फिल्मों के देखने, जानने और थोड़ा बहुत समझने के काफी अरसे बाद मैंने गुरु दत्त को जाना। जब जाना, तो इस जान-पहचान को और बढ़ाने का मन किया। इसलिए उनकी फिल्में देखीं। जितना ज्यादा जाना उतना ही ज्यादा उनकी कला और हुनर की अहमियत समझ आती गई। इसी सफर में नसरीन मुन्नी कबीर की लिखी एक किताब 'गुरु दत्त- हिंदी सिनेमा का कवि' हाल में पढ़ी है। इसी किताब से कुछ दिलचस्प बातें-
हवा में जोर से उड़ते परदे, शरद ऋतु में पत्तियों की अंतिम फड़फड़ाहट की तरह हवा में उड़ते कागज, छाया और प्रकाश में रहस्यमय तरीके से एकांत में चलता व्यक्ति ... ऐसा चित्रण अनगिनत व्यक्तियों को झकझोरता रहा है। यही वजह है शायद कि मृत्यु के तीस साल बाद भी गुरु दत्त की कला एक जीवित शक्ति से ज्यादा रही।
वास्तव में भारतीय सिनेमा में उनके योगदान की पूरी पहचान सन् 1964 के कुछ वर्षों के बाद ही हुई। 'प्यासा' देखने के बाद एक अमेरिकी विद्धान ने टिप्पणी की थी - 'यदि गुरु दत्त का काम उनके जीवनकाल में ही विश्वविख्यात होता तो उनकी गिनती भी डगलस पार्क और बिली विल्डर जैसे व्यक्तियों में होती।'
1925 के जुलाई माह में बरसात के मौसम में बैंगलोर में गुरु दत्त का जन्म हुआ था।
उनका नाम गुरु दत्त होने के पीछे वजह थी कि उनका जन्म गुरुवार के दिन हुआ था, जो कि गुरु का दिन होता है। इसलिए उनके मामा ने उनका नाम गुरु दत्त रखा। वैसे उनका असल नाम शिवशंकर पादुकोण था।
सोलह साल की उम्र में गुरु दत्त को अपनी पहली नौकरी एक टेलीफोन ऑपरेटर के तौर पर मिली थी। उनकी मासिक तनख्वाह 40 रुपये थी। आत्माराम और ललिता उनके भाई और बहन को याद है कि गुरु दत्त ने अपनी इस पहली तनख्वाह से अपने पूरे परिवार के लिए तोहफे खरीदे थे।
शुरुआत में नृत्य के प्रति रुझान उन्हें अल्मोड़ा उदय शंकर की डांस अकेडमी ले गया।
फिर फिल्म बनाने की चाह उन्हें प्रभात स्टूडियो ले गई।
लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें लगा कि आज की भौतिकतावादी जिंदगी में एक कलाकार की कीमत कितनी कम थी और कैसे एक रचनात्मक दिमाग को संतुष्ट करने के लिए व्यक्तिगत प्रतिभा ही काफी नहीं होती। उन अवसादपूर्ण दिनों में, बंटवारे के कुछ दिनों बाद, गुरु दत्त ने 'प्यासा' का पहला ड्राफ्ट लिखा। शुरुआत में इसका नाम 'कशमकश' रखा गया था।
एक बार गीता बाली की बहन ने गुरु दत्त से कहा, 'आप क्यों नहीं अभिनय करते।'
वह कभी मानते न थे कि वह अभिनय कर सकते हैं। वह चाहते भी न थे। 'आर-पार' के लिए शम्मी कपूर को लेने की काफी कोशिश की गई औऱ 'मिस्टर एंड मिसेज 55' के लिए सुनील दत्त का कैमरा टेस्ट भी लिया गया। सभी इंतजाम होने के बाद गुरु दत्त बेचैन हो जाते थे। उपयुक्त नायक न मिलने पर वह खाली तो नहीं बैठ सकते थे, इसलिए उन्होंने स्वयं ही अपनी फिल्मों में काम करने का निश्चय किया। इसलिए उन्होंने 'बाज' फिल्म में अभिनय किया।
