'तुम्हारे साथ कोई नहीं है क्या बेटा', चौकीदार ने पूछा।
'नहीं'। लड़की ने कहा।
'तो यहां मत रुको, चली जाओ', चौकीदार ने समझाते हुए कहा।
'हम्म्म....बस कुछ फोटो खींचकर, थोड़ा घूमकर चली जाउंगी।'लड़की ने कहा।
'मैं इसलिए कह रहा हूं कि यहां ज्यादातर खाली ही रहता है। कुछ चरसी-नशेड़ी भी घूमते रहते हैं। अकेली लड़की हो, किसी के साथ होतीं, तो कोई बात नहीं थी।' चौकीदार ने फिर समझाया।
लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। अलग-अलग एंगल से फोटो खींचने की कोशिश की और जब देखा कि सच में एक अजीब सा लड़का उसे ही घूर रहा है, तो वहां से निकल गई।
रास्ते में उसने गुलाब के दो फूलों की तसवीर ली।
झूला झूलते दो बच्चों की तसवीर ली।
एक-दूसरे के पीछे भागती दो गिलहरियों की तसवीर ली।
बैडमिंटन खेलते एक लड़का और एक लड़की की तसवीर ली।
एक-दूसरे के गले में हाथ डाले, कंधे पर बैग लटकाए स्कूल से लौटते दो बच्चों की तसवीर ली।
उसने अपनी एक भी तसवीर में अकेलेपन को कैद नहीं किया।
उसे खौफ होने लगा था अकेलेपन से, अकेलेपन नाम के शब्द से भी।
घर में पिछले कई दिनों से ये एहसास उसे तंग किए था कि वो अकेली हो गई है। उसके साथ कोई नहीं है। उसके पास कोई नहीं है। इस अहसास को भगाने के लिए वो घर से निकली थी- दिल्ली की अकेली गलियों में, अकेली इमारतों को देखने। सोचा होगा, कि अपना अकेलापन वो उन वीरान सी पड़ी इमारतों के साथ बांटकर किसी के साथ होना महसूस कर सकेगी।
काफी समय पहले उसने दिल्ली के महरौली आर्कियोलॉजिकल पार्क के बारे में पढ़ा था। गुलाब का बड़ा सा बगीचा, कई मकबरे, दो बावड़ी और एक मस्जिद होने के बावजूद भी २०० एकड़ के इस पार्क के बारे में पढ़कर उसे ये पार्क अकेला ही लगा। अपने अकेलेपन से गुजरते हुए इस पार्क का अकेलापन भी उसे याद आया। पता नहीं उसने अपने अकेलेपन को इस जगह के साथ बांटना चाहा या इस पार्क के अकेलेपन को अपने साथ। मगर वो सुबह ही घर से निकल गई अकेलेपन को जड़ से खत्म करने के मिशन पर। मगर चौकीदार के एक सवाल ने उसके सारे मिशन को फेल कर दिया था। ('तुम्हारे साथ कोई नहीं है क्या बेटा') ये सवाल उसके कानों में गूंजता ही जा रहा था। वो फिर भारी मन से घर लौटी थी और भी ज्यादा अकेली होकर।
3 टिप्पणियां:
इसमे कोई संदेह नही है कि आपकी लेखनी बहुत अच्छी है। आप मन की बातों को सहज शब्दों में खूबसूरती से व्यक्त करती हैं। आपके ब्लॉग में कुछ अलग पढ़कर अच्छा लगा। मगर आप सकरात्मक पहलुओं पर भी लिखें, जो आपके पाठकों के मन को गुदगुदा जाये।
सकारात्मक को लिखने की नहीं, जीने की जरूरत होती है कुशल जी...बाकी तो आप खुद कुशल हैं...लिखी अक्सर निराशाजनक दुखी भरी बातें ही जाती हैं...ताकि मन हल्का हो सके...गुदगुदाने के लिए चु
टकुले क्या कम हैं... ;)
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