सोच रही हूँ किसे बधाई दूँ उन्हें जिनके हाथो में चॉकलेट और ढेर सारे गिफ्ट्स है या उन्हें जो आज भी निकल पड़े है अपने नन्हे हाथो में परिवार का पेट भरने की जिम्मेदारी लिए जिन्हें पता भी नही है बाल दिवस नामक किसी चीज के बारे में उनके लिए मैं शायद इस हद तक कुछ नही कर सकती कि सारे दुखो से मुक्ति दिला दूँ मै कर नही सकती और जो कर सकते है वो करना नहीं चाहते क्योकि न तो उन्हें दिखाई देता
सीमापुरी जैसे इलाके का कूदे के ढेर में बीतता बचपन
न उन्हें दिखाई देता
सी पी जैसे पोश इलाके में बन्दर बन कर भीख मांगते वो मासूम चेहरे
जिनके mann में सवाल तो कई है लेकिन वो आपसे जवाब लेने के ज्यादा echchuk नज़र नही आते क्योकि वो चाहते है सिर्फ़ थोडी सी भीख जिससे उनका पेट भर जाए
ये है २१ वी सदी का बचपन - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - -----
जिम्मेदारी के बोझ को उठता बचपन जैसे इस बोझ के अलावा कुछ बचा ही न हो ज़िन्दगी में
ज्यादा से ज्यादा बोझ उठा सके वो उसकी खुशी है बस इसी में
क्या है ये ज़िन्दगी और क्या होता है इस ज़िन्दगी में ,न उसे मालूम है न उसने कभी सोचा
सोचता भी , तो कहाँ से शुरुवात करता
उसकी शुरुवात तो इसी सोच से होती है कैसे जुटाएगा वो दिन का खाना रात की रोटी
एक पहिये की तरह अच्छे बुरे हर रस्ते पर वो चोट खाकर भी चलता ही जाता है
मेहरूम है वो मासूम अपने बचपन से
खुशी क्या, खुशी क्या ख्याल भी उसे छु नही paata है
हर सवेरा उसकी ज़िन्दगी में संतुष्टि का सवाल लेकर आता है
इस सवाल को सुलझा ले वो बस यही चाहता है
कैसे कोई नियम , कोई कानून उसकी इस चाहत को मिटा सकता है
वो काम करना छोड़ दे तो क्या कानून उसे रोटी खिला सकता है, उसका घर चला सकता
यही सोचकर वो unhi raahon पर चल पड़ता है जिन पर वो चलता आया है
jahan उसने खेलने खाने की ummar में pasina bahaya है