमक छोड़ जाता है
समुंदर तक तो पहुंचे ही न
कभी कदम अभी तक
औकात से बाहर हम जाते भी नहीं है
नदिया भी यूँ सब न देखि है हमने
कुछ तालाब, सरोवर और झील के किनारे ही अक्सर
हमें हर वक़्त से प्यारे हुए है
बाग़ बगीचे लगाने क़ी चाहत है हमेशा से
हालाँकि रोप नहीं पाई एक पोधा भी अपने हाथों से
पैसे वाला वो पेड़ कई बार लगया है कांच क़ी बोतल में
मगर बेजान होकर मुरझा जाति है अक्सर उसकी पतिया
कुछ किया हो न
पर प्रेम भरे उस गुलाब पर एतराज किया है हमेशा
जो झूठे दिखावे के लिए बाग़ से तोड़कर
प्रेमिका को देते है लोग
ऊँचाइयों से फासला ही रखा है हमेशा गहराई में जाना हुआ है अक्सर
छोटे छोटे शब्द ही ख़ुशी बनते गए है बड़े बड़े गम के कारखानों में
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4 टिप्पणियां:
विचारणीय प्रस्तुती /
बहुत सुन्दर रचना!
लाजवाब प्रस्तुती ....सोचनीय पोस्ट
विकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com
waah himani ji antim do panktiyan to jaane kya kya keh gayi...
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