कई पटकथा लेखकों के साथ काम करने के निराशाजनक अनुभव के बाद सौभाग्य से उनकी मुलाकात अबरार अल्वी से हुई। अल्वी नागपुर से थे और उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की थी। वह नागपुर से मुंबई अभिनेता बनने की इच्छा लेकर आए थे। अल्वी के रिश्ते के भाई ने अल्वी का परिचय राज खोसला से करवाया। जब राज ने जाना कि अल्वी एक अच्छे लेखक हैं, तो उन्होंने उनसे 'बाज' के संवादों को पुन लिखने को कहा। गुर दत्त उनके कम से प्रसन्न हुए और आगे की फिल्म 'आर-पार' में उनके साथ काम करने को कहा।
गुरुदत्त के काम में अबरार अल्वी का सहयोग आसानी से आंका नहीं जा सकता। कई दिनों और महीनों तक साथ रहने के कारण समय के साथ उनकी दोस्ती बढ़ती गई। आखिरकार गुरु दत्त को एक ऐसा लेखक मिल गया, जो सिनेमा के माध्यम को समझता था। 40 के दशक की कई फिल्मों के अधिकतर पात्र चाहे वह राजा हो या सामान्य व्यक्ति, एक ही शैली में बात करते हुए देखे जा सकते हैं। अल्वी की यही खासियत थी कि वे अपने पात्रों को एक विशिष्ट पहचान दे सके। उनके प्रत्येक पात्र के संवाद उसके समाज तथा क्षेत्रीयता की पहचान दिलाते थे।
गुरु दत्त को उनके जानने वाले आज भी याद करते हैं उनकी अनिश्चितता को लेकर, चंचल मन को लेकर, बार-बार शूटिंग करने की आदत को लेकर।
30 अक्तूबर 1964 को उनके निधन पर फिल्मफेयर ने एक ऐसा लेख छापा, जिसका शीर्षक था- खुदा, मौत और गुलाम, कैफी आजमी ने गुरु दत्त की याद में एक कविता लिखी, जिसे इसके अग्रलेख में छापा गया-
'रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई,
तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई।'
किताब में शामिल गुरु दत्त के लिखे एक लेख का अहम अंश
अगर साहित्य, काव्य या चित्रकला को पैसों के लिहाज से उचित पुरस्कृत नहीं किया जाता या नहीं पहचाना जाता तो यह अधिकतर उन लोगों की प्रवृत्ति को दर्शाता है, जिन्हें उसका दायित्व उठाना चाहिए, न कि उस महान तपस्वी का, जिसने उसकी रचना की है। यही सच्चाई फिल्म के साथ भी है। अगर वह सचमुच में क्लासिक फिल्म है, पर अपेक्षित कमाई नहीं करती, तो उसका दोष पूरी तरह से रचनाकार पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि वित्तीय सफलता व विफलता अक्सर दर्शकों की सौंदर्यानुभूति की क्षमता, बौद्धिक स्तर तथा उनकी इच्छाओं- आकांक्षाओं आदि बाहरी तत्वों पर निर्भर रहती है। कई शताब्दियों से गौरव ग्रंथों के रचनाकार लीक से हटकर चलने और वर्तमान चलन से ऊपर उठने के दुःसाहस का दंड भोगते रहे हैं।
आइए हम कुछ उदाहरण देखें-
कहा जाता है कि महान कवि होमर को अपने जीवनकाल में भीख मांगनी पड़ी। उन सात नगरों ने होमर को मृत घोषित किया, जहां जीवित होमर जीने के लिए भीख मांगते थे।
गोल्ड स्मिथ को विकार ऑफ वेकफील्ड की पांडुलिपि की पांडुलिपि को अपना किराया भरने के लिए बेचना पड़ा। जॉनसन ने रसेल्स लिखकर अने परिवार के एक सदस्य के अंतिम संस्कार का खर्चा पूरा किया।
वान गॉग को रंग खरीदने के लिए कई सप्ताहों तक भूखा रहना पड़ा- अपनी पेंटिंग सूरजमूखी के फूल को कैनवास पर उतारने के लिए।
अपने ही देश में रामायण के रचनाकार तुलसीदास को आर्थिक संकटों से गुजरना पड़ा।
काव्यमयी महानता के बावजूद कबीर को अंत तक एक गरीब जुलाहे की तरह रहना पड़ा।
नरेश मेहता को जिन्होंने वैष्णव जन जैसे कालजयी गीत लिखे, को अपने सबसे पसंदीदा राग केदार को गिरवी रखना पड़ा अपने घरेलू जीवन का ऋण चुकाने के लिए